खाद्यान्न संकट के हल में खाद्य प्रणालियां कितनी असरकारक!

यूक्रेन में चल रहे युद्ध ने दुनिया में खाद्य-प्रणाली पर किए जा रहे अनुसंधानों को बुरी तरह से प्रभावित किया और इसका नतीजा है कि विश्वभर में खाद्य आपूर्ति का स्थायीत्व ही डगमगा गया है
File Photo: Vikas Chaudhary
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यूक्रेन में चल रहे युद्ध ने दुनियाभर में खाद्य-प्रणाली पर किए जा रहे अनुसंधानों को बुरी तरह से प्रभावित किया है। यही नहीं, विशेषज्ञों का तो यहां तक कहना है कि यूक्रेन पर लगातार रूसी आक्रमण का परिणाम है कि विश्व में खाद्य आपूर्ति की स्थिरता ही बुरी तरह से डगमगा गई है।

इसके अलावा विश्वभर में बार-बार होने वाले खाद्य संकटों के कुचक्रों को रोकने के लिए दुनियाभर में किए जा रहे शोध भी कम प्रभावित नहीं हुए हैं।

ध्यान रहे कि यूक्रेन गेहूं का एक प्रमुख निर्यातक देश के रूप में विश्व में जाना जाता है, लेकिन रूसी आक्रमण से इस साल की फसल को भारी खतरा पैदा हो गया है।

यूक्रेन में चल रहे युद्ध के कारण उसके वित्तीय संकट के साथ ही सभी वैश्विक खाद्य प्रणालियों पर भी दबाव बढ़ गया है, क्योंकि यूक्रेन और रूस दुनिया के कुल गेहूं का 14 प्रतिशत उत्पादन करते हैं और इनका दुनिया के गेहूं में निर्यात का हिस्सा 30 प्रतिशत है।

साथ ही साथ दुनिया के 60 प्रतिशत सूरजमुखी तेल का उत्पादन भी यही दो देश करते हैं। दोनों के देशों के बीच चल रहे युद्ध ने अब यह निर्यात को खतरे में डाल दिया है।

इस युद्ध के कारण अधिकांश यूक्रेनी किसान अत्यधिक तनाव में जीने पर मजबूर हैं। कारण कि एक तरफ वे वर्तमान में अपनी इस साल की फसल की देखभाल कर रहे हैं तो दूसरी ओर अपने देश के लिए भी एक सैनिक की भूमिका निभाते हुए रूसी सैनिकों से लड़ने पर मजबूर हैं यानी यूक्रेनी किसानों को दो-दो मोर्चों पर लड़ना पड़ रहा है।

वाशिंगटन डीसी स्थित इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के रॉब वोस के अनुसार, 12 अप्रैल तक कुल 16 देशों ने खाद्य निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया था। इसके कारण आपूर्ति में यह उल्लेखनीय कमी मुद्रास्फीति को बढ़ावा दे रही है।

इसका प्रभाव दुनिया के कुछ सबसे गरीब और सबसे कमजोर लोगों के लिए विनाशकारी साबित हो सकता है। सोमालिया, सेनेगल और मिस्र सहित कम से कम 26 देश, रूस और यूक्रेन के गेहूं पर 50 से लेकर 100 प्रतिशत तक निर्भर हैं।

यदि यह युद्ध अनवरत रूप से और जारी रहता है तो पहले से ही कोविड-19 महामारी के कारण कर्ज से दबे इन गरीब देशों को दुनिया के अमीर देशों से अधिक उधार लेने के लिए मजबूर होना पड़ सकता है, जिससे इन देशों की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़े बिना नहीं रहेगा।

विशेषज्ञों का कहना है कि यह अत्याधिक कर्ज इन गरीब देशों की स्थिति को श्रीलंका और अब धीरे-धीरे नेपाल जैसी स्थिति पैदा हेा जाएगी। इसलिए कर्ज लेना किसी समस्या का दीर्घकालिक हल नहीं है।

खाद्य प्रणाली विज्ञान एक जटिल प्रक्रिया है। इन समस्याओं का निदान संभव है लेकिन महामारी, लगातार युद्ध और चरम मौसमी घटनाओं ने गरीब देशों की स्थिति को और बदतर बना दिया है। यहां ध्यान देने की बात है कि विश्वभर के देशों के बीच महामारी, युद्ध और चरम मौसमी घटनाओं पर बहुत कम सहमति बन पाती है।

खाद्य-प्रणाली विज्ञान के दृष्टिकोणों और अनुसंधान के बीच भारी अंतर है। गरीब देशों के पास कोई अंतर-सरकारी तंत्र भी नहीं है जिसके माध्यम से सरकारें, अनुसंधान सलाह द्वारा सूचित किए जाने के बाद खाद्य प्रणालियों पर कार्रवाई करने के लिए बाध्य हों।

हालांकि विशेषज्ञों का कहना है कि खाद्य आयात पर देशों को अपनी निर्भरता कम करने वाली नीति को अपनाया जाना चाहिए। भले ही इसका मतलब उन विकल्पों को चुनना हो जो उनके देश में पर्यावरण की दृष्टि से सबसे अधिक अच्छे न हों।

इसके उदाहरण के लिए जंगलों की कटाई ताकि अधिक अनाज और तेल के लिए पैदा की जाने वाली फसलें घरेलू बाजारों के आसपास उगाई जा सकें। विशेषज्ञों का कहना है कि कायदे से देखा जाए तो संकट ही वास्तव में पर्यावरण के प्रति जागरूकता को बढ़ने का मौका प्रदान करता है।

विश्वस्तर पर जैव विविधता के नुकसान का प्रमुख कारण है कि सभी प्रकार की खेती ग्रीनहाउस-गैस उत्सर्जन में 30 प्रतिशत का योगदान करती है। कम से कम इस प्रकार की नीतियों का क्रियान्वयन किया जाना चाहिए जिससे कम से कम ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन हो। तभी खाद्य आपूर्ति की स्थिति को आसानी से बहाल किया जा सकता है।

वाशिंगटन डीसी स्थित एक पर्यावरण थिंक टैंक विश्व संसाधन संस्थान के अनुसार लगभग एक तिहाई वैश्विक खेत पशुचारे का उत्पादन करते हैं। यदि वे कम पशु उत्पादों को खाते हैं तो मनुष्य बहुत कम भूमि का उपयोग करके अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा कर सकते हैं।

दूसरा, विश्व स्तर पर उत्पादित सभी खाद्य पदार्थों का एक तिहाई हिस्सा थाली तक कभी नहीं पहुंच पाता। वास्तव में यह उत्पादन श्रृंखला में ही कहीं खो जाता है या घरों में पहुंचने के बाद बर्बाद हो जाता है।

कटाई और भंडारण के तरीकों में सुधार संभावित रूप से नुकसान को कम कर सकता है, क्योंकि उपभोक्ताओं को अधिक जिम्मेदार विकल्प का उपयोग करने के लिए प्रेरित करने के प्रयास किए जा सकते हैं।

तीसरा, खेती के तहत अधिकांश भूमि पर गेहूं, चावल, मक्का, सोया और आलू जैसी खाद्य फसलों का कब्जा है। यह खेती जैव विविधता के नुकसान में योगदान देती है। यदि खेती में अधिकतर फलियां, नट और सब्जियों को शामिल करने के लिए कृषि क्षेत्र में विविधता लाई जाए तो इससे पर्यावरण और आम लोगों को लाभ होगा, क्योंकि ये फसलें महत्वपूर्ण पोषक तत्व प्रदान करती हैं।

जैव ईंधन उगाने के लिए वर्तमान में उपयोग की जा रही फसल भूमि को वापस खाद्य फसलों में परिवर्तित किया जा सकता है। अमेरिका में लगभग 40 प्रतिशत मक्का का उपयोग इथेनॉल बनाने के लिए किया जाता है। अनुसंधान से पता चलता है कि फसल भूमि पर उगाए जाने वाले जैव ईंधन जलवायु को स्वच्छ बनाने में उतने उपयोगी नहीं हैं।

ध्यान रहे कि इन उपायों में से प्रत्येक की एक अच्छी खासी लागत होगी और इसका समय-समय पर मूल्यांकन किए जाने की जरूरत होगी। यही कारण है कि इस क्षेत्र में अनुसंधान कार्य महत्वपूर्ण हैं। हालांकि इस शोध के कुछ क्षेत्र पेचीदा भी हैं।

कृषि विज्ञान के विश्लेषण में पाया गया कि 5 प्रतिशत से कम छोटे किसानों की जरूरतों के लिए अनुसंधान प्रासंगिक है। इसके अलावा कृषि अनुसंधान के प्रमुख वित्तपोषक मुख्य अनाज फसलों में अनुसंधान को अत्यधिक वित्तपोषित करते हैं।

नीदरलैंड में ट्वेंटी विश्वविद्यालय में विज्ञान, प्रौद्योगिकी और समाज की अध्यक्ष एस्थर टर्नहाउट कहती हैं कि यहां कुछ गलत हो रहा है कि हम खाद्य प्रणालियों को कैसे समझते हैं और समस्या का एक हिस्सा यह है कि हम खाद्य प्रणालियों में शोध कैसे करते हैं।

पिछले साल संयुक्त राष्ट्र के एक प्रमुख शिखर सम्मेलन में प्रतिनिधियों ने खाद्य प्रणालियों के लिए जलवायु परिवर्तन पर बनी अंतर सरकारी पैनल (आईपीसीसी) के समान एक निकाय की स्थापना पर विचार किया था। यह निकाय नीति-निर्माताओं के सवालों का जवाब देगा और यह उपलब्ध सबूतों के विश्लेषण के आधार पर सलाह देगा। खाद्य प्रणालियों में एक अंतर सरकारी तंत्र की कमी बेहद खलती है।

ब्रसेल्स में यूरोपीय आयोग को रिपोर्ट करने वाले एक विशेषज्ञ समूह द्वारा खाद्य प्रणालियों के लिए आईपीसीसी-शैली पैनल की वास्तविकता पर शोध किया जा रहा है। इसकी सिफारिशें इस बात की पुष्टि करेंगे कि मौजूदा संगठन वह नहीं दे रहे हैं जिसकी आवश्यकता है लेकिन पर्यावरण वैज्ञानिक जैकलीन मैकग्लेड कहते हैं कि जरूरी नहीं कि एक नया आईपीसीसी-शैली वाला निकाय हो।

इसके बजाय समूह से अपेक्षा की जाती है कि वह कम प्रतिनिधित्व वाले समूहों से ज्ञान और साक्ष्य इकट्ठा करने के लिए अधिक प्रयास की सिफारिशें करें।

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