“भोजन व खेती में शामिल नहीं होती छिपी लागतें, आर्थिक सफलता मापने का तरीका ही गलत”
यह रिपोर्ट राष्ट्रीय-स्तर के मूल्यांकन का पहला ऐसा प्रयास है। क्या आप इसके महत्व पर प्रकाश डाल सकते हैं?
कृषि समेत तमाम आर्थिक गतिविधियों की सफलता या प्रभावों की माप के हमारे तौर-तरीके में एक व्यवस्थागत समस्या है। हमारी सभी आर्थिक क्रियाओं में बाहरी कारक जुड़े हैं। यानी दूसरों पर इन आर्थिक गतिविधियों के अवांछित और बिना क्षतिपूर्ति वाले प्रभाव (नकारात्मक या सकारात्मक) होते हैं। अपनी आर्थिक क्रियाओं के परिणामों के लेखांकन के हमारे तौर-तरीके में सकारात्मक और नकारात्मक बाह्यताओं (एक्स्टर्नैलिटी) की लगातार उपेक्षा हो रही है। पिछले 150 वर्षों में जीवाश्म ईंधन उद्योग द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की लागत को नजरअंदाज किया जाना इसका सबसे अहम उदाहरण है। हमने उनका हिसाब-किताब नहीं रखा, लेकिन अब हम उसकी ऊंची लागत देख रहे हैं। एसओएफए 2023 रिपोर्ट हमारी कृषि प्रणालियों की सभी लागतों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती है। यह खाद्य और कृषि के लिए जिम्मेदार अंतरराष्ट्रीय संगठन का पहला अधिकृत प्रकाशन है। रिपोर्ट स्वीकार करती है कि यूएन के 193 सदस्यों ने अपने लेखांकन में खाद्य प्रणालियों के महत्वपूर्ण प्रभावों और सहायक लागतों को नजरअंदाज किया है। ऐसा पहली बार है जब एफएओ ने न सिर्फ वैश्विक पैमाने पर बल्कि हरेक देश के हिसाब से बाह्यताओं पर नजर रखने के लिए मॉडल तैयार करने की कोशिश की है। यह इस गहन चर्चा की शुरुआत है कि हम अपनी कृषि प्रणालियों को कैसे सतत और टिकाऊ बना सकते हैं, नकारात्मक बाह्यताओं को कैसे कम कर सकते हैं और सकारात्मक बाह्यताओं में कैसे बढ़ोतरी कर सकते हैं।
एफएओ जैसे संगठन अब तक क्या गलती कर रहे थे?
एफएओ आर्थिक सफलता की जानकारी देने के लिए मानक तौर-तरीके अपना रहा था। मगर, हमारी आर्थिक गतिविधियों और उनके अतिरिक्त प्रभावों का समुचित ढंग से लेखा-जोखा नहीं रखा जा रहा है। कृषि उत्पादन की लागत और कुपोषण में इनको शामिल नहीं किया गया है। हम लोग प्राकृतिक पूंजी की लागत और प्रभावों के साथ-साथ सामाजिक मसलों की लागत को नजरअंदाज कर रहे हैं। हम स्वास्थ्य से जुड़ी लागत का भी गलत तरीके से लेखांकन कर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर, फिलहाल सुपरमार्केट में खाद्य पदार्थों के लिए हमारे द्वारा चुकाई गई कीमत को ही लागत के रूप में जोड़ा जाता है। जिसमें मिसाल के तौर पर श्रम, मशीन, पेट्रोल और ऊर्जा की लागत शामिल है। इस संदर्भ में प्रकृति (प्राकृतिक पूंजी) को पहुंचाई गई क्षति का हिसाब-किताब नहीं रखा जाता। इनमें खराब हो चुकी भूमि के पुनरुद्धार की लागत, जलवायु परिवर्तन की लागत और वायु प्रदूषण के चलते स्वास्थ्य पर होने वाला खर्च शामिल हैं। साफ है कि हम चार अलग-अलग बटुओं से कीमत चुका रहे हैं लेकिन लेखांकन केवल बटुआ नंबर 1 का कर रहे हैं। यानी सुपरमार्केट में हमारे द्वारा अदा की जा रही कीमत को ही जोड़ रहे हैं। दूसरे बटुओं से हम पर्यावरण के क्षरण और कुपोषण के चलते खराब मानव स्वास्थ्य की कीमत चुका रहे हैं। साथ ही हम ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक समरसता को नष्ट कर रहे हैं। अब, पिछले कुछ वर्षों में टीएमजी समेत शोधकर्ताओं के वैश्विक समुदाय के साथ यूएन ने टीईईबी एग्रीफूड फ्रेमवर्क तैयार किया है। इसमें हम उन सभी नकारात्मक और सकारात्मक बाह्यताओं (तीसरे पक्ष को प्रभावित करने वाले परिणाम) की समग्र रूप से माप करने की कोशिश करते हैं, जो वास्तविक हैं लेकिन मौजूदा आर्थिक व्यवस्था द्वारा उनकी माप नहीं की जाती। यही रूपरेखा एसओएफए 2023 का आधार है।
रिपोर्ट दर्शाती है कि चीन, अमेरिका और भारत छिपी लागतों में योगदान देने वाले शीर्ष के तीन देश हैं और अस्वास्थ्यकर आहार प्रवृतियों का इन लागतों में सबसे बड़ा हिस्सा है। वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य से जुड़ी लागतों में यह रुझान कितना अहम है?
इसमें कोई अचरज नहीं कि अपनी विशाल जनसंख्या के हिसाब से चीन, भारत और अमेरिका में यह लागत सबसे ज्यादा है। हम देख सकते हैं कि अपनी ऊंची नकारात्मक लागतों के चलते सस्ता भोजन अक्सर बेहद महंगा होता है। एक रुझान दिख रहा है कि भले ही हम भोजन को और सस्ता बनाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन यह स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च को बढ़ा रहा है। सुपरमार्केट्स में अति-प्रसंस्कृत औद्योगिक खाद्य पदार्थ सस्ते तो हैं लेकिन स्वास्थ्य के मोर्चे पर बढ़ते खर्चों (उदाहरण के तौर पर टाइप 2 डायबिटीज का इलाज) के चलते छिपी लागत बहुत ऊंची है। इसलिए हमें टीसीए की दरकार है।
ऐसे अति-प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों का उपभोग अर्द्ध-शहरी और ग्रामीण इलाकों में भी बढ़ रहा है। एक मध्यम या निम्न-आय वाले देश के लिए यह कितना अहम है, जहां छिपी लागतें बीमारियों के भारी बोझ और श्रम की निम्न उत्पादकता का कारण बन सकती हैं?
मैं गैर-टिकाऊ खाद्य प्रणालियों की लागतों को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के संदर्भ में रखना चाहूंगा। वैश्विक स्तर पर यह लागत वैश्विक जीडीपी का तकरीबन 10 प्रतिशत है। अल्प विकसित देशों में यह जीडीपी के 27 प्रतिशत तक पहुंच जाता है। इस प्रकार, आप देख सकते हैं कि अल्प विकसित देश सबसे ऊंची लागतों वाले और सस्ते लगने वाले खाद्य पदार्थों के लिए अपेक्षाकृत ऊंची कीमत चुकाते हैं। मुख्य रूप से अल्प-पोषण के चलते उत्पादकता में होने वाले नुकसान और गरीबी के स्वरूप में ऐसी लागत अदा की जाती है। इसलिए, अस्वास्थ्यकर भोजन मुहैया कराना विकास के रास्ते की बड़ी बाधा है।
सरकारें उत्पादन और उपभोग विकल्पों को कैसे प्रभावित कर सकती हैं? यहां एक पूरी श्रृंखला है जो उत्पादकों से खुदरा विक्रेताओं और उपभोक्ताओं तक जाती है।
सर्वप्रथम, हमें ये स्वीकार करना होगा कि अपनी आर्थिक गतिविधियों की कामयाबी की माप करने का हमारा तौर-तरीका आधा-अधूरा है। यह हमारी क्रियाओं की वास्तविक लागत का प्रदर्शन नहीं करता है। हमें पता है कि जीडीपी दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण आंकड़ा है। हर सरकार कहती है कि उसने जीडीपी में बढ़ोतरी की है। लेकिन हम इसकी माप गलत तरीके से कर रहे हैं। जीडीपी एक सामाजिक रचना है और हमें सफलता की माप करने के अपने तरीके को बदलना होगा।
हमें बड़ी कंपनियों द्वारा मानक जानकारी और लेखांकन करने के ढंग में भी बदलाव करना होगा क्योंकि वे कारोबारी प्रभावों की माप आधे-अधूरे तरीके से कर रहे हैं और इस प्रक्रिया में पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहे हैं। वे ऐसे ढंग से अपनी आर्थिक गतिविधियों के परिणाम प्रस्तुत कर रहे हैं जिससे वास्तविकता का प्रदर्शन नहीं हो रहा है। यह एक राजनीतिक बहस है जो कृषि से आगे निकल जाती है और सभी आर्थिक क्षेत्रों के लिए एक सच्चाई है। बेशक, कई विकासशील देशों के लिए खेतीबाड़ी सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक क्रिया है। इसलिए हम सरकारी स्तर (वृहत स्तर) पर वास्तविक मूल्य की माप से शुरू करते हैं और इसे निजी क्षेत्र (सूक्ष्म स्तर) के मानक लेखांकन में भी शामिल करते हैं। अपनी नकारात्मक बाह्यताओं पर ध्यान देना इन कंपनियों के भी सर्वोत्तम हित में है। अगर कोई कृषि उत्पादक भूमि को बड़े पैमाने पर खराब कर रहा है तो वह अपने कारोबार को जारी रखने की क्षमता को ही कमजोर कर रहा है। मुमकिन है कि 20 या 30 वर्षों में इस कंपनी को उस जमीन के उद्धार के लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। जोखिम प्रबंधन के उपकरण के रूप में उपयोग में लाए जाने के लिए कंपनियों में लेखांकन के तौर-तरीकों में बदलाव करने की जरूरत है। इससे कंपनियों को अपनी छिपी लागतों के बारे में जानने और यह पता लगाने का मौका मिलता है कि भविष्य में उत्पादन जारी रखने की उनकी क्षमता पर यह छिपी लागतें कितना असर डालेंगी।
यहां भी, जीवाश्म ईंधन उद्योग एक सटीक उदाहरण है। लेखांकन प्रणाली में तो उत्सर्जन की कोई लागत नहीं है, लेकिन वास्तवकिता में उनकी कीमत चुकानी पड़ती है। अब हमें पता चल रहा है कि सस्ते जीवाश्म ईंधन बेतहाशा महंगे हैं। जलवायु परिवर्तन को धीमा करने और बदलती जलवायु के हिसाब से अनुकूलित होने के लिए लोगों को इसकी कीमत चुकानी होगी। भावी पीढ़ियों को इसके लिए भुगतान करना होगा। लिहाजा, पहली और सबसे महत्वपूर्ण बात हमारी मानसिकता में और हम सफलता को कैसे मापते हैं, उसमें बदलाव करने का है। जब हम कृषि की ओर देखते हैं तो पाते हैं कि गरीब लोगों को अस्वास्थ्यकर भोजन मुहैया कराने की लागत कहीं न कहीं से पूरी होनी है। यह कीमत या तो लोगों के बीमार रहने के चलते आर्थिक गतिविधि में गिरावट से या स्वास्थ्य प्रणाली से चुकता होगी। इस प्रकार, टाइप 2 डायबिटीज और कुपोषित आबादी के साथ हम भविष्य के लिए कर्ज का जाल तैयार करते जा रहे हैं। यह रिपोर्ट अब उन तौर-तरीकों को बदलने का उपकरण मुहैया करा रही है जिनसे हम खाद्य प्रणालियों के बारे में फैसला लेते हैं।
लेखांकन के संदर्भ में इन छिपी हुई पर्यावरण लागतों को नीति निर्माण में एकीकृत करना कितना चुनौतीपूर्ण है और सरकारों को कहां से शुरुआत करनी चाहिए?
हमारे समक्ष लेखांकन की एक वैश्विक प्रणाली है जिस पर औद्योगिकृत देशों का जबरदस्त प्रभाव है। इसलिए, दुनिया के सभी देशों को अपने लेखांकन में बदलाव लाना होगा। यह एक लंबा और टेढ़ा रास्ता है, लेकिन मेरे नजरिए से यह उस हालात को टालने का इकलौता उपाय है जिसमें औद्योगिकृत देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियां मुनाफा कमाएंगी और विकासशील देशों को स्वास्थ्य का खर्चा उठाना पड़ेगा। इसलिए, लेखांकन में परिवर्तन स्वाभाविक न्याय का भी सवाल है। यह एक बड़ी राजनीतिक बहस है। हरेक देश आभासी रिपोर्टिंग से शुरुआत कर सकता है। अंतरराष्ट्रीय उद्देश्यों के लिए देशों को मानक लेखांकन करना होगा, लेकिन वे आभासी लेखांकन से शुरुआत करते हुए यह कह सकते हैं कि प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन के लिए अलग तरीका अपना रहे हैं। सवाल यह है कि प्राकृतिक पूंजी के लिए ऊंची कीमत चुकाते हुए दूसरे देशों को सस्ती दरों पर वस्तुओं का निर्यात करने वाले विकासशील देशों को ही सस्ती वस्तुओं का उत्पादन क्यों करना चाहिए? ऐसी परिस्थिति में मुनाफा तो विकसित देशों को जाएगा जबकि विकासशील देशों को प्राकृतिक संसाधनों में गिरावट की कीमत चुकानी पड़ेगी।
कार्यप्रणाली संबंधी दृष्टिकोण क्या हो सकता है?
ताजा रिपोर्ट और टीईईबी एग्रीफूड फ्रेमवर्क के साथ सभी देशों के सांख्यिकीय कार्यालयों को नए-नए काम पूरे करने हैं। उन्हें इस बात की पड़ताल करनी होगी कि वे किन चीजों को नजरअंदाज कर रहे हैं और कैसे वे इन्हें सांख्यिकीय प्रमाण के रूप में तब्दील कर सकते हैं। अपने देश के लिए टीसीए तैयार करना वह पहला कार्य है जो राजनेता सांख्यिकीय कार्यालयों को सौंप सकते हैं। निजी क्षेत्र के लिए भी यह एक दायित्व है। मेरी कंपनी ने एक हैंडबुक तैयार किया है जिसकी मदद से निजी क्षेत्र बाह्यताओं पर ध्यान देना शुरू कर सकते हैं। हमने खाद्य कंपनियों के 20 अलग-अलग उत्पादों के साथ इसका परीक्षण किया है। यह हैंडबुक नि:शुल्क उपलब्ध है। कंपनियां इसका उपयोग करके यह देख सकती हैं कि उनके नकारात्मक प्रभाव और सकारात्मक बाह्यताएं कितनी ज्यादा हैं। 2024 में एफएओ की अगली रिपोर्ट में विभिन्न परिप्रेक्ष्यों से हमारी खाद्य प्रणालियों की वास्तविक लागत पर हुए अलग-अलग अध्ययनों पर विचार किया जाएगा। इस तरह बेहद वैज्ञानिक और सैद्धांतिक स्तर से वास्तविक जीवन की ओर रुख किया जा सकेगा।