फाइल फोटो: आईस्टॉक
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स्वस्थ भोजन: पोषण सुरक्षा के लिए पारंपरिक खानपान को अपनाना होगा

हमारा खानपान केवल पेट भरने के लिए नहीं था, बल्कि यह हमें स्वस्थ रखने, कुपोषण से बचाने और पर्यावरण के साथ सामंजस्य बनाने का एक तरीका था
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पोषण अभियान भारत सरकार का प्रमुख कार्यक्रम है, जिसका उद्देश्य 6 वर्ष से कम आयु के बच्चों, गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं के लिए पोषण संबंधी परिणामों में सुधार करना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा शुरू किया गया 7वां राष्ट्रीय पोषण माह 2024 (प्रधानमंत्री की समग्र पोषण योजना) अभियान का उद्देश्य मिशन-मोड में कुपोषण की चुनौती का समाधान करना है।

मध्य प्रदेश में कुपोषण एक गंभीर मुद्दा बना हुआ है, जो बच्चों, किशोरी बालिकाओं और महिलाओं के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 रिपोर्ट मध्य प्रदेश में पोषण के कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डालती है-

स्टंटिंग और वेस्टिंग: बच्चों में स्टंटिंग (उम्र के हिसाब से कम लंबाई) की व्यापकता एक बड़ी चिंता बनी हुई है, जो पांच साल से कम उम्र के लगभग 35.7 प्रतिशत बच्चों को प्रभावित करती है। वेस्टिंग (ऊंचाई के हिसाब से कम वजन) में थोड़ा सुधार हुआ है, लेकिन अभी भी 19 प्रतिशत बच्चे इससे प्रभावित हैं। 33 प्रतिशत पांच साल से कम उम्र के बच्चे अंडरवेट या कम वजन के हैं। बच्चों के लिए यह चुनौतियां आज भी हैं।

एनीमिया: एनीमिया अर्थात रक्त अल्पता एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, जिसमें महिलाएं, गर्भवती महिलाएं (लगभग 58 प्रतिशत) और बच्चे (लगभग 70.7 प्रतिशत) प्रभावित हैं। इसका मातृ और बाल स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। आहार विविधता सर्वेक्षण से पता चलता है कि घरों में आहार विविधता की कमी है। कई परिवार मुख्य खाद्य पदार्थों पर निर्भर हैं, जिनमें फलों, सब्जियों और प्रोटीन स्रोतों का सीमित समावेश होता है।

अब हम प्रदेश के कृषि उत्पादन के कुछ आंकड़ों पर नजर डालते हैं। मध्य प्रदेश देश का दूसरा सबसे बड़ा राज्य है और कृषि क्षेत्र में भी अच्छी प्रगति कर चुका है। यह प्रदेश कृषि उत्पादन में सोयाबीन, चना, उड़द, अरहर, मसूर में भारत में पहले स्थान पर है, जबकि मक्का, रामतील और मूंग उत्पादन में दूसरे स्थान पर है। गेहूं और जौ में तीसरे स्थान पर है और साथ में पशुपालन में भी तीसरे स्थान पर है। उत्पादन में अच्छे स्थान के बावजूद भी कुपोषण और माताओं तथा महिलाओं में एनीमिया जैसी स्थिति बनी हुई है। इस स्थिति के कारणों को ढूंढ़ने की आवश्यकता है।

अब तक हमारी सारी योजनाओं में पोषण अनुपूरक या पोषण पूरक आहार पर अधिक जोर दिया गया है। यह जरूरी है लघु अवधि के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए, लेकिन एक दीर्घकालिक कार्यक्रम को लागू करने के लिए अलग-अलग पहलुओं को जोड़ने की आवश्यकता है और साथ में समस्या की जड़ तक पहुंचने की आवश्यकता है।

पोषण की इन गंभीर चुनौतियों को नए दृष्टिकोण से सोचना जरूरी है। हमारे पारंपरिक खानपान में पोषक तत्वों की भरमार है, जो अब हमारी भोजन व्यवस्था से दूर होती जा रही है। इसका परिणाम यह है कि लोग अब अपने पारंपरिक खानपान को असहज महसूस करते हैं और इसे सम्मान या गर्व से नहीं देखते।

चरक संहिता के अनुसार किसी भी रोग से मुक्ति के लिए उचित खानपान का अत्यंत महत्व है। औषधि के प्रयोग से मिलने वाला लाभ उचित आहार से ही प्राप्त होता है। सही भोजन लेना औषधि से 100 गुना अधिक लाभकारी है। अनुचित खानपान ही शरीर में रोग का मुख्य कारण है।

आयुर्वेद के महान आचार्य कश्यप अपनी कश्यप संहिता में कहते हैं "आहारो महाभैषज्यम उच्यते" अर्थात खानपान से बड़ी कोई औषधि इस धरती पर नहीं है। हमारा खानपान हमारे स्थानीय उत्पादन, स्थानीय खेती, स्थानीय वन उपज और अकृषित खाद्य पर निर्भर रहा है।

समय के साथ हमारे खानपान में बदलाव आया है, हमारी निर्भरता जो पहले खेती से उत्पादित विभिन्न प्रकार के अनाज, मोटे अनाज, दाल, सब्जी, और जंगल से मिलने वाली वनौपज जैसे कंद-मूल, फल-फूल, सब्जियां, साग-भाजी, मशरूम आदि पर आधारित थी, वह धीरे-धीरे बदल रही है।

अब हमारे भोजन में स्थानीय उत्पादन का समावेश कम होता जा रहा है। हाल ही में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट और डाउन टू अर्थ पत्रिका द्वारा जारी एक रिपोर्ट बताती है कि दुनिया की 42 प्रतिशत आबादी स्वस्थ और पोषक आहार का खर्च नहीं उठा सकती, जबकि भारत में यह आंकड़ा 71 प्रतिशत है।

गांवों और शहरों में बाजार पर मिलने वाला भोजन लगभग एक जैसा है। रेस्तरां और ढाबों में आमतौर पर पनीर, छोले, दाल और नाश्ते में पोहा, पुड़ी, इडली और डोसा देखा जा सकता है। दलहन फसलों के उत्पादन में भारत सबसे आगे है, लेकिन इसके बावजूद दाल का आयात बढ़ता जा रहा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2021-22 में 26.99 लाख टन दाल आयात हुआ था, जो 2023-24 में बढ़कर 47.38 लाख टन हो गया है।

पारंपरिक खानपान को लेकर आदिवासी बहुल जिलों में पोषण के बेहतर परिणाम देखने को मिलते हैं। ये जिले अपने पारंपरिक आहार, स्थानीय उत्पादन और प्राकृतिक संसाधनों के समावेश के कारण अच्छे पोषण परिणाम प्राप्त कर रहे हैं।

मध्य प्रदेश में 30 प्रतिशत क्षेत्र वन से आच्छादित है और 21 प्रतिशत जनसंख्या आदिवासी है। यहाँ के कई गांवों में जंगल, गोचर भूमि, सामाजिक वन और अन्य सामूहिक संसाधन उपलब्ध हैं, जो पोषण सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं। सामुदायिक वन संसाधन अधिकारों के अंतर्गत आदिवासियों को वन संसाधनों के उपयोग, प्रबंधन और संरक्षण के अधिकार को मान्यता प्रदान करनी चाहिए।

इस प्रदेश में जैविक खेती को बढ़ावा देने से पोषण सुरक्षा को सशक्त किया जा सकता है। पारंपरिक बीजों के संग्रहण, जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीलापन, और खाद्य पदार्थों के स्थानीय उत्पादन से जुड़े कदमों से स्वस्थ आहार को बढ़ावा दिया जा सकता है।

आखिरकार, हमें यह समझना होगा कि हमारा खानपान केवल पेट भरने के लिए नहीं था, बल्कि यह हमें स्वस्थ रखने, कुपोषण से बचाने और पर्यावरण के साथ सामंजस्य बनाने का एक तरीका था। स्थानीय आहार को प्रोत्साहित करना और उसे सम्मान देने के साथ-साथ सामुदायिक प्रयासों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।

इतना विविध खानपान की धरोहर होने के बावजूद, इस संकीर्णता पर विचार करने की आवश्यकता है। जहां जंगल में उत्पादित वनोपज और अकृषित खाद्य पदार्थों को आहार में शामिल किया जाता है, वहीं आज भी पारंपरिक खेती, देसी बीजों का उपयोग और जैव विविधता की सुरक्षा के साथ आहार में विविधता प्रचुर मात्रा में पाई जाती है।

जंगल, प्रत्येक गांव का गोचर/चारागाह, सामाजिक बन और अन्य सामूहिक संसाधन उपलब्ध हैं। यहां विभिन्न प्रकार के आहार्य खाद्य पदार्थों और वनोपज जैसे जड़ी-बूटियां, सब्जियां, भाजी, फल, कंद, शहद, हर्रा, बहेरा, आंवला, मशरूम, और जलाशयों से मिलने वाली उपज भी शामिल हैं। यह सामूहिक संसाधन आर्थिक रूप से वंचितों, महिलाओं, भूमिहीनों और अन्य वंचित समुदायों के लिए सबसे अधिक सुरक्षा प्रदान करते हैं।

देशी खाद्य पदार्थ स्थानीय आहार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन खाद्य पदार्थों को अक्सर आधुनिक कृषि में अनदेखा किया जाता है, लेकिन ये आवश्यक पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं। भोजन, घरेलू आवश्यकताएं और आजीविका के अलावा, ये सामूहिक संसाधन हमारे पारिस्थितिकी तंत्र के महत्वपूर्ण संघटक भी होते हैं।

हर घर में एकीकृत पोषण वाटिका, जहां सब्जी-भाजी के साथ मुर्गा, बकरी और गाय-बैल के पालन और संवर्धन को बढ़ावा दिया जाता है, इससे नियमित रूप से हरी सब्जी, अंडे, दूध और अन्य खाद्य पदार्थ उपलब्ध हो सकते हैं, और बाजार पर निर्भरता कम होगी। प्राकृतिक खेती को अपनाने से स्वस्थ खाद्य उत्पादन विधियों को बढ़ावा दिया जा सकता है, जिससे पोषण संकट को दूर किया जा सके।

हमारा खानपान सिर्फ पेट भरने के लिए नहीं था, बल्कि यह कुपोषण और गंभीर बीमारियों से बचने का भी एक उपाय था। यह भी सुनिश्चित किया जाता था कि हम अपने पारंपरिक बीजों को संरक्षित रखें और पर्यावरण अनुरूप खेती करें ताकि वह टिकाऊ और स्थिर रहे। साथ ही, हमारा यह भी मानना था कि हमारे स्थानीय खाद्य पदार्थ हमारी पहचान बने।

हमारे खानपान से संरक्षण और सामूहिक संसाधनों के जुड़ाव को बनाए रखना हमारा उत्तरदायित्व है। हमें प्रकृति के साथ गहरे रिश्ते को बनाए रखना चाहिए ताकि हमारी खेती और हमारा खानपान हमें स्वस्थ और निरोग रख सके, साथ ही यह भी सोचना चाहिए कि हमारा खानपान हमारी विरासत पर हमें गर्वित कैसे कर सकता है। अपने खानपान, अपनी खेती और प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करके दीर्घकालिक खेती को बढ़ावा देना चाहिए।

प्राकृतिक खेती या परंपरागत खेती का ज्ञान आने वाली पीढ़ियों को संजोकर देना आवश्यक है। सामुदायिक समर्थन: स्थानीय जैविक/प्राकृतिक किसानों का समर्थन करने से सामुदायिक संबंध मजबूत होते हैं और स्थानीय रूप से उत्पादित पौष्टिक खाद्य पदार्थों के उपभोग को बढ़ावा मिलता है। यह उपज का उद्देश्य स्थानीय लोगों के आहार का हिस्सा बनने पर जोर देने की आवश्यकता है।

चुनौतियाँ अभी भी बनी हुई हैं, लेकिन सहयोगी प्रयासों, लक्षित हस्तक्षेपों और सामुदायिक जुड़ाव के माध्यम से सुधार के कई अवसर भी हैं। पोषण को प्राथमिकता देकर मध्य प्रदेश अपनी आबादी के लिए एक स्वस्थ भविष्य की दिशा में काम कर सकता है। मध्य प्रदेश में कुपोषण से निपटने के लिए अनकृषि खाद्य पदार्थों, पारंपरिक आहार और जैविक प्रथाओं का संयोजन एक बहुआयामी दृष्टिकोण प्रदान करता है।

स्थानीय संसाधनों और ज्ञान का उपयोग करके राज्य पोषण विविधता को बढ़ा सकता है, स्वास्थ्य को बढ़ावा दे सकता है और टिकाऊ कृषि प्रथाओं को बढ़ावा दे सकता है। इन समाधानों की पूरी क्षमता को साकार करने के लिए समुदायों, नीति निर्माताओं और संगठनों के बीच सहयोगात्मक प्रयास आवश्यक हैं। आदिवासी और अन्य पारंपरिक वनवासी समुदायों को प्राथमिकता के आधार पर सामुदायिक वन संसाधन अधिकार के तहत वन संसाधनों के उपयोग, प्रबंधन और संरक्षण के अधिकारों को मान्यता देना चाहिए।

हमारे स्कूल, आंगनवाड़ी और अन्य सरकारी/गैर सरकारी संस्थाओं में कैंटीनों में स्थानीय उत्पादों पर जोर देने की आवश्यकता है। पारंपरिक खानपान के विभिन्न पहलुओं को देखने की आवश्यकता है, जैसे पोषण, स्थानीय पहचान और गर्व, और यह कदम कैसे स्थानीय अर्थव्यवस्था को सहायता प्रदान कर सकता है। छोटे प्रयासों का परिणाम बड़े स्तर पर भी दिखाई देता है, जैसे देसी बीजों के संग्रहण को बढ़ावा देना और जलवायु परिवर्तन के प्रति लचीलापन।

अध्ययनों से पता चलता है कि भोजन खेत से थाली तक औसतन 1,000 से 1,500 किलोमीटर का सफर करता है। फूड ट्रैवल को कम करने से कार्बन फुटप्रिंट कम होता है और साथ ही स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूत किया जा सकता है। प्रकृति के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध की ओर रुझान बढ़ाने और नई पीढ़ी के साथ पारंपरिक ज्ञान का साझा करने का यह सुनहरा अवसर है। यह हमारी परंपरा को जीवित रखता है और यह कदम बाजार पर निर्भरता कम करने के साथ-साथ स्थानीय अर्थव्यवस्था को भी मजबूत करेगा।

हमें अपने पारंपरिक खानपान के प्रति दृष्टिकोण विकसित करने की आवश्यकता है, इसे सम्मान और गर्व की भावना के साथ "अपना पारंपरिक खानपान दिवस" के रूप में मनाने की जरूरत है और "अपना खानपान, अपना सम्मान" के नारे को साकार करने की आवश्यकता भी है।

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