डाउन टू अर्थ स्पेशल: बीज क्रांति की मिसाल बनी ये महिलाएं

समुदायों और गैर-लाभकारी संस्थाओं द्वारा संचालित बीज बैंक सैकड़ों स्वदेशी जलवायु-प्रतिरोधी फसल किस्मों के भंडार हैं। इन्हें भंडारण, तकनीकी सहायता और नीतिगत समर्थन की जरूरत है
सामुदायिक बीज बैंक
मध्य प्रदेश के डिंडोरी जिले के सिलपिडी गांव में सामुदायिक बीज बैंक से बीज लेने वाले किसान फसल के बाद दोगुनी मात्रा में बीज लौटाते हैंफोटो: विकास चौधरी / सीएसई
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Summary
  • तेलंगाना के मचनूर गांव की महिलाएं बीज क्रांति की मिसाल बन गई हैं।

  • पहले वे जमींदारों से खराब गुणवत्ता वाले बीज उधार लेती थीं,

  • लेकिन अब उन्होंने संगम सीड बैंक की स्थापना की है।

  • यह बैंक 80 प्रकार की पारंपरिक फसलें संजोए हुए है, जो सूखे और विपरीत परिस्थितियों में भी उगती हैं।

  • इस पहल से 75 गांवों की महिलाएं जुड़ी हैं।

एक वक्त था जब तेलंगाना के मचनूर गांव की महिला किसान अच्छे गुणवत्ता वाले बीजों की कमी से जूझती थीं। उन्हें जमींदारों से बीज उधार लेने पड़ते थे, जो या तो समय पर नहीं मिलते थे या फिर खराब गुणवत्ता के होते थे। लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है।

इस चक्र को तोड़ने के लिए उन्होंने अपने ही बीजों को बचाकर और आपस में बांटकर इसका समाधान निकाला। इसके परिणामस्वरूप 1995 में संगम सीड बैंक की स्थापना हुई। यह काम तेलंगाना स्थित गैर-लाभकारी संस्था डेक्कन डेवलपमेंट सोसायटी की मदद से शुरू हुआ। अब करीब 75 गांवों की महिलाएं इस पहल से जुड़ी हुई हैं।

यह बीज बैंक 80 प्रकार की पारंपरिक खाद्य फसलें संजोए हुए है। इनमें मुख्यत मोटे अनाज, दालें और तिलहन हैं जो सूखे और विपरीत परिस्थितियों में भी अच्छी तरह उगते हैं। इसमें कम पानी में उगने वाले सूखा-रोधी चावल और गेहूं की किस्में भी शामिल हैं, जो उच्च तापमान में भी जीवित रह सकती हैं।

जिन किसानों को बीज दिए जाते हैं, वे कटाई के बाद दोगुनी मात्रा में बीज लौटाते हैं। कुछ लोग दूर-दराज से आकर उचित मूल्य पर ये बीज खरीदते हैं। संगम सीड बैंक की कार्यक्रम समन्वयक आर संतोषी श्रीलाया कहती हैं, “बीजों को पारंपरिक तरीकों से ताड़ के पत्तों की टोकरियों में, नीम की पत्तियों, राख और मिट्टी के साथ संग्रहित किया जाता है ताकि नमी और कीड़ों से बचाया जा सके। इससे बीज दो से तीन साल तक सुरक्षित रहते हैं।”

संगम सीड बैंक देशभर में मौजूद ऐसे कई संगठनों में से एक है, जो पारंपरिक बीजों और ज्ञान को संरक्षित कर रहे हैं। लेकिन इस बात का कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है कि ऐसे अनौपचारिक बीज बैंक कितने हैं और किस प्रकार के बीजों को संरक्षित करते हैं।

जलवायु परिवर्तन के दौर में इस अमूल्य संसाधन का आकलन करने के लिए दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने फरवरी-मार्च 2025 में एक ऑनलाइन सर्वेक्षण किया और करीब 60 सामुदायिक बीज बैंकों, गैर-लाभकारी संस्थाओं और व्यक्तिगत किसानों से संपर्क किया।

इसमें 22 सामुदायिक बीज बैंक, 20 एनजीओ और दो व्यक्तिगत किसान शामिल थे, जिनके पास कुल 71 फसलों की 887 जलवायु-रोधी किस्में थीं (देखें, पारंपरिक खजाना)।

नीमच (मध्य प्रदेश) में रूट्स टू रूट्स नामक एक पर्माकल्चर फार्म चलाने वाले संगम अग्रवाल ऐसे ही एक व्यक्ति हैं जो बीज संरक्षण में लगे हुए हैं। वह बताते हैं, “जब मैंने बीच बचाने के लाभों जो जाना तो 2020 में बीज बचाने की शुरुआत की। इन बीजों में कम लागत, जलवायु-रोधी फसलें और स्वादिष्ट उत्पाद जैसे लाभ शामिल थे।”

उनके फार्म में टमाटर, बैंगन, बाजरा, गेहूं, पपीता, अमरूद और यहां तक कि दुर्लभ बारहमासी तूर (अर्जुन तूर) के बीज भी संरक्षित किए जाते हैं। उनके द्वारा संरक्षित तूर पेड़ की तरह बढ़ती है और 15 किलो प्रति पौधे तक उपज देती है। बीजों को कांच की बोतलों में थोड़ी राख के साथ रखा जाता है ताकि नमी दूर रहे। वह बताते हैं, “हम बीज उन लोगों को देना चाहते हैं जो भोजन उगाते हैं, न कि कंपनियों को।”

बीज साझा करने की प्रक्रिया स्थानीय परिस्थितियों पर निर्भर करती है। सबसे सामान्य तरीका है बीज-ऋण प्रणाली, जिसमें किसान मौसम की शुरुआत में बीज उधार लेते हैं और कटाई के बाद दोगुनी मात्रा में लौटाते हैं। आदिवासी इलाकों में कुछ बैंक बीज मुफ्त में भी देते हैं। ये वितरण प्रणालियां सुनिश्चित करती हैं कि स्वदेशी बीज सक्रिय खेती में बने रहें और उनकी जीवित रहने की क्षमता बनी रहे।

लेकिन इसमें कई चुनौतियां भी हैं। पश्चिम बंगाल स्थित स्विचऑन फाउंडेशन से जुड़े सयान साउ के अनुसार, वित्तीय रूप से आत्मनिर्भर बने रहना सबसे बड़ी चुनौती है, क्योंकि अधिकतर बीज बैंक स्वतंत्र रूप से काम करते हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए कई बीज बैंकों ने अनुसंधान संस्थानों और एनजीओ के साथ साझेदारी की है।

एक और समस्या यह है कि पारंपरिक बीज भंडारण तरीके हमेशा प्रभावी नहीं होते और नमी, कीट या फफूंद से नुकसान हो सकता है। कृषि विभाग बीजों के सुरक्षित भंडारण के लिए लकड़ी या मिट्टी के कंटेनर और अन्य बुनियादी ढांचे प्रदान कर सकते हैं।

तकनीकी विशेषज्ञता की भी भारी कमी है। बीज परीक्षण, अंकुरण क्षमता का मूल्यांकन और आनुवंशिक शुद्धता बनाए रखने की नियमित ट्रेनिंग के बिना कुछ किसानों को खराब या कम अंकुरण वाले बीज मिलते हैं, जिससे सामुदायिक बीज बैंकों में उनका विश्वास कम हो जाता है।

सरकारी नीतियों का अभाव एक और बड़ी समस्या है। वर्ष 2001 में पौध किस्म और कृषक अधिकार संरक्षण अधिनियम को अपनाया गया, जिसने पौध प्रजनकों और किसानों दोनों के अधिकारों को मान्यता दी।

इस अधिनियम ने किसानों को पंजीकृत किस्मों के बीजों को सहेजने, अदल-बदल करने और बेचने की अनुमति दी, बशर्ते वे उन्हें ब्रांडेड नाम से न बेचें। इस अधिनियम के तहत यदि किसी समुदाय द्वारा संरक्षित पारंपरिक बीजों का वाणिज्यिक उपयोग होता है, तो वे उससे लाभ का दावा कर सकते हैं।

हालांकि, इसके क्रियान्वयन में गंभीर समस्याएं हैं क्योंकि किसान समुदाय पारंपरिक बीज किस्मों को पंजीकृत कराने के जटिल प्रक्रियाओं और समर्थन के अभाव में संघर्ष कर रहे हैं।

चेन्नई स्थित एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन की रंगालक्ष्मी राज और प्रजीश परमेश्वरन कहते हैं, “फिलहाल सामुदायिक बीज बैंकों के प्रबंधन के लिए कोई विशिष्ट नीतिगत ढांचा नहीं है। भारत में पौध किस्म और कृषक अधिकार अधिनियम, 2001 और बीज अधिनियम, 1966 जैसे कानून तो हैं, लेकिन ये सामुदायिक बीज बैंकों के संचालन के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं देते। 2019 का प्रस्तावित बीज विधेयक अभी विचाराधीन है और किसान-प्रबंधित बीज प्रणालियों को मान्यता देने वाली नीतियां विकसित करने के प्रयास जारी हैं।”

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