आवरण कथा: देसी किस्मों और जंगली प्रजातियों से ही बची है उम्मीद

अगर भारत को कुपोषण, सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी और रोगों से बचना है तो पैदावार के साथ-साथ पोषण को भी प्राथमिकता देनी होगी
फोटो: विकास चौधरी
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कारण चाहे जो हो, भारत में अनाजों में पोषण बढ़ाने के लिए बड़े प्रयास किए जा रहे हैं। इस बार कृषि वैज्ञानिकों ने जवाब ढूंढने के लिए देसी किस्मों और जंगली प्रजातियों की ओर रुख किया है। पिछले 10 वर्षों में केंद्र सरकार द्वारा शुरू किए गए जैव संवर्धन पर एक विशेष प्रोजेक्ट के तहत आईसीएआर और कृषि विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों ने पूरे देश में जर्मप्लाज्म की खोज की है, ताकि पोषण तत्वों से भरपूर किस्में ढूंढी जा सकें।

ओडिशा के कटक में आईसीएआर के राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान में फसल सुधार प्रभाग की प्रमुख संगमित्रा समंतारे कहती हैं कि हम ऐसे किस्मों की पहचान करने की कोशिश कर रहे हैं जो कम से कम एक पोषक तत्व जैसे जिंक या आयरन से भरपूर हों। चूंकि मजबूत किस्मों को ढूंढना आसान नहीं है, इसलिए हम किसानों द्वारा संरक्षित देसी किस्मों और जंगली प्रजातियों का भी पोषण प्रोफाइल बना रहे हैं जो प्राकृतिक रूप से बढ़ रही हैं।

हैदराबाद के भारतीय चावल अनुसंधान संस्थान (आईआईआरआर) की प्रधान वैज्ञानिक जी पद्मावती बताती हैं कि कैसे उनका संस्थान पोषक तत्व बढ़ाने के लिए कम पैदावार वाली किस्मों का इस्तेमाल करेगा। ज्यादा पोषण वाली किस्में अक्सर कम पैदावार देती हैं। वे धूप को सहन नहीं पाती हैं और झुक जाती हैं।

उनमें कई दूसरी कमियां होती हैं। इसलिए इन्हें पहले से मौजूद या नई विकसित होने वाली ज्यादा पैदावार देने वाली किस्मों के साथ मिलाया जाता है, ताकि पैदावार कम न हो। 2016 से भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के अधीन तीन राष्ट्रीय पौध प्रजनन संस्था, कटक स्थित राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (एनआरआरआई), हैदराबाद स्थित आईआईआरआर और रायपुर स्थित इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय मिलकर चावल की 10 नई किस्में विकसित कर चुके हैं जो जिंक और प्रोटीन से भरपूर हैं।

आईसीएआर के अन्य संस्थानों ने भी 43 गेहूं की किस्में बनाई हैं जिनमें प्रोटीन, आयरन और जिंक ज्यादा होता है। समंतारे कहती हैं कि भारत में कई कुपोषित बच्चे हैं जिन्हें जरूरी प्रोटीन नहीं मिल पाता। लेकिन वे चावल और गेहूं खाने के आदी हैं। इसलिए ये किस्में उन्हें जरूरी पोषण दे सकती हैं।

अब तक आईसीएआर के संस्थानों ने 142 पोषक तत्व बढ़ाई हुई किस्में विकसित की हैं। इनमें 124 खेतों में उगाई जाने वाली फसलें (10 चावल, 43 गेहूं, 20 मक्का, 11 बाजरा, 13 छोटे बाजरा, एक अलसी, दो मसूर, दो चना, एक मूंग, एक मटर, एक उड़द, आठ सरसों, सात सोयाबीन, एक तिल, तीन मूंगफली) और 18 बागवानी फसलें (पांच शकरकंद, तीन चौलाई, दो रतालू, दो आलू और एक-एक फूलगोभी, भिंडी, अंगूर, केला, अमरूद और अनार) शामिल हैं। भले ही नई किस्मों में ज्यादा पोषण हो, लेकिन उन्हें लोकप्रिय करना और बड़े पैमाने पर किसानों तक पहुंचाना आसान नहीं है। देबनाथ कहते हैं कि किसानों को नई फसल अपनाने के लिए मनाना मुश्किल है। उसके बाद बीज मिलने की भी समस्या होती है।

8 दिसंबर 2023 को लोकसभा में केंद्र सरकार की तरफ से दिए गए एक जवाब के मुताबिक, पिछले 6 साल में देश के खेती वाले कुल क्षेत्रफल के करीब 6 प्रतिशत (लगभग 1 करोड़ हेक्टेयर) पर नई किस्मों की खेती शुरू हो पाई है। इसमें गेहूं, चावल, बाजरा, सरसों और मसूर शामिल हैं। यानी भारत की कुल खेती की जमीन का एक छोटा सा हिस्सा ही अभी इन ज्यादा पोषक वाली फसलों के लिए इस्तेमाल हो रहा है।

बयान में सरकार ने बताया है कि पिछले 6 सालों में कितनी जमीन पर अधिक पोषक तत्वों वाली फसलें जैसे गेहूं और चावल उगाई जा रही हैं, लेकिन ये अलग-अलग आंकड़े नहीं दिए। हालांकि, वर्ष 2022 में प्रकाशित आईसीएआर के एक दस्तावेज के मुताबिक, गेहूं के सिर्फ 10,43,014 किलोग्राम ज्यादा पोषण वाले बीज और चावल के सिर्फ 25,565 किलोग्राम बीज ही पैदा किए जा सके हैं। इसे आसानी से समझने के लिए, सोचिए कि 2023 के खरीफ सीजन में, 4.1 करोड़ हेक्टेयर जमीन पर चावल की बुवाई हुई थी।



आम तौर पर रोपाई के तरीके से बुवाई में एक हेक्टेयर के लिए करीब 40 किलो बीज चाहिए। यानी बने हुए 25,565 किलोग्राम बीज से सिर्फ 639 हेक्टेयर जमीन पर ही बुवाई हो सकती है। इसी तरह, मौजूदा रबी सीजन में अब तक 3 करोड़ हेक्टेयर से ज्यादा जमीन पर गेहूं की बुवाई हुई है। एक हेक्टेयर में गेहूं की बुवाई के लिए करीब 100 किलोग्राम बीज की जरूरत होती है यानी बने हुए 10,43,014 किलोग्राम बीज से सिर्फ 10,430 हेक्टेयर जमीन पर ही बुवाई हो सकती है।

अभी तक पोषण बढ़ाने के प्रयास सिर्फ जिंक, आयरन और प्रोटीन पर ही केंद्रित हैं। डाउन टू अर्थ से बात करते हुए वैज्ञानिकों ने बताया कि मैंगनीज, कॉपर और कैल्शियम जैसे दूसरे जरूरी पोषक तत्वों को बढ़ाने में समय लगेगा। नई किस्मों को बनाने और उन्हें खेतों में पहुंचाने का काम करीब 8 साल का लंबा और मुश्किल सफर होता है। कुछ वैज्ञानिक इस प्रक्रिया को तेज करने के लिए खेतों में पोषक तत्व बढ़ाने के दूसरे तरीकों पर भी प्रयोग कर रहे हैं। इसमें एक तरीका ये है कि सूक्ष्म पोषक तत्वों को खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाए या सीधे पत्तियों पर स्प्रे किया जाए। हालांकि, ये तरीका काफी महंगा है। देबनाथ चेतावनी देते हैं कि स्प्रे के बाद ज्यादा बारिश हुई तो सारे प्रयास बेकार हो सकते हैं।

पुणे स्थित आगरकर रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक और पौध प्रजनक अभिनंदन पाटिल का कहना है कि फसलों की नई किस्में बनाने वालों को अपना तरीका बदलना होगा। वह कहते हैं कि एक ऐसा सुव्यवस्थित तरीका बनाना चाहिए जहां कई अलग-अलग पौधों से जीन और गुण मिलाकर एक ही किस्म में अलग-अलग पैकेज में जोड़ा जाए। इतनी सारी अलग-अलग किस्मों की जरूरत नहीं है। इससे किसान और उपभोक्ता दोनों ही भ्रमित होते हैं। फसलों की पैदावार बढ़ाने की चिंता किसानों और पौध प्रजनकों दोनों के लिए लगातार बनी रहती है। खराब मौसम, रूस-यूक्रेन युद्ध जैसे वैश्विक संघर्षों की वजह से खाद्य संकट का खतरा बना हुआ है।

सरकार और उसके विभिन्न शोध और विस्तार संस्थानों के लिए यह एक बड़ी चुनौती है। अगर भारत को कुपोषण, सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी और अन्य गैर-संक्रमणीय रोगों से बचना है तो फसलों की पैदावार के साथ-साथ, उसी महत्वपूर्ण स्तर पर या उससे भी ज्यादा जरूरी है कि पोषण को प्राथमिकता दी जाए। इसके अलावा इन नई किस्मों को किसानों तक सफलतापूर्वक पहुंचाने का अभियान चलाया जाए।

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