देश की राजधानी से लगभग 1,200 किलोमीटर दूर झारखंड के एक गांव में रह रही अनार देवी के एक-एक शब्द पर गौर कीजिए, “मेरे पांच बेटे हैं। सब एक-एक करके बाहर शहरों में चले गए। गांव में रह कर करते भी क्या? भूखे मर जाते! इसलिए उनके जाने का दुख नहीं होता। वे अपने बच्चों को शहरों में किसी तरह पाल रहे हैं और हम यहां बूढ़ा-बुढ़िया अपने बचे हुए दिन काट रहे हैं।” अनार देवी अन्य पिछड़ा वर्ग से हैं। वह झारखंड के पलामू जिले के रामगढ़ ब्लॉक के गांव सरहुआ की रहने वाली हैं। उनके पति सीता राम भुइयां के नाम पर लगभग 80 डेसिमिल (0.8 एकड़) खेती की जमीन है, जिसमें मकई, धान, सब्जी करते हैं। इस बार सूखे की वजह से एक दाना भी नहीं हुआ। जंगलों से जड़ी-बूटी लाते हैं। छांटते और सुखा कर बेचते हैं, तब जाकर किसी तरह दोनों पति-पत्नी अपना पेट भर रहे हैं। ज्यादातर दिन एक बार ही खाना खाते हैं, ताकि अगले दिन भूखा न सोना पड़े।
अनार देवी का परिवार लगभग तब से ही भूख से जूझ रहा है, जबसे देश में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) लागू हुआ था। इस अधिनियम के तहत दो श्रेणियों - प्राथमिकता वाले परिवार (पीएचएच) और अंत्योदय अन्न योजना (एएवाई) के तहत रियायती सब्सिडी युक्त राशन दिया जाता है। एएवाई श्रेणी में शामिल परिवारों को हर महीने 35 किलोग्राम खाद्यान्न (3 रुपए प्रति किलो चावल, 2 रुपए प्रति किलो गेहूं और 1 रुपए किलो मोटे अनाज) दिया जाता है, भले ही परिवार में सदस्यों की संख्या कितनी भी हो। जबकि, पीएचएच परिवार समान रियायती कीमतों पर हर महीने 5 किलोग्राम प्रति सदस्य खाद्यान्न पाने का हकदार है।
10 सितंबर 2013 को इस अधिनियम की अधिसूचना जारी हुई, लेकिन उसके लगभग दो साल बाद अनार देवी को राशन मिलना बंद हो गया। उनके गांव में कोई नहीं जानता कि अंग्रेजी शब्द “डिलीट” का मतलब क्या होता है, लेकिन अनार देवी इस शब्द का इस्तेमाल करती हैं, जो उनके लिए किसी मौत की सजा से कम नहीं है। दरअसल, दिसंबर 2015 में उनका कार्ड रद्द करते हुए उन्हें राशन लाभार्थियों की सूची से बाहर कर दिया गया था।
दरअसल 2013 में जब एनएफएसए लागू हुआ था, उस समय निर्धारित किया गया था कि देश की 75 प्रतिशत ग्रामीण आबादी और 50 प्रतिशत शहरी आबादी को रियायती राशन दिया जाएगा। 2011 की जनगणना के आधार पर लाभार्थियों की पहचान की जानी थी, जो लगभग 81.5 करोड़ बनती है। राज्यवार अलग-अलग कोटा निर्धारित किया गया, झारखंड में ग्रामीण क्षेत्रों की 86.48 प्रतिशत और शहरों की 60.20 प्रतिशत आबादी को कवर किया जाना सुनिश्चित हुआ। ऐसे में, नए राशन कार्ड बनाने के लिए पुराने कार्ड की छंटनी की जाने लगी और इस छंटनी का शिकार अनार देवी भी हो गई।
पिछले कुछ दिनों से देश की सर्वोच्च अदालत में यह मामला चल रहा है। कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान व उसके बाद प्रवासियों को राशन मिलने में आ रही दिक्कतों को लेकर चल रहे एक मामले में एनएफएसए में नए लाभार्थियों को शामिल न किए जाने वाली एक अन्य याचिका को भी जोड़ दिया गया।
इस याचिका में कहा गया था कि केंद्र व राज्य सरकारें 2011 की आबादी के आधार पर तय की गई सीलिंग (कोटा) की वजह से नए लाभार्थियों को राशन सूची में शामिल नहीं कर रही है, जबकि 2021 की जनगणना नहीं हो रही है, ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय से अपील की गई थी कि सरकार को अनुमानित आबादी के हिसाब से संख्या तय करके नए लाभार्थियों को जोड़ने के आदेश दिए जाएं।
इस मामले में सुनवाई करते हुए 6 दिसंबर 2022 को सर्वोच्च न्यायालय ने कहा, “हमारी संस्कृति में यह सुनिश्चित किया गया है कि कोई भी खाली पेट न सोए।” अदालत ने कहा कि केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए) के तहत अंतिम व्यक्ति तक अनाज पहुंच पाए।
यह संयोग ही है कि ठीक इसी दिन डाउन टू अर्थ की मुलाकात अनार देवी से हुई। अपना राशन कार्ड दिखाते हुए अनार देवी ने कहा कि यह राशन कार्ड भर गया था, लेकिन उसके बाद न तो नया राशन कार्ड मिला और ना ही राशन, बस यही जवाब मिलता है कि उनका राशन कार्ड “डिलीट” हो गया है।
रुआंसे स्वर में वह कहती हैं, “लॉकडाउन के दौरान गांव के लगभग सभी बच्चे अपने घर लौट आए थे, लेकिन उनके बच्चे घर नहीं आए, क्योंकि उन्हें डर था कि गांव में कहीं भूखे न मर जाएं!” डाउन टू अर्थ ने जब उनका राशन कार्ड देखा तो पाया कि कार्ड में आखिरी पन्ने पर दिसंबर 2015 के बाद कोई एंट्री नहीं थी।
जंगल से लाई गई “जहर महुरा” नाम की जड़ी बूटी को कूटते-कूटते सीताराम भुइंया बताते हैं कि दूसरे परिवारों की तरह उन्हें भी सरकार से राशन मिल जाता तो न केवल दोनों समय खाना मिलता, बल्कि जवान बेटों को अपने साथ गांव में ही रख लेते। गांव वालों की सलाह पर उन्होंने राज्य सरकार द्वारा शुरू की गई खाद्य सुरक्षा योजना के तहत मिलने वाले हरे कार्ड के लिए भी आवेदन किया। उन्होंने आवेदन का कागज भी दिया।
हमने झारखंड सरकार के खाद्य, सार्वजनिक वितरण और उपभोक्ता मामलों के विभाग की वेबसाइट पर आवेदन संख्या की जांच की तो पता चला कि उनका आवेदन स्वीकृत हो चुका है, परंतु उन्हें राशन नहीं मिल रहा है। लगभग 300 की आबादी वाले गांव सरहुआ में ऐसे आठ परिवार हैं, जिनके राशन कार्ड रद्द हो चुके हैं, जबकि शायद ही कोई ऐसा परिवार हो, जिसको पूरा राशन मिलता हो। लगभग 70 वर्षीय फगुनी देवी बताती हैं कि उनके आगे-पीछे कोई नहीं है। वह अकेली रहती हैं। जनवरी से लेकर अब तक उन्हें केवल दो बार राशन मिला है। वह कोरबा आदिम जनजाति से हैं, इसलिए सरकार उन्हें पेंशन भी देती है, परंतु पिछले 18 महीने से पेंशन भी नहीं मिली। विकलांग होने के कारण वह खेती भी नहीं कर पातीं, ऐसे में गांव के लोगों की मदद से अपना पेट भर रही हैं। कई बार तो भूखे पेट ही सोना पड़ता है।
गांव में रहने वाले लुकस कोरबा झारखंड मजदूर किसान मोर्चा से जुड़े हैं। वह बताते हैं कि पूरे रामगढ़ प्रखंड में आदिम जनजाति के पीले कार्ड बड़ी संख्या में रद्द किए गए हैं। लगभग 380 राशन कार्ड रद्द होने की सूचना उनके पास है। बिना कारण बताए राशन कार्ड रद्द कर दिए जाते हैं, जिसकी सूचना तक लोगों को नहीं दी जाती, जब महीने में राशन नहीं मिलता, तब लोग अधिकारियों के चक्कर काटते हैं। तब जवाब मिलता है कि कोटा खत्म हो गया है।
लुकस के मुताबिक, जब बड़ी संख्या में लोगों ने शोर मचाया तो झारखंड सरकार ने अपने राशन कार्ड जारी शुरू किए, लेकिन आवेदन की पूरी प्रक्रिया में लोगों का 250 से 300 रुपया खर्च हो जाता है। कई परिवार ऐसे हैं कि जिनके पास इतने पैसे भी नहीं हैं कि वे आवेदन कर सकें। विशेष पिछड़ी जनजाति समूह (पीवीटीजी) के संरक्षण के लिए लिए झारखंड सरकार कई योजनाएं चलती है। उनमें से एक है, पीवीटीजी डाकिया स्कीम, जिसे 2017-18 में शुरू किया गया। इस योजना के तहत इन जनजाति के परिवारों को राशन डिपो की बजाय घर जाकर पैकेटबंद राशन देने की व्यवस्था है। इसमें राज्य के 24 जिलों में 168 प्रखंडों में 68,731 लाभार्थियों परिवारों को अंत्योदय अन्न योजना के तहत 35 किलो राशन दिया जाता है।
पलामू के ही मनातू प्रखंड में परहीया जनजाति के लोग रह रहे हैं। इन्हें भी अंग्रेजी भाषा की समझ नहीं है, परंतु उनमें भी “डिलीट” शब्द का खौफ है। धूमखाड़ टोला में परहीया जनजाति के आठ परिवार रह रहे हैं। डाउन टू अर्थ जब वहां पहुंचा तो वहां केवल महिलाएं और बच्चे थे। मिट्टी और लकड़ी से बने घर के बाहर खड़ी रंभा देवी बताती हैं कि उनके दो बच्चे हैं। पति अमरेश परहीया राजस्थान में कमाने गए हैं। जो पैसा भेजते हैं, उससे ही घर चलता है। जब उनसे पूछा गया कि क्या उनके पास राशन कार्ड है, जवाब ‘हां’ में मिला, लेकिन जब उनसे राशन कार्ड दिखाने को कहा गया तो उनका जवाब था कि “डिलीट” हो गया है, ठीक कराने के लिए ले गए हैं। वह “डिलीट” का मलतब नहीं जानती हैं, लेकिन उन्हें इस माह का राशन नहीं मिला है।
राशन में केवल चावल मिलता था। पहले नमक भी मिलता था, कई महीनों से नमक मिलना बंद हो गया। वहीं, खुले में खा रही एक बच्ची की थाली में उबले चावल देखकर स्वाद जानने के लिए डाउन टू अर्थ संवाददाता ने भी बच्ची से थोड़े से चावल मांगे। पहले तो बच्ची ने इनकार कर दिया, लेकिन बाद में उसने ‘हां’ में सिर हिला दिया, लेकिन जैसे ही संवाददाता ने चावल के दाने मुंह में डाले तो बेस्वाद चावलों ने मन को दुखी कर दिया। उबले चावलों में मामूली सा नमक था। थाली में दाल या सब्जी नहीं थी। तभी रंभा देवी बोल पड़ी, “हम लोग रोजाना यही खाते हैं। केवल चावल, कभी-कभार सब्जी या दाल नसीब हो जाए, तो बड़ी बात है!”
इस टोले में दो परिवारों के राशन कार्ड रद्द किए गए हैं, जबकि नए राशन कार्ड नहीं बन रहे हैं। 60 वर्षीय मानती देवी कहती हैं कि उनके बेटे के नाम का कार्ड नहीं बना, जबकि उनके बेटे की शादी हो चुकी है। बेटा तो कमाने शहर चला गया, लेकिन उसके बच्चे हमें मिल रहे राशन पर पल रहे हैं। इस टोले के आसपास खाली जमीन पर कुछ खेती हो रही है। मानती बताती हैं कि इस बार तो मक्का भी नहीं हुआ। अब चना लगाया है, पता नहीं कितना होगा?
क्षेत्र के समाजसेवी एक स्वयंसेवी संगठन की ओर से आदिम जनजाति पर सर्वे कर चुके नरेश कुमार बताते हैं कि धूमखाड़ टोला से दो परिवारों को राशन कार्ड रद्द हो गया था। पुराने राशन कार्ड की ऑनलाइन प्रति निकाल कर अधिकारियों से कह कर इन लोगों का राशन दिलवाया जा रहा है, लेकिन पूरे मनातू प्रखंड में राशन कार्ड रद्द होने की शिकायतें आ रही हैं। ये लोग अधिकारियों से बात करते हैं तो कह दिया जाता है कि रद्द होने का कारण उन्हें नहीं पता। नरेश बताते हैं कि कई परिवारों को राशन मिलना बंद हो गया है। ये परिवार भूमिहीन हैं। कमाई को कोई भी जरिया नहीं है। इसलिए आदिम जनजातियों के ज्यादातर टोलों में केवल बुजुर्ग, महिलाएं व बच्चे ही देखने को मिलते हैं। ज्यादातर जवान लोग पलायन कर चुके हैं। ये लोग महीने-दो महीने में कुछ पैसे ट्रांसफर करते हैं, तब जाकर यहां रह रहे उनके परिवारों का गुजारा चलता है।
भोजन का अधिकार अभियान से जुड़े कार्यकर्ता सिराज दत्ता कहते हैं कि चार साल पहले झारखड में व्यापक तौर पर राशन लाभार्थियों के नाम काटे गए थे। उनमें ज्यादातर लोग बेहद गरीब थे और उन्हें राशन की जरूरत थी। लोगों के बढ़ते गुस्से को देखते हुए राज्य सरकार ने अपने स्तर पर हरे कार्ड बनाने शुरू किए, लेकिन कई इलाकों में इन कार्ड धारकों को भी राशन नहीं मिल रहा है।
झारखंड के ही चतरा जिले के प्रतापपुर ब्लॉक के सतबहिनी गांव के बब्बू यादव के पांच बेटे हैं। बब्बू यादव के राशन कार्ड में पांचों बेटों का नाम है। लेकिन उनके दो बेटों के परिवार का राशन कार्ड है, लेकिन तीन बेटों के परिवार का राशन कार्ड नहीं है। उनके बेटे सुधीर कुमार यादव की पत्नी और तीन बच्चों, संतोष कुमार की पत्नी और दो बच्चों और मिथिलेश कुमार की पत्नी के नाम से अलग राशन कार्ड नहीं बना है। सुधीर ने डाउन टू अर्थ को बताया कि जब हम लोग आवेदन करते हैं तो बताया जाता है कि कोटा फुल होने के कारण कार्ड नहीं बन रहे हैं। इन तीनों भाइयों का हरा कार्ड भी नहीं बन रहा है।
इसी गांव के उमेश कुमार कहते हैं कि उनकी पत्नी व बच्चों के नाम से भी राशन कार्ड नहीं बन पाया। गांव में आमदनी का जरिया नहीं है तो उमेश हरियाणा के सिरसा में सब्जी की रेहड़ी लगाते हैं। वह बताते हैं कि पिता के नाम से बने राशन कार्ड में इतना राशन नहीं मिलता कि पूरा परिवार खा पाए। इसलिए वह सिरसा में जो कमा कर भेजते हैं, उससे ही परिवार का पेट भरता है।
भूखे पेट की ये कहानियां केवल झारखंड की ही नहीं हैं, बल्कि कई राज्यों से ऐसी खबरें आती रही हैं। इसकी वजह एनएफएसए के तहत निर्धारित सीलिंग है। दरअसल, एनएफएसए के तहत राज्यों के लिए िनर्धारित कोटा या तो पूरा हो चुका है या पूरा होने वाला है। सर्वोच्च न्यायालय को दी गई जानकारी के मुताबिक 14 राज्यों का कोटा पूरा हो चुका है और शेष राज्य कोटे के करीब पहुंच गए हैं। जिन राज्यों में कोटा पूरा हो चुका है, वहां राशन कार्ड नहीं बन रहे हैं। ऐसे में यदि प्रशासनिक अधिकारियों पर जनप्रतिनिधियों का दबाव आता है तो पुराने कार्ड रद्द करके नए आवेदकों को समायोजित किया जा रहा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, देश भर के कोटे से केवल दो प्रतिशत मार्जिन बचा है। 36 में से 14 राज्य सरकारों का कोटा समाप्त हो चुका है। बाकी के पास केवल 1-2 प्रतिशत की गुंजाइश बची है। बाकी राज्यों में से, ओडिशा, झारखंड, असम, राजस्थान, तेलंगाना, त्रिपुरा और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों ने लगभग 98-99 प्रतिशत पात्र आबादी को कवर किया है। (देखें: कोटे के पेंच में फंसे लाभार्थी,)।
कोटे के इस खेल की वजह से करोड़ों परिवारों को भरपेट खाना नहीं मिल रहा है। राजस्थान के बाड़मेर शहर के एक छोटे से इलाके में, 70 वर्षीय नोजीदेवी के पास केवल दो गाय और चार बछड़े हैं। हर दिन वह करीब 15 किलोमीटर पैदल चलकर आस-पास के इलाकों में दूध पहुंचाती हैं। कुछ साल पहले अपने पति के निधन के बाद एक अलग घर में रह रही नोजीदेवी परिवार में एकमात्र कमाने वाली सदस्य हैं। वह अपने दामाद और बेटी के साथ रहती हैं जो पूरी तरह से उन्हीं पर निर्भर हैं। उनकी बेटी मानसिक रूप से विकलांग है और दामाद को कैंसर है। वह न तो कमा सकती हैं और न ही अपनी देखभाल कर सकती हैं।
उसकी दुर्दशा यहां समाप्त नहीं होती। बरसों से नंगे पांव चलने और दूध ढोने की वजह से उसके पैर विकृत हो गए हैं। गायें भी बूढ़ी हो चली हैं और मुश्किल से ही दूध देती हैं। वह इन गाय से महीने में 20 हजार रुपए कमाती हैं, लेकिन 15 हजार रुपये गायों को खिलाने और उनकी देखभाल पर खर्च कर देती हैं। ऐसे में, जीवित रहने के लिए उसके पास सार्वजनिक वितरण योजना (पीडीएस) के तहत मिलने वाला 40 किलो गेहूं है, जो उसे अंत्योदय अन्न योजना के तहत मिलता है, लेकिन यह गेहूं 15 दिन से कम समय तक चलता है। वह कहती हैं, “एक आदमी के पास जितना होना चाहिए, हमारा पूरा परिवार उससे काम चलाता है।” इसकी एक वजह यह है कि उनके दामाद जोधाराम (45) और उनकी 40 वर्षीय बेटी मांगीदेवी का नाम पर बीपीएल राशन कार्ड नहीं बना है।
जोधाराम कहते हैं, “हमने स्थानीय अधिकारियों को सूचित करने के लिए बार-बार प्रयास किया है कि हम पीले राशन कार्ड के लिए पात्र हैं, जबकि हमारे पास नीला राशन कार्ड है जो गरीबी रेखा से ऊपर वालों को दिया जाता है। बीमारी की जांच रिपोर्ट और डॉक्टरों की पर्ची भी दिखाई, लेकिन सब व्यर्थ रहा।” 2001 में जब उनकी पत्नी मानसिक रूप से बीमार हो गईं तो परिवार की स्थिति बिगड़ने लगी। उन्होंने अपनी पत्नी की देखभाल के लिए दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करना छोड़ दिया। हालात तब और बिगड़ गए, जब 2019 में जोधाराम को कार्सिनोमा मैक्सिला कैंसर का पता चला। हाल के महीनों में जोधाराम ने अपने और अपनी पत्नी के लिए पेंशन योजना में नाम लिखवा दिया, जिससे उन्हें 3,000 रुपए आ रहे हैं। लेकिन यह पैसा पर्याप्त नहीं है। वह कहते हैं कि हमें सरकारी राशन की आवश्यकता है क्योंकि हम सारा पैसा अतिरिक्त राशन और किराने का सामान खरीदने में खर्च करते हैं। बीमारी, कपड़े खरीदने या पुराने क्षतिग्रस्त घर की मरम्मत के लिए हमारे पास पैसे नहीं बचते।
इसी तरह जैसलमेर से लगभग 15 किमी दूर बरमसर गांव के रहने वाले नरपतराम राशन लाभार्थियों में अपना नाम दर्ज कराने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जिले के अधिकारियों का जवाब होता है कि अब वे किसी और लाभार्थी को राशन सूची में नहीं जोड़ सकते। उन्होंने सरकारी वेबसाइट ई-मित्रा पर पंजीकरण भी कराया है, लेकिन अधिकारियों का कहना है कि सूची में उनका नाम तभी जोड़ा जा सकता है, जब कोई अन्य बाहर हो जाए। एक ओर जहां नरपतराम जैसे लोग पीडीएस की सूची से बाहर हैं, वहीं कई ऐसे लोग सूची में हैं, जो अपात्र हैं। गांव के छत्ताराम कहते हैं, “गांव के अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के समुदाय के लोग राशन सूची से बाहर हैं, जबकि ऊंची जाति के धनवान लोग राशन ले रहे हैं। इनकी अधिकारियों से सांठगांठ है।”
फाउंडेशन फॉर ईकोलॉजिकल सिक्योरिटी (एफईएस) के एक स्वयंसेवक माघरम का कहना है कि ऐसे ग्रामीणों के लिए मुफ्त गेहूं इन लोगों के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण है। वह बताते हैं, “पश्चिमी राजस्थान और उसके सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाली 90 प्रतिशत से अधिक आबादी अपने अस्तित्व के लिए पीडीएस और अन्य सरकारी योजनाओं पर अधिक निर्भर है। इसका कारण यह है कि ये लोग मुख्य रूप से खेतिहर मजदूर और अन्य दैनिक मजदूरी के रूप में काम कर रहे हैं। मघराम का कहना है कि भौगोलिक परिस्थितियों के चलते किसान साल में केवल एक फसल ही ले पाते हैं। इसके चलते किसानों की आय कम होती है। इसके अलावा, क्षेत्र में भीषण गर्मी के कारण गर्मियों के कारण लोग मजदूरी भी नहीं कर पाते। कुछ लोग पलायन कर जाते हैं। गांव में रह रहे लोग महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) में काम कर अपना पेट भर रहे हैं।
एक मजदूर, 30 वर्षीय सत्ताराम का कहना है कि अगर उन्हें पीडीएस के माध्यम से मुफ्त खाद्यान्न मिलता है, तो वे अपने बच्चों की शिक्षा का ध्यान रख सकते हैं। वह कहते हैं, “मैं अपनी सारी कमाई अनाज और किराने का सामान खरीदने में खर्च कर देता हूं। मैं एक महीने में 15 हजार कमाता हूं जो नियमित आय नहीं है, इस पर छह लोगों का परिवार निर्भर करता है। राशन से वंचित लोगों को दही या प्याज के साथ गेहूं या बाजरे की रोटी खाकर पेट भरना पड़ रहा है। बारामसर गांव की 62 वर्षीय विधवा देवकी के पास कार्ड है, लेकिन उसे केवल 10 किलो राशन ही मिलता है। राशन डिपो संचालक कह देता है कि फिंगरप्रिंट का मिलान नहीं होने के कारण उन्हें पूरा राशन नहीं मिलेगा। वह जैसलमेर जाकर अधिकारियों के दरवाजे भी खटखटा चुकी है, लेकिन कुछ नहीं हुआ। बुजुर्ग होने के कारण वह बाहर जाकर मजदूरी नहीं कर सकती, इसलिए सरकार का राशन ही उनके जीने का एकमात्र जरिया है। जितना राशन मिलता है, उसे बचाने के लिए महीने में कम से कम चार दिन केवल एक बार खाना खाती हूं।”
15 करोड़ लोग बाहर
अब सवाल उठता है कि आखिर कितने लोग राशन से वंचित हैं। दरअसल, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 में लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टीपीडीएस) के तहत ग्रामीण क्षेत्र में 75 प्रतिशत और शहरों में 50 प्रतिशत यानी कुल आबादी का 67 प्रतिशत को शामिल किया गया है। चूंकि 2011 की जनगणना के मुताबिक देश की कुल आबादी 121 करोड़ थी तो लगभग 81.35 करोड़ लोगों को एनएफएसए में कवर किया जाना था। परंतु अब हम 2022 में हैं और 2021 की जनगणना अब तक नहीं हुई है। ऐसे में, यदि अनुमानों की बात करें तो केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग द्वारा प्रकाशित जनसंख्या अनुमान के मुताबिक 2021 में जनसंख्या 136 करोड़ पहुुंच चुकी थी।
वहीं, विश्व आर्थिक मंच के अनुमान के मुताबिक भारत की आबादी वर्तमान में 141.7 करोड़ पहुंच चुकी है। इसका आशय है कि लगभग 20.7 करोड़ आबादी बढ़ चुकी है। ऐसे में, वर्तमान राशन कार्ड धारकों की गणना की जाए तो केवल 57 फीसदी (81.5 करोड़) लोगों के पास राशन कार्ड है। वर्तमान आबादी के हिसाब से लगभग 95 करोड़ लोगों (67 प्रतिशत) का नाम राशन की सूची में होना चाहिए। इस तरह, भारत की लगभग 13.7 करोड़ अतिरिक्त लाभार्थियों को भी राशन की सूची में शामिल किया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट में जमा एक शपथ पत्र में सरकार बताती है कि 31 अगस्त 2022 तक देश में राशन की सूची में 79.7 करोड़ लाभार्थी शामिल है। इसका मतलब है कि सरकार 2011 की आबादी के हिसाब से अभी भी लक्षित आबादी से लगभग 16.5 करोड़ लोग राशन की सूची से बाहर हैं। अगर वर्तमान अनुमानित आबादी के आधार पर देखा जाए तो लगभग 15.1 करोड़ लोग राशन से वंचित हैं।
याचिकाकर्ता इन्हीं आंकड़ों को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष रख रहे हैं। इसी आधार पर अदालत ने 29 जून, 2021 को केंद्र सरकार को निर्देश दिए थे कि वह 2011 की आबादी के आधार पर निर्धारित की गई राशन लाभार्थियों की संख्या पर पुनर्विचार करे। सरकार ने 18 जुलाई, 2022 को एक हलफनामा दायर किया, जिसमें कहा गया कि एनएफएसए की धारा 9 में प्रावधान किया गया है कि जनगणना के नए आंकड़ों के आधार पर ही लाभार्थियों की संख्या का पुनर्निर्धारण किया जा सकता है। इसलिए लाभार्थियों की निर्धारित संख्या यानी कोटा बढ़ाने के लिए या तो धारा 9 में संशोधन करना होगा या फिर जनगणना के नए आंकड़े प्रकाशित होने के बाद ही यह संभव हो पाएगा।
अगर सरकार के इस तर्क को माना जाए तो करोड़ों लोग राशन की सूची से अनिश्चित काल तक बाहर ही रहेंगे, क्योंकि जनगणना करने के संबंध में अभी तक कोई तारीख अधिसूचित नहीं की गई है। सरकार भी मान चुकी है कि जनगणना की शुरुआत की तारीखों को अभी तक अंतिम रूप नहीं दिया गया है। अदालत ने 21 जुलाई, 2022 को अपना पक्ष दोहराते हुए सरकार से कहा कि वह जनसंख्या अनुमानों का उपयोग करे और नए लाभार्थियों को जोड़े। इसके बाद सरकार ने 10 अक्टूबर 2022 को अदालत में कहा, “एक बार जब जनगणना की प्रक्रिया शुरू करने की तारीख तय हो जाएगी और सर्वे पूरा हो जाएगा, उसके बाद अनंतिम (प्रोविजनल) जनगणना आंकड़े प्रकाशित किए जाएंगे।
हालांकि अंतिम आंकड़े जारी करने में समय लगेगा, जो कि अनंतिम आंकड़ों से भिन्न हो सकते हैं। जनगणना पूरी होने के बाद राज्यवार आंकड़े आने में तीन और महीने लगेंगे।’ यहां यह उल्लेखनीय है कि 2024 में आम चुनाव होने हैं और 2023 में सरकार चुनाव मोड पर आ जाएगी, ऐसे में पूरी संभावना जताई जा रही है कि जनगणना अगले दो साल में शुरू नहीं हो पाएगी और जनगणना के अंतिम आंकड़े आने में सालों लगने वाले हैं।
सुप्रीम कोर्ट में इस केस की याचिकाकर्ता अंजलि भारद्वाज कहती हैं, “जनसंख्या अनुमानों का उपयोग नहीं करना अदालत के फैसले की भावना के खिलाफ है, क्योंकि अदालत ने यह स्पष्ट रूप से कहा है कि सरकार को अधिनियम की धारा 9 के तहत लाभार्थी कार्ड धारकों की संख्या को फिर से निर्धारित करना चाहिए। अदालत यह कहने की कोशिश कर रही थी कि देश में कोई भी भूखा नहीं रहना चाहिए। हम वापस अदालत गए और अदालत को सरकार की मंशा से अवगत कराया। अदालत ने फिर स्पष्ट किया कि भले ही अभी जनगणना नहीं हो रही है, लेकिन सरकार जनसंख्या अनुमानों के आधार पर राशन लाभार्थियों की संख्या फिर से निर्धारित करे।”
जनगणना पर विवाद
सरकार ने अदालत में कहा कि जनगणना के आवश्यक आंकड़ों के बिना एनएफएसए के तहत कवरेज की फिर से जांच करने के लिए की गई कोई भी कवायद आशुद्धियों या अनुमानों से भरी होगी, जिससे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा के तहत लाभार्थियों की पहचान को प्रभावित हो सकती है। अर्थशास्त्री रीतिका खेड़ा कहती हैं, “जनगणना न कराना सरकार की नाकामी है। उन्हें जनसंख्या के सरकारी अनुमानों का उपयोग करना चाहिए। यह सबसे आसान उपाय है। असल मुद्दा यह है कि सरकार पीडीएस में 10 करोड़ लोगों को शामिल नहीं करना चाहती है।” खेड़ा ने ज्यां द्रेज और मेघना मुंगिकर के साथ 2021 में प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट में अनुमान लगाया था कि 10 करोड़ से अधिक लोग पीडीएस से बाहर हैं।
जहां एक ओर जनगणना कब होगी, इसका कोई निश्चित जवाब नहीं है, वहीं दूसरी ओर राज्य सरकारें एक साथ राशन कार्ड रद्द कर रही हैं। सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में पेश किए गए आंकड़ों के मुताबिक अकेले 2021 में 22 लाख राशन कार्ड डिलीट या रद्द किए गए और अगर साल 2013 से देखें तो 4.74 करोड़ राशन कार्ड हटाए या रद्द किए गए हैं। सबसे अधिक उत्तर प्रदेश (1.73 करोड़) में रद्द किए गए, इसके बाद पश्चिम बंगाल (68 लाख) और महाराष्ट्र (42 लाख) का स्थान है। सरकार का दावा है कि लगातार कुछ लोग पात्रता सूची से बाहर हो रहे हैं और कुछ जोड़े जा रहे हैं। लेकिन जिन लोगों के राशन कार्ड रद्द किए गए हैं उनमें कुछ अत्याधिक गरीब भी शामिल हैं। 27 अप्रैल 2022 को सर्वोच्च न्यायालय ने तेलंगाना में लाभार्थियों को अपना बचाव करने का मौका दिए बिना कथित तौर पर 19 लाख राशन कार्ड हटाने के लिए राज्य सरकार की खिंचाई की। इसके बाद, तेलंगाना सरकार ने जुलाई में रद्द किए गए कार्डों का फील्ड सत्यापन करने का निर्णय लिया था।
सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा सूचना के अधिकार कानून के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार, दिल्ली जैसे छोटे राज्य में, नए राशन कार्ड के लिए लगभग तीन लाख आवेदन आए। इसका अर्थ है कि लगभग 10-12 लाख लोग राशन पाने की इंतजार में हैं। एनएफएसए के दिशानिर्देशों के अनुसार, पात्र परिवारों की पहचान राज्य सरकारों द्वारा की जानी है और प्राथमिकता वाले परिवारों की पहचान करने के लिए दिशानिर्देश तैयार करना भी उनका विशेषाधिकार है। लेकिन जब भी सर्वोच्च न्यायालय में केंद्र सरकार से पीडीएस से लोगों को बाहर करने के बारे में पूछा गया, तो इस पर विवाद बना रहा।
केंद्र सरकार की दलील है कि अभी भी जरूरतमंद और कमजोर आबादी को समायोजित करने की गुंजाइश है, क्योंकि कई राज्यों ने लाभार्थियों की पहचान करने की अपनी सीमा को पूरा नहीं किया है। हालांकि, यह पूरी तरह से सही तस्वीर नहीं है। खेड़ा बताती हैं कि कुछ ही राज्यों में कोटे में (वो भी बहुत कम) जगह बची है। केवल 1-2 प्रतिशत मार्जिन है, यानी कि 100 करोड़ में से मुश्किल से नए 10 लाख लाभार्थियों को ही शामिल किया जा सकेगा। इसे राज्य सरकारों पर मढ़ना ध्यान भटकाने की रणनीति है। मुख्य मुद्दा जनसंख्या में वृद्धि से जुड़ा है।
वहीं, सरकार का दावा है कि 2013-2021 के दौरान एनएफएसए के तहत 4.7 करोड़ नए राशन कार्ड बना कर 18-19 करोड़ राशन लाभार्थियों की सूची में शामिल किया गया। लेकिन यह मौजूदा राशन कार्डों को रद्द या हटाकर किया गया है क्योंकि राज्य सरकारों की मजबूरी है कि उन्हें कोटा बनाए रखना होता है। राशन कार्ड रद्द करने के पीछे सरकार के दो तर्क है। पहला, 2013 के बाद से प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई है और अब कम लोगों को सब्सिडी वाले राशन की आवश्यकता होगी। अपात्र/डुप्लिकेट/नकली/मृतक लाभार्थियों की छंटाई की जाएगी। हालांकि डाउन टू अर्थ की पड़ताल बताती है कि कार्ड रद्द करते वक्त कार्ड धारकों को कारण बताया तक नहीं गया।
कैसे होगी गरीबों की पहचान?
सरकारी राशन उन लोगों को दिया जाता है, जो गरीब हैं, लेकिन भारत में गरीब कौन है? गरीब की पहचान कैसे और कौन करेगा? इस सवाल का जवाब देने की बजाय केंद्र सरकार का सर्वोच्च न्यायालय में दिए गए तर्क पर विशेषज्ञ हैरान हैं। सरकार का तर्क है कि 2013 के बाद से देश में प्रति व्यक्ति आय में वास्तविक रूप से 33.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है और यह वृद्धि “बड़ी संख्या में परिवारों को उच्च आय वर्ग” में ले जाएगी। हो सकता है कि लाभार्थियों की संख्या में कमी आ जाए। सर्वोच्च न्यायालय में दायर हलफनामे में कहा गया है, “ 2013 में सीलिंग तय करते समय यह उम्मीद जताई गई थी कि समय के साथ जीवन स्तर में सुधार होगा। इससे राशन लाभार्थियों की संख्या धीरे-धीरे कम की जा सकती है। हालांकि सरकार ने अभी 75/50 प्रतिशत की मौजूदा सीमा को कम नहीं किया है”। विशेषज्ञ सरकार के इस तर्क पर सवाल खड़े कर रहे हैं। खेड़ा कहती हैं, “हम जानते हैं कि प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि का मतलब यह नहीं है कि हर कोई लाभान्वित हो रहा है।”
अदालत में प्रस्तुत हलफनामे में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि का श्रेय सरकार ने नीति आयोग को दिया है, लेकिन विशेषज्ञों का मत है कि राष्ट्रीय आय में वृद्धि को जनसंख्या में समान रूप से वितरित नहीं किया जा सकता। भारद्वाज कहती हैं, “सरकार का यह तर्क भ्रामक है। प्रति व्यक्ति आय का निर्धारण करते वक्त आय और संपत्ति में गहरी असमानता को नहीं देखा जाता। राष्ट्रीय आय कुछ व्यक्तियों और परिवारों की आय के कारण बढ़ सकती है, लेकिन इसका औसत निकालना उन लोगों के लिए उचित नहीं होगा, जिनकी आय में कोई बदलाव नहीं हुआ या जो गरीबी रेखा से नीचे खिसक गए हैं।”
अर्थशास्त्री संतोष मेहरोत्रा कहते हैं कि सरकार सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को जनसंख्या से भाग देकर प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के निष्कर्ष पर पहुंचती है। इसमें यह स्पष्ट नहीं होता कि प्रति व्यक्ति आय का आकलन करते वक्त मुद्रास्फीति को ध्यान में रखा गया या नहीं। जमीनी हकीकत बिलकुल अलग है। कोविड से पहले और अब कोविड के बाद, देश में बेरोजगारी बढ़ी है, रोजगार दर गिर गई है और मजदूरी दर भी गिर गई है। लगभग 5 करोड़ अतिरिक्त मजदूर, कृषि कार्य के लिए वापस चले गए हैं। यह मेरा अनुमान पीएलएफएस पर आधारित है।
मई 2022 में भारत में असमानता की स्थिति की रिपोर्ट बिल्कुल यही दर्शाती है। शीर्ष एक प्रतिशत कमाने वालों की हिस्सेदारी कुल अर्जित आय का 6-7 प्रतिशत है। एक अन्य सरकारी आंकड़ा, जिसे आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण 2019-20 कहा जाता है, उसमें भी कहा गया है कि देश में 25 हजार रुपए का मासिक वेतन लेने वालों की संख्या 10 प्रतिशत है।
यहां यह भी खास है कि 2011 के बाद से भारत ने देश में गरीबी के आंकड़े जारी ही नहीं किए हैं। ये आंकड़े राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) द्वारा खपत व्यय सर्वेक्षण के आधार पर मापे जाते हैं। खपत पर किए जाने वाले खर्च को आय के प्रॉक्सी के रूप में स्वीकार किया जाता है और देश में गरीबी को मापने के लिए आय के इसी स्तर का उपयोग किया जाता है। 2017-18 में एनएसएसओ द्वारा उपभोग व्यय सर्वेक्षण जारी किया जाना था, लेकिन सरकार ने इसका प्रकाशन नहीं किया। इस सर्वेक्षण से पता चला था कि भारत में गरीबी बढ़ी है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में सरकार ने सर्वेक्षण प्रकाशित न करने का कारण बताते हुए कहा, “इस सर्वेक्षण को “गुणवत्ता के कारण” सार्वजनिक डोमेन में प्रकाशित नहीं किया गया। जुलाई 2022 में नया सर्वेक्षण शुरू हो चुका है। जून 2023 तक फील्ड वर्क पूरा हो जाएगा, इसके छह महीने बाद नए आंकड़ों का प्रकाशन किया जाएगा।”
दरअसल 2013 में जब एनएफएसए के तहत कोटे (75/50 प्रतिशत) का निर्धारण किया जा रहा था, तो उस समय सरकार ने देश में गरीबों की अनुमानित आबादी को आधार नहीं बनाया गया। बल्कि तब केंद्र सरकार ने यह देखा कि वह खाद्य सब्सिडी पर कुल कितना खर्च कर सकती है। खेड़ा बताती हैं कि “यह पूरी तरह से एक मनमानी संख्या थी। उस समय (2013 में) संख्या का निर्धारण करते वक्त केवल यह ध्यान रखा गया कि सरकार कितनी खाद्य सब्सिडी वहन कर सकती है, लेकिन जब राज्यों में राशन कार्डों की कुल संख्या को विभाजित किया गया तो गरीबी के आंकड़ों का उपयोग किया गया।” खेड़ा के मुताबिक यही वजह है कि बिहार, झारखंड, ओडिशा जैसे राज्यों में ग्रामीण क्षेत्रों में पीडीएस के कवरेज का आंकड़ा राष्ट्रीय औसत से अधिक है, क्योंकि इन राज्यों में सरकारों ने गरीबी की दर को आधार बनाया। इस तरह गरीब राज्यों को अधिक कवरेज मिला और अमीर राज्यों को कम कवरेज मिला।
सवाल यह भी उठ रहा है कि सरकार जनगणना का केवल बहाना बना रही है या वाकई सरकार गरीबों तक रियायती राशन पहुंचाने के प्रति गंभीर है? क्योंकि सरकार अगर लाभार्थियों की सही संख्या जानना चाहती है तो उसके पास एक और महत्वपूर्ण स्रोत है जिस पर वह ध्यान दे सकती है। वह है- ई-श्रम पंजीकरण पोर्टल के आंकड़े। अगस्त 2021 में श्रम और रोजगार मंत्रालय द्वारा कोविड प्रेरित लॉकडाउन के मद्देनजर असंगठित श्रमिकों के पंजीकरण के लिए यह पोर्टल शुरू किया गया था। पोर्टल में 28.4 करोड़ असंगठित श्रमिक हैं। कोर्ट ने सरकार से सवाल किया था कि जिनके पास राशन कार्ड नहीं है, उन्हें पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन के आधार पर राशन क्यों नहीं दिया जा सकता है. सरकार ने कहा कि इन आंकड़ों का इस्तेमाल राशन कार्डों के लिए नहीं किया गया है।
वास्तव में उपलब्ध आंकड़ों के हिसाब से देखा जाए तो दो महत्वपूर्ण आंकड़े आधार कार्ड और आय वर्ग के हैं। भारद्वाज ने कहा, “आधार नंबर को पंजीकृत आबादी के लिए राशन कार्ड के साथ जोड़ा जाना चाहिए। इसलिए सरकार के लिए यह पता लगाना वास्तव में काफी सरल है कि किसके पास राशन कार्ड है और किसके पास नहीं है। अदालत ने सरकार से पूछा है कि अगर सरकार का उद्देश्य भोजन का अधिकार प्रदान करने का नहीं है तो इन आंकड़ों को इकट्ठा क्यों किया जा रहा है”। ई श्रम पोर्टल पर एक अन्य आंकड़ा आय से संबंधित है। जो बताता है कि पंजीकृत असंगठित श्रमिकों में से 90 प्रतिशत से अधिक की स्व-घोषित वार्षिक आय 10 हजार रुपए प्रति माह से कम है। यह आय वर्ग पोर्टल पर सबसे कम श्रेणी का है। झारखंड के पूर्व खाद्य आपूर्ति एवं उपभोक्ता मामलों के मंत्री एवं वर्तमान विधायक सरयू राय ने डाउन टू अर्थ से कहा कि जब वह मंत्री थे तो उन्होंने केंद्र सरकार को सुझाव भेजा था कि हर साल दो प्रतिशत नए लाभार्थियों को जोड़ा जाए, लेकिन सरकार ने नहीं सुना।
ऐसे में, सवाल उठना लाजिमी है, क्या सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत मिल रहे गरीबों के राशन पर नजर गड़ाए हुए है?