सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की डायरेक्टर जनरल सुनीता नारायण ने कहा है कि हम अपनी जलवायु संकट वाली दुनिया में कृषि और खाद्य उत्पादन कैसे करें, ताकि हम आजीविका, पोषण और प्रकृति की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकें? इस सवाल का जवाब इस किताब (फर्स्ट फूड: द फ्यूचर ऑफ टेस्ट) मिलता है। यह किताब हमें जैव-विविध भोजन के रंग, गुण और उसके जायके से परिचित कराती है जो पोषण के साथ-साथ प्रकृति के लिए भी अच्छा है।
सुनीता नारायण ने नई दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट द्वारा प्रकाशित किताब 'फर्स्ट फूड: द फ्यूचर ऑफ टेस्ट' के विमोचन कार्यक्रम को संबोधित कर रही थीं। यह किताब सीएसई की फर्स्ट फूड सीरिज का हिस्सा है।
पुस्तक का विमोचन देश के कई विख्यात शेफ और व्यंजन विशेषज्ञों द्वारा किया गया, जिनमें ट्रे रेस्तरां, नई दिल्ली के सह-मालिक और शेफ जतिन मलिक, इंडियन एक्सेंट, द लोधी, नई दिल्ली के पाककला निदेशक मनीष मेहरोत्रा, आईटीसी होटल्स के पूर्व कॉर्पोरेट शेफ एवं इंडियन फेडरेशन ऑफ क्यूलिनरी एसोसिएशन के संस्थापक अध्यक्ष मंजीत एस गिल और हैबिटेट वर्ल्ड, इंडिया हैबिटेट सेंटर, नई दिल्ली के कॉर्पोरेट शेफ राजीव मल्होत्रा शामिल थे।
किताब की संकल्पनाकर्ता और लेखिका विभा वार्ष्णेय ने बताया कि भारत में स्थानीय समुदायों को बाजरा के बारे में इसके फैशनेबल बनने से बहुत पहले से पता था। दरअसल, वे और भी बहुत कुछ जानते हैं। उदाहरण के लिए हमारे आस-पास उपलब्ध कई चीजें जैसे कि खरपतवार, वृक्ष-जनित खाद्य पदार्थ और बीज, जिन्हें लंबे समय तक संग्रहित किया जा सकता है। इसके अलावा अल्प जीवन वाले पौधे और उनके वे हिस्से भी जो आमतौर पर बर्बाद हो जाते हैं, उनका इस्तेमाल भी स्थानीय समुदायों में आम है। हमारी इस किताब में 100 से अधिक ऐसे गैर-मुख्यधारा वाले व्यंजनों और खाद्य पदार्थों को एक साथ प्रस्तुत किया गया है, जो जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान से जूझ रही दुनिया के लिए आदर्श बन सकते हैं।
साल 2018 में वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का लगभग 11 प्रतिशत हमारे द्वारा उत्पादित भोजन से हुआ था। कृषि और खाद्य प्रणालियों से होने वाला उत्सर्जन एक वास्तविकता है, लेकिन नारायण बताती हैं कि दुनिया में खेती के दो अलग-अलग मॉडल हैं।
वह कहती हैं, “पहला एक गहन औद्योगिक मॉडल पर आधारित है, जहां बड़े पैमाने पर कारखानानुमा खेतों में भोजन का उत्पादन किया जाता है और दूसरा, निर्वहन पर आधरित है, जिसे विकासशील देशों में छोटी जोत वाले किसानों द्वारा अपनाया जाता है। वे अपनी आजीविका के लिए भोजन उगाते हैं।
नारायण के मुताबिक कृषि और खाद्य उत्पादन दुनिया के उन दो हिस्सों के बीच विभाजन पैदा करता है। पहला, जो जीवित रहने के लिए उत्सर्जन करते हैं और दूसरा, जो विलासिता के लिए उत्सर्जन करते हैं। ऐसे समय में जब जलवायु परिवर्तन और अन्य कारकों से दुनिया भर में किसानों का अस्तित्व खतरे में है, हम खाद्य उत्पादन के गहन व विलासिता-उत्सर्जन आधारित मॉडल के साथ आगे नहीं बढ़ सकते हैं।
नारायण बताती हैं कि इस किताब में उन फसलों को चुनने की सलाह दी गई है, जो पोषक होने के साथ-साथ स्थानीय पर्यावरण के अनुकूल भी हों। उदाहरण के लिए, जहां पानी की कमी है, किसानों को बाजरा जैसी कम पानी वाली फसलें उगानी चाहिए। सरकार को ऐसी नीतियां बनानी चाहिए जो इन फसलों की खेती को बढ़ावा दें।
इस किताब में जोखिम को कम करने के लिए बहुफसलीय खेती को बढ़ावा देने जैसे उपायों की भी सिफारिश की गई है। जैसे कि उर्वरकों और कीटनाशकों के गैर-रासायनिक विकल्पों का उपयोग करके मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार करना और कम लागत वाली कृषि को प्रोत्साहित करती है।
नारायण कहती हैं, “सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें यह महसूस करना चाहिए कि हमारे किसान जो उगाते हैं, वह हम उपभोक्ताओं पर निर्भर करता है। हमारी थाली में मौजूद भोजन में पोषण का मतलब खत्म हो गया है। हम जानते हैं कि स्वस्थ रहने के लिए हमें अच्छे भोजन की आवश्यकता है, लेकिन हम गलत खाना जारी रखते हैं। यदि हम अपना आहार बदलते हैं तो यह हमारे किसानों को अलग तरह से बढ़ने, अच्छा और जलवायु-अनुकूल भोजन उगाने के लिए संकेत प्रदान करेगा।"