बंगाल का ‘चोद्ड़ोषाक’: प्रकृति की थाली में संस्कृति का स्वाद
दीपावली की जगमगाहट से एक दिन पहले, जब पूरा भारत धन की देवी लक्ष्मी के स्वागत की तैयारियों में लगा होता है, बंगाल उस रात को एक अलग ही भाव से जीता है 'भूत चतुर्दशी", जिसे यम चतुर्दशी या नरक चतुर्दशी भी कहा जाता है।
इस दिन हर बंगाली घर में चौदह दीप जलते हैं और चौदह प्रकार के साग (शाक) पकाए जाते हैं। इन चौदह सागों का सेवन केवल एक खाद्य परंपरा नहीं, बल्कि श्रद्धा, स्वास्थ्य और आध्यात्मिक संतुलन का प्रतीक है। कहा जाता है कि जो व्यक्ति इस दिन चौदह प्रकार के साग खता है, उसे यमराज का भय नहीं सताता। पूरब की यह सांस्कृतिक लोक परंपरा औषध विज्ञान, जीवन दर्शन और अपने पुरखों को याद करने का अद्भुत संयोजन है।
चौदह साग परम्परा का विज्ञान
यह अनुष्ठान न केवल धार्मिक अर्थों से जुड़ा हुआ है, बल्कि इसके भीतर गहरे नृवैज्ञानिक और वैज्ञानिक सन्दर्भ भी निहित हैं। इस दिन चौदह प्रकार की औषधीय पत्तेदार सब्जियां- ओल (अमोर्फोफैलस कैम्पानुलैटस), केउ (कोस्टस स्पेशियोसस), बेटो (चेनोपोडियम एल्बम), कोलकासुंडी (कैसिया सोफेरा), नीम (अजाडिराक्टा इंडिका), जयंती (सेस्बानिया सेस्बन), शालिंचे (अल्टरनेन्थेरा सेसिलिस), सरसों (ब्रैसिका कैम्पेस्ट्रिस), गुडुची/गिलोय (टिनोस्पोरा कॉर्डिफोलिया), पटोल/परवल पत्ता (ट्राइकोसैंथेस डियोइका), शेलुका (कॉर्डिया डाइचोटोमा), हिल्मेचिका (एनहाइड्रा फ्लुक्टुआन्स), घेंतू (क्लेरोडेंड्रम इन्फोर्टुनेटम) और शुशनी (मार्सिलिया क्वाड्रिफोलिया) खाई जाती हैं।
सागों की सूचियां हमें शिवकाली भट्टाचार्य और वेणीमाधव शील द्वारा रचित अलग-अलग सन्दर्भ ग्रंथों में मिलती है, जिनमे बारह साग दोनों में उधृत हैं। इन सभी साग सब्जियों का अपना अलग अलग वनस्पतिक परिवार और औषधीय महत्व है, और यह माना जाता है कि इनका सामूहिक सेवन शरीर की रक्षा करने वाले प्राकृतिक कवच की तरह कार्य करता है।
लोककथाओं के अनुसार, यह प्रथा राक्षसों को दूर रखने के लिए की जाती थी। किंतु यदि इसे प्रतीकात्मक रूप में देखा जाए, तो ये “राक्षस” वास्तव में वे मौसमी रोग हैं जो शरद ऋतु में अचानक जलवायु परिवर्तन के कारण शरीर पर आक्रमण करते हैं।
तापमान और हवा में नमी में परिवर्तन के इस काल में सांस का संक्रमण, सर्दी-जुकाम, बुखार, त्वचा पर चकत्ते, पेट संबंधी विकार और थकावट जैसी समस्याएँ सामान्य रूप से उत्पन्न होती हैं। आयुर्वेद को दृष्टि से यह समय शरीर की प्रतिरोधक क्षमता के परीक्षण का होता है। चरक संहिता में यह उल्लेख मिलता है कि मृत्यु के देवता यम को दूर रखने के लिए शरद ऋतु में विशेष जड़ी-बूटियों का सेवन आवश्यक है। सम्भवतः यही परंपरा आगे चलकर “चोद्ड़ोषाक” रूप में लोक जीवन का हिस्सा बन गई।
शरद ऋतु के इस काल में मानसून समाप्त हो चुका होता है और भूमि फिर से उपजाऊ तथा शुद्ध हो जाती है। इस मौसम में पौधे अपने औषधीय गुणों से भरपूर होते हैं। इसलिए माना गया कि वर्ष के इस समय इन चौदह सागों का सेवन शरीर को भीतर से शुद्ध करता है, रोगाणुओं से रक्षा करता है और मानसून के बाद उत्पन्न संक्रमणों से बचाता है।
लोकमान्यता के अनुसार, इस दिन इन सागों को तेल में तलकर खाना शुभ माना जाता है, क्योंकि यह न केवल स्वाद और पाचन को संतुलित करता है, बल्कि शरीर को आवश्यक ऊष्मा भी प्रदान करता है।
इन चौदह सागों के औषधीय गुण अत्यंत विविध हैं। कुछ साग जैसे कोलकासुंडी, जयंती और घेंतू मौसमी श्वसन रोगों जैसे फेफड़े की बीमारी, दमा, एलर्जी और बुखार के उपचार में उपयोगी माने जाते हैं। बेटो यकृत की रक्षा करता है और पाचन शक्ति को मजबूत बनाता सरसों के पत्ते मूत्रवर्धक हैं और शरीर से विषाक्त तत्वों को बाहर निकालते हैं।
ओल अपने उच्च फाइबर और फ़ॉस्फोरस के कारण बवासीर में विशेष रूप से उपयोगी है, इसलिए इसे संस्कृत में ‘अर्सोग्ना’ कहा गया है। मौसमी अवसाद, सिरदर्द और अनिद्रा जैसी समस्याओं में भी कुछ साग राहत देते हैं। शालिंचे सिरदर्द और चक्कर में सहायक है, जबकि नीम को संक्रमणरोधी और एंटीवायरल गुणों के कारण लोक चिकित्सा में प्रयुक्त होता है।
इन पौधों की जैव रासायनिक संरचना भी उनके प्रभावों का वैज्ञानिक आधार प्रदान करती है। इनमें पाए जाने वाले फ्लेवोनोइड्स, पाइपरिडिन एल्कलॉइड्स और फाइटोस्टेरॉल्स दर्द और सूजन कम करने में सक्षम हैं। ये यौगिक शरीर में उत्पन्न सूजन मध्यस्थों—जैसे हिस्टामिन, ब्रैडीकाइनिन, सेरोटोनिन और प्रॉस्टाग्लैंडिन—को नियंत्रित करते हैं, जिससे सूजनरोधी और दर्द निवारक प्रभाव प्राप्त होता है। चोद्ड़ोषाक समूह के कई पौधों में रोगाणुरोधी और कृमिनाशक गुण भी पाए जाते हैं। मानसिक स्वास्थ्य पर भी इनका सकारात्मक प्रभाव देखा गया है।
लोकरीति और सामाजिक रंग
आज भी कोलकाता की सड़कों से लेकर ग्रामीण बंगाल तक, भूत चतुर्दशी की सुबह से घर के प्रमुख सदस्य सब्जी बाजार की ओर निकलते हैं। वहां इन चौदह सागों की विशेष गठरी तैयार बिकती है। यह परंपरा एक सामुदायिक अनुभव है, जहां लोग एक-दूसरे को साग पहचानने में मदद करते हैं, पुरखों का स्मरण करते हैं और बच्चों को पौधों की पहचान कराते हैं। हालांकि अब सभी चौदह प्रकार के साग प्रचलन में नहीं है तो प्याज और लहसुन के पत्ते भी चौदह सागों की गठरी में स्थान पा लेते हैं, फिर भी दस से बारह किस्म के साग अभी भी मूल सूची के मिल जाते है!
घरों में हर महिला इस साग को अलग शैली में पकाती है। कोई इसे हल्का उबालकर सरसों तेल और कालो जीरे/पंचफोरन से छौंक देती है, तो कोई इसमें थोड़ा सा कद्दू या आलू जोड़ देती है। इन सबका अंतिम स्वरूप एक हल्का कड़वा-मीठा-मसालेदार वाला मिश्रित स्वाद होता है, जो पूरब की गृहस्थी की विविधता का प्रतीक है। अगर इस परंपरा के थोड़ा नजदीक जाते हैं तो पता चलता है स्थानीय जैव-विविधता के संरक्षण का यह एक महत्वपूर्ण सामाजिक जरिया भी हैं।
भक्ति और भय का रूपांतरण
भूत चतुर्दशी को लेकर बंगाल में एक अत्यंत मनोरम और अर्थगर्भित लोककथा प्रचलित है। कहा जाता है कि एक बार एक स्त्री ने अपने मृत पुत्र की आत्मा की शांति के लिए चौदह प्रकार के साग पकाए और उन्हें श्रद्धापूर्वक अर्पित किया। उसके इस भाव से प्रसन्न होकर यमराज स्वयं प्रकट हुए और उससे वरदान मांगने को कहा। स्त्री ने केवल यही इच्छा जताई कि कोई भी जीवित मनुष्य अपने प्रियजन को खोने के दुख से भयभीत न रहे। तब यमराज ने आशीर्वाद दिया कि जो भी व्यक्ति भूत चतुर्दशी के दिन चौदह साग खाएगा, वह मृत्यु के भय से मुक्त रहेगा और उसके भीतर जीवन के प्रति श्रद्धा और संतुलन का भाव बना रहेगा। यह कथा केवल धार्मिक मान्यता भर नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक चेतना में निहित एक गहरी दार्शनिक दृष्टि को भी उजागर करती है। यहाँ “साग” केवल भोजन नहीं, बल्कि जीवन की विविधता, पृथ्वी की संपन्नता और प्रकृति के साथ मनुष्य के आत्मीय संबंध का प्रतीक है। इस कथा में भय के स्थान पर भक्ति और मृत्यु के स्थान पर सह-अस्तित्व का भाव उभरता है। भारत की धार्मिकता हमेशा से भयमुक्त आस्था की परिचायक रही है।
दुर्गा पूजा में जहां शक्ति की आराधना होती है, जहां देवी विनाशक नहीं, बल्कि रक्षक के रूप में पूजित है; वहीं भूत चतुर्दशी में मृत्यु, पूर्वजों और अदृश्य शक्तियों के साथ सह-अस्तित्व का स्वीकृत भाव झलकता है। यह त्योहार जीवन और मृत्यु के बीच की सीमाओं को मिटाते हुए यह सिखाता है कि भय को भक्ति में, और मृत्यु को पितरो के स्मरण में बदल देना ही सच्चे अर्थों में जीवन की साधना है। कलाकारों और लोककवियों ने भी इस दिन को जीवन-मृत्यु के द्वंद्व के रूप में चित्रित किया है। कई घरों में इस रात “भूत” या “पूर्वज” संकल्प में दीपक जलाकर बच्चों को यह सिखाया जाता है कि मृत्यु कोई अंत नहीं, बल्कि वंशानुगत स्मृति का दीप है।
प्रवास और परंपरा की स्मृति
प्रवास और परंपरा की स्मृति का यह प्रसंग सामाजिक जीवन का अत्यंत भावनात्मक पहलू है। बंगाल के बाहर बसे परिवारों के लिए भूत चतुर्दशी या “चोद्दोषाक” का दिन केवल धार्मिक या सांस्कृतिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि अपनी मिट्टी से जुड़ने का एक आत्मीय अवसर होता है। जब मुंबई, दिल्ली, पुणे, चेन्नई या न्यूयॉर्क, लंदन, सिंगापुर जैसे दूरस्थ शहरों में बसे भारतीय परिवार अपने किसी पर्व उत्सव की तयारी में जुटता है जैसे आज के दिन चौदह प्रकार के साग जुटाने की कोशिश करते हैं, तो वह केवल परंपरा निभाने का उपक्रम नहीं होता, बल्कि अपने अतीत से, अपने गाँव से, अपनी माँ की रसोई से एक भावनात्मक पुनर्संवाद होता है। अक्सर इन प्रवासी परिवारों के लिए चौदह साग ढूंढना असंभव-सा कार्य लगता है। तब वे स्थानीय बाज़ार से पालक, मेथी, सरसों, बथुआ, चौराई या करेला पत्ता जैसी पत्तेदार सब्ज़ियाँ लेकर उस पारंपरिक व्यंजन की प्रतीकात्मक पुनर्रचना करते हैं। यह प्रतीकात्मकता ही उस परंपरा की सबसे सुंदर बात है- जहाँ मुख्य तत्व “साग” नहीं, बल्कि स्मृति है; स्वाद नहीं, बल्कि जुड़ाव है। बच्चों के लिए यह दिन किसी त्यौहार से कम नहीं होता। वे देखते हैं कि कैसे उनके माता-पिता उत्साह से पत्ते चुनते हैं, उन्हें धोते हैं, मिलाकर पकाते हैं, और फिर श्रद्धा से उसका अंश दीपक के साथ घर के किसी कोने में रखते हैं। उस पल में घर की रसोई एक छोटे से तीर्थ में बदल जाती है, जहाँ पुरखों की आत्माएँ और वर्तमान पीढ़ी एक ही सुवास में सांस लेती हैं।
अपने जड़ों से संवाद
भोजन के इस संस्कार के माध्यम से परिवार अपनी जड़ों से संवाद करता है। यह परंपरा सिखाती है कि धार्मिक अनुष्ठान केवल पूजा या तिथि तक सीमित नहीं होते, वे मिट्टी, बीज और स्वाद के जरिए जीवित रहते हैं। प्रवास की यह “चौदह साग” परंपरा मानो यह कहती है कि जब भी हम किसी पारंपरिक व्यंजन को पकाते हैं, हम केवल स्वाद नहीं, बल्कि अपनी विरासत, अपनी भाषा और अपने स्मृति संसार को पुनर्जीवित करते हैं। यही कारण है कि भूत चतुर्दशी, अपने लोक-स्वाद और स्मृति की मिठास के साथ, बंगाली पहचान की सबसे जीवंत डोर बनी हुई है, चाहे वह गंगा के किनारे का गाँव हो या न्यूयॉर्क की किसी ऊँची इमारत का अपार्टमेंट।
आधुनिक शहरी जीवन में जब फास्ट फूड और पैक्ड ग्रेन का दौर है, तब भी भूत चतुर्दशी पर घर से चौदह साग की खुशबू मिटने नहीं पाई है। भूत चतुर्दशी का यह पर्व केवल एक तिथि नहीं, बल्कि भारतीयता के उस भाव का स्मरण है जहाँ भोजन को पूजा कहा गया है। चौदह सागों की थाली में देश की मिट्टी, औषध ज्ञान, लोककथा और पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता एक साथ मिल जाती है। जब दीपावली की रात हमें आगे की रौशनी दिखाती है, तो भूत चतुर्दशी की शाम हमें पीछे झाँकने का अवसर देती है, उन आत्माओं की ओर, जिनकी छाँव में हमारा अस्तित्व खड़ा है। चौदह सागों के इस प्रतीक में जीवन की निरंतरता, मृत्यु की स्वीकृति और स्मृति की मिठास एक साथ बहती है।
इन सभी औषधीय सागों का सामूहिक सेवन एक प्रकार से शरीर की समग्र शुद्धि और संतुलन की प्रक्रिया है। यह परंपरा केवल धार्मिक विश्वास नहीं बल्कि प्रकृति, शरीर और स्वास्थ्य के बीच संबंध की गहरी समझ का उदाहरण है। भारत की लोकसंस्कृति ने हजारों वर्षों पूर्व यह पहचान लिया था कि भोजन ही सबसे बड़ा औषधि है। “चोद्ड़ोषाक” इस दर्शन का जीवंत प्रमाण है-जहाँ एक धार्मिक अनुष्ठान के भीतर चिकित्सा विज्ञान, पर्यावरणीय जागरूकता और मानवीय स्वास्थ्य के सिद्धांत एक साथ मिल जाते हैं। दिवाली की पूर्व संध्या पर इन चौदह सागों का सेवन इसलिए केवल एक रस्म नहीं, बल्कि शरीर और आत्मा के पुनरुद्धार का एक पारंपरिक वैज्ञानिक उत्सव है।
स्नेहमय सांस्कृतिक प्रतिरोध
चोद्दोषाक की यह जीवंत परंपरा आज के समय में एक सांत्वना-सी प्रतीत होती है। एक ऐसा सुकूनदायी संस्कार, जो न केवल हमारे पुरखों की धरोहर को सहेजता है, बल्कि यह भी याद दिलाता है कि भोजन केवल शरीर की आवश्यकता नहीं, बल्कि संस्कृति और आत्मा का उत्सव भी है। आधुनिक जीवन की भागदौड़, फास्ट फूड संस्कृति और पैक्ड खाने की सुविधाओं के बीच जब स्वाद और परंपरा पर बाजारवाद का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है, तब चौदह साग की यह परंपरा मिट्टी की सोंधी गंध की तरह हमें अपनी जड़ों की ओर लौटने का अवसर देती है। भोजन का अर्थ केवल तृप्ति नहीं, बल्कि संबंध है धरती से, बीज से, मौसम से और उन हाथों से जिन्होंने हमें सिखाया कि किस तरह एक पत्ते में भी जीवन की गंध छिपी होती है। जब हम चौदह साग पकाते हैं, तो अनजाने में हम प्रकृति की विविधता का उत्सव मनाते हैं; हर साग एक मौसम, एक खेत, एक स्वाद और एक स्मृति का प्रतीक बन जाता है।
बाज़ार के एकरूप स्वादों के बीच यह लोकपरंपरा इंगित करती है कि स्वाद की सच्ची समृद्धि प्रकृति की विविधता में है, न कि कृत्रिम मसालों या पैकिंग वाले खाने में। चोद्ड़ोषाक केवल एक व्यंजन नहीं, बल्कि सांस्कृतिक प्रतिरोध का भी प्रतीक है-एक शांत, स्नेहमय प्रतिरोध, जो हमें यह याद दिलाता है कि हम चाहे जितनी दूर चले जाएँ, हमारी मिट्टी अब भी हमारे भीतर साँस लेती है। इस तरह भूत चतुर्दशी का “चोद्ड़ोषाक” केवल आस्था का नहीं, बल्कि अस्तित्व का उत्सव है जो हमारे पुरखों के हाथों से चले आ रहे स्वाद, स्मृति और आत्मीयता के ताने-बाने को आज भी अजर-अमर बनाए हुए है।