अनिल अग्रवाल डायलॉग: पोषणयुक्त भोजन के लिए सतत खाद्य प्रणाली को अपनाना होगा

विशेषज्ञों ने माना सभी तरह के खाद्यानों को प्रकृती के साथ सौहार्द बनाते हुए उच्च उत्पादकता को पाने के साथ पोषकता को बनाए रखना है चुनौती
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट द्वारा आयोजित अनिल अग्रवाल डायलॉग पर सतत खाद्य प्रणाली पर विस्तार से बात की गई। फोटो: विकास चौधरी
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट द्वारा आयोजित अनिल अग्रवाल डायलॉग पर सतत खाद्य प्रणाली पर विस्तार से बात की गई। फोटो: विकास चौधरी
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कृषि क्षेत्र में हरित क्रांति के बाद जहां एक तरफ पैदावार में लगातार बढ़ोतरी आंकी जा रही है। वहीं दूसरी ओर गरीबों में पोषण की कमी भी दर्ज की जा रही है।

हाल में आए हंगर इंडेक्स में भारत हंगर इंडेक्स रैंकिंग में कुल 116 देशों में 101वें स्थान में रहा है। इसके अलावा हाल ही में नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5 की रिपोर्ट में भारत के 5 साल से छोटे 32 प्रतिशत बच्चे अंडरवेट पाए गए हैं।

वहीं भारत में महिलाओं और किशोरियों में एनीमिया की कमी की समस्या को भी प्रमुखता से देखा गया है। जो हमारे देश के लिए चिंता का विषय है। इसलिए हमें एक ऐसी सतत  खाद्य प्रणाली की जरूरत है जो न सिर्फ खाद्य सुरक्षा प्रदान करे बल्कि पोषणयुक्त खाद्यान्न भी मुहैया करवा सके।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट द्वारा आयोजित अनिल अग्रवाल डायलॉग में पोषणयुक्त खाद्यान्न और सतत खाद्य प्रणाली को लेकर विशेषज्ञों ने भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए सतत खाद्य प्रणाली को तैयार करने के लिए रूपरेखा पर चर्चा की।

डॉयलॉग के दौरान सीएसई के सतत खाद्य प्रणाली के कार्यक्रम निदेशक अमित खुराना ने प्रेजेंटेशन के माध्यम से बताया कि हमें वर्ष 2050 तक होने वाली आबादी के हिसाब से खाद्य प्रणाली को तैयार करने की जरूरत है।

उन्होंने बताया कि उपभोक्ताओं को पोषणयुक्त स्थानीय भोजन की उपलब्धता की दिशा में काम करना चाहिए। इसके लिए हमें प्राकृतिक और जैविक खेती की ओर जाना चाहिए।

उन्होंने यह भी कहा कि भले ही देश में जैविक और प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने की बात कही जा रही है, लेकिन दूसरी तरफ इसके लिए बहुत कम बजट का प्रावधान किया जा रहा है, जिसकी वजह से यह उस गति आगे नहीं बढ़ रही, जितनी तेजी गति से इसे आगे बढ़ाए जाने की जरूरत है।

राष्टीय जैव विविधता प्राधिकरण के अध्यक्ष वी बी माथूर ने कृषि विविधता को संजोए रखने और आजिविका को बढ़ाने के लिए जैव विविधता एक्ट 2002 के महत्व के बारे में प्रस्तुति दी।

उन्होंने बताया कि जिस गति से जलवायु परिवर्तन हो रहा है उसका सबसे अधिक असर कृषि क्षेत्र और जैव विविधता में देखने को मिल रहा है। इसकी वजह से जीवों और खाद्यानों की कई प्रजातियां विलुप्त हो गई हैं। इसलिए जैव विविधता एक्ट इन्हें बचाने में अहम भूमिका निभा रहा है।

माथुर ने बताया कि दुनिया में 39100 पौधों की कुल किस्में पाई गई हैं और इसमें से मनुष्य के इतिहास में केवल 5538 प्रजातियों को भोजन के रूप में प्रयोग लाया गया है। लेकिन अब 90 फीसदी विश्व में भोजन के लिए केवल 50 फसलों को ही प्रयोग में लाया जाता है। भोजन के लिए केवल कुछ फसलों पर निर्भरता से पोषणयुक्त खाद्यानों की विविधता कम होती जा रही है। जिसे जैव विविधता एक्ट और सतत खाद्य प्रणाली के माध्यम से पुनः पुनर्जीवित किया जाएगा।

उन्होंने बताया कि अभी तक देश में 2,76,690 जैव विविधता प्रबंधन समितियों का गठन किया गया है। यह समितियां पंचायत स्तर में पंचायत बायोडायवर्सिटी रजिस्टर को तैयार कर रही हैं। जिससे जैव विविधता को संजोए रखने में मदद मिलेगी।

डायलॉग के दौरान हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर के कार्यकारी निदेशक जीवी रामाजनेयुलू ने कृषि और आजीविका के बारे में जानकारी दी। उन्होंने कहा कि वर्तमान में मोनोकल्चर कृषि के लिए खतरनाक है। जलवायु परिवर्तन की वजह से कृषि क्षेत्र में अनिश्चितता की स्थिति बढ़ गई है। सतत खाद्य प्रणाली के लिए किसान, गांव, पंचायत, जिला और राज्य स्तर पर काम करने की जरूरत है। किसानों की आय को बढ़ाने के लिए ग्रामीण उद्यमिता को बढाने के साथ ग्रामीण स्तर पर एफपीओ को बढ़ावा देने और कृषि आधारित स्टार्टअप को बढ़ावा देना चाहिए।

भारत सरकार के कृषि मंत्रालय में सचिव रह चुके टी नंदा कुमार ने कहा कि हमारे मुकाबले कनाडा, चीन समेत कई देशों मे उत्पादन कई गुणा अधिक है। इसलिए हमें अपनी उत्पादकता को पोषकता को बनाए रखते हुए बढ़ाने का दबाव है। हमें हरित क्रांति के मॉडल से उपर उठकर अब पोषण तत्वो से भरपुर खाद्यान को अधिक उत्पादन पाने के लिए नई तकनीकों को प्रयोग में लाना चाहिए।

इक्रीसेट के कंटी रिलेशन के निदेशक अरबिंदा के पाधी ने पोषकता और कृषि विविधता के बीच में सबंध के बारे में जानकारी दी। उन्होंने कहा कि रसायनों के अंधाधुंध प्रयोग, जलवायु परिवर्तन, कृषि के अप्राकृतिक तरीकों, एकल फसलीय प्रणाली की वजह से खाद्यानों में पोषकता की कमी आई है। इसके लिए प्राकृतिक खेती और पर्यावरण हितैषी खादों, उच्च उत्पादन वाले पुराने बीजों और बेहतर कृषि के लिए शोधकार्य को बढ़ाना चाहिए। 

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