केंद्र में गठबंधन की नई सरकार ने कामकाज शुरू कर दिया है। इस सरकार की नीतियां और उनका तय किया गया रास्ता हमारा भविष्य तय करेगा। इस नई सरकार से देश को आखिर किन वास्तविक मुद्दों पर ठोस काम की उम्मीद करनी चाहिए ? लेकिन ये उम्मीदें क्या होनी चाहिए, डाउन टू अर्थ अलग-अलग विशेषज्ञों द्वारा लिखे गए लेखों की कड़ियों को प्रकाशित कर रहा है।
पिछले अप्रैल-मई महीने में हांगकांग, सिंगापुर और नेपाल ने भारत से कुछ मसालों के आयात पर रोक लगा दी थी। इन मसालों में इथिलीन ऑक्साइड नाम का एक खतरनाक रसायन पाया गया था, जिसका इस्तेमाल कीटनाशक के रूप में किया जाता है। यह रोक उस वक्त लगी जब भारत की खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने मसालों और जड़ी बूटियों में इस्तेमाल किए जाने वाले कुछ बिना रजिस्ट्रेशन वाले कीटनाशकों की मात्रा को 10 गुना तक बढ़ा दी थी। इस फैसले की काफी आलोचना हुई थी। समस्या यह है कि भारत में कीटनाशकों के इस्तेमाल को नियंत्रित करने के लिए अभी तक कोई कारगर प्रणाली नहीं बनाई जा सकी है।
केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के अधीन आने वाला केंद्रीय कीटनाशक बोर्ड और पंजीकरण समिति (सीआईबीआरसी) कीटनाशकों के रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया तो बनाता है, लेकिन कई बार बिना रजिस्ट्रेशन वाले कीटनाशकों के लिए एक सीमा तय कर दी जाती है। इसका मतलब है कि ऐसे कई कीटनाशक जिनको मसालों या सब्जियों पर इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं है (क्योंकि इनके बारे में पूरी जानकारी नहीं है कि ये कितने सुरक्षित हैं), उनका इस्तेमाल फिर भी किया जा सकता है। यह गलत है।
भारत में खाने की चीजों की नियमित जांच बहुत कम होती है और जांच के नतीजे भी सार्वजनिक नहीं किए जाते हैं। इसलिए ऐसे कीटनाशकों के इस्तेमाल पर रोक लगाना मुश्किल हो जाता है। इस पर और भी चिंता इसलिए बढ़ जाती है क्योंकि एफएसएसएआई ने इन कीटनाशकों की मात्रा को 10 गुना तक बढ़ा दी है। यह सब ऐसे मसालों के लिए किया जा रहा है जो भारतीय खाने का एक अहम हिस्सा हैं।
अगर नई सरकार इस समस्या पर ध्यान देती है, तो यह खाद्य प्रणाली में कीटनाशकों के गलत इस्तेमाल को रोकने का एक सुनहरा अवसर हो सकता है। इससे एक तरफ किसानों की आय और व्यापार सुरक्षित रहेंगे, वहीं दूसरी तरफ उपभोक्ताओं को खतरनाक कीटनाशकों से होने वाले नुकसान से भी बचाया जा सकेगा।
इसका मतलब है कि हमारे खाद्य कानून किसी भी फसल पर ऐसे कीटनाशक के इस्तेमाल की अनुमति नहीं दें, जिसके लिए उसे मंजूरी नहीं दी गई है। साथ ही, किसी भी फसल पर किसी खास कीटनाशक की अधिकतम मात्रा भी तय की जानी चाहिए। यह मात्रा उस कीटनाशक को रोजाना कितनी मात्रा में शरीर में लेना सुरक्षित है यानी एक्सटेबल डेली इनटेक (एडीआई) के आधार पर तय होनी चाहिए। कृषि विस्तार सेवाओं को किसानों की मदद करनी चाहिए ताकि वे कीटनाशकों का कम से कम इस्तेमाल करें और कंपनियों के ऐसे तरीकों को रोका जा सके जो जरूरत से ज्यादा कीटनाशक इस्तेमाल करने के लिए किसानों को प्रेरित करती हैं।
इस समस्या का समाधान टिकाऊ कृषि अपनाने में है, जिससे कीटनाशकों के इस्तेमाल को धीरे-धीरे कम किया जा सके। यानी सबसे जरूरी है ऐसी तकनीकें अपनाना जिनसे कीटनाशों का इस्तेमाल कम हो सके। केंद्र और राज्य सरकारों की ये जिम्मेदारी है कि वे ऐसी खेती को अपनाने और बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाएं, जो पर्यावरण के अनुकूल हो, समग्र हो। उन्हें प्राकृतिक खेती या जैविक खेती जैसे तरीकों को अपनाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित करना चाहिए और उन्हें इन तरीकों को अपनाने में आर्थिक मदद भी दी जानी चाहिए। इस काम में सबसे अहम है किसानों को ऐसे बाजारों से जोड़ना जहां वे अपना उपज सही दाम पर बेच सकें। अभी भारत में केवल 5 प्रतिशत खेतों में ही जैविक या प्राकृतिक खेती होती है। भारत इस मामले में बहुत तेजी से तरक्की कर सकता है।
हमें खेती के तरीकों को जलवायु के अनुकूल बनाने और प्राकृतिक आपदाओं से बचाने के लिए और सख्त कदम उठाने की जरूरत है। अब अचानक होने वाली खराब मौसम की घटनाएं बहुत ज्यादा बढ़ गई हैं, ऐसे में किसानों को इनसे बचाना बहुत जरूरी है। इस मामले में भी पारिस्थितिकी कृषि (एग्रो-इकोलॉजी) के तरीके कई फायदे देते हैं, इसलिए इन तरीकों को अपनाने के लिए बजट में ज्यादा पैसा देना चाहिए।
अगर हम खेतों में रासायनिक दवाओं का कम इस्तेमाल करेंगे, तो मिट्टी की सेहत अच्छी रहेगी, पानी और बिजली की बचत होगी। साथ ही, फसल उगाने का खर्च कम होगा और बाजार पर निर्भरता भी कम होगी। इसके साथ ही फसल की पैदावार बनी रहेगी या बढ़ भी सकती है और किसानों की कमाई भी ज्यादा हो सकती है। अगर खेतों में रासायनिक खाद का कम इस्तेमाल होगा, तो इससे खेतों से और खेतों के आसपास होने वाले प्रदूषण को कम करने में मदद मिलेगी। साथ ही, सरकार को खाद पर मिलने वाली सब्सिडी का बोझ भी कम होगा। इस तरह से बची हुई रकम को पारिस्थितिकी कृषि को बढ़ावा देने में लगाया जा सकता है।
हमें ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन कम करने के लिए खासतौर पर धान की खेती और डेयरी क्षेत्र पर ध्यान देना होगा। धान की खेती में सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि सरकार सिंचाई प्रबंधन के तरीकों, जैसे कि खेत में पानी लगाना और सुखाना (अल्टरनेट वेटिंग एंड ड्राइंग) के साथ-साथ जितना अधिक संभव हो सके उतना अधिक आर्गेनिक खेती के तरीकों को बड़े पैमाने पर लागू करने में कितनी सफल होती है। डेयरी क्षेत्र में सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि सरकार पशुओं की उत्पादकता, ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन और प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के बीच कैसे संतुलन बना पाती है। इसके लिए देसी नस्ल के पशुओं को बढ़ावा देना और पशुओं के चारे में पोषण पर ध्यान देना जरूरी है।
भारत के लिए सोच-समझकर और चरणबद्ध तरीके से बदलाव लाना ज्यादा फायदेमंद होगा। ऐसे तरीके अपनाने चाहिए जिनसे ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन कम हो और साथ ही साथ दूसरे फायदे भी मिलें। अगर किसानों को ध्यान में रखकर, आसान और कम खर्चीले तरीके अपनाए जाएं और उन्हें इन तरीकों को अपनाने के लिए प्रोत्साहन दिया जाए, तो जलवायु परिवर्तन को कम करने में सफलता मिल सकती है। भारत को जलवायु परिवर्तन से बचने के उपायों को अपनाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि ये उपाय पर्यावरण के अनुकूल खेती के साथ मिलकर काम करें।
अस्वास्थ्यकर भोजन
जब मसालों में हानिकारक रसायन पाए जाने की खबरें आईं, उसी समय विदेशी कंपनियों के बेबी फूड को लेकर भी एक खबर आई। इस खबर के मुताबिक, भारत में बेचे जा रहे पॉपुलर बेबी फूड में चीनी की मात्रा विदेशों में बेचे जा रहे उसी कंपनी के बेबी फूड से कहीं ज्यादा थी। विदेशी कंपनियां ऐसे दोहरे मापदंड इसलिए अपना पाती हैं क्योंकि हमारे देश में खाने के पदार्थों के नियम बहुत कमजोर हैं। इन कमजोर नियमों के कारण बच्चों को पोषण की कितनी जरूरत है, इसका ध्यान नहीं रखा जाता है। ज्यादा मात्रा में चीनी मिलाने के कारण कई लोग बेबी फूड को पहला जंक फूड मानते हैं।
इससे पहले भी एक तथाकथित हेल्थ ड्रिंक में चीनी की मात्रा ज्यादा होने की खबर पर काफी हंगामा हुआ था। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि पैकेटबंद खाने के विज्ञापन और उन पर लिखी जानकारी के नियमों में खामियां होती हैं। इन खामियों के कारण ऐसी ड्रिंक्स को विटामिन और मिनरल्स की वजह से हेल्दी बताया जा सकता है, जबकि इनमें चीनी जैसी स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाली चीजें भी होती हैं। पैकेटबंद खाने पर लिखी पोषण संबंधी जानकारी बताने से ज्यादा छिपाती है और उपभोक्ताओं को गुमराह करती है।
अगर नई सरकार गैर-संक्रामक रोगों (जैसे कि मधुमेह, हृदय रोग) को रोकने के लिए गंभीर है, तो उसे पैकेट के सामने साफ और आसानी से समझ में आने वाली जानकारी लिखने का कानून लाना चाहिए। इससे उपभोक्ताओं को सही चीज चुनने में मदद मिलेगी और खाने की कंपनियां कम चीनी, नमक या फैट का इस्तेमाल करने के लिए बाध्य होंगी। इसके अलावा, भारत को ऐसे पैकेटबंद खाने के विज्ञापन और मार्केटिंग को रोकने के लिए एक रूपरेखा की जरूरत है। अगर स्पोर्ट्स और फिल्मों के कलाकार ऐसे खाने का विज्ञापन करते रहेंगे और हर तरह के मीडिया में इनके विज्ञापन दिखाए जाते रहेंगे, तो बच्चों में स्वस्थ खाने की आदतें डालना नामुमकिन हो जाएगा।
एंटीबायोटिक दवाओं का कम असर होना एक बड़ा खतरा
एंटीबायोटिक दवाएं अब कम असर कर रही हैं क्योंकि बैक्टीरिया इन दवाओं के प्रति प्रतिरोधी बनते जा रहे हैं। इसे एंटीमाइक्रोबियल रेसिस्टेंस (एएमआर) कहते हैं। इसे एक खतरनाक खामोश महामारी समझा जाता है। अध्ययनों के अनुसार एंटीबायोटिक दवाओं का गलत इस्तेमाल और ज्यादा इस्तेमाल करना इस समस्या का मुख्य कारण है। इस वजह से साल 2050 तक दुनिया भर में हर साल 5 करोड़ लोगों की मौत हो सकती है।
भारत सहित ज्यादातर देश अपने राष्ट्रीय एएमआर कार्य योजना को अगले पांच सालों के लिए संशोधित कर रहे हैं। पिछले पांच सालों की कार्य योजना को सीमित सफलता ही मिली थी। अब सबसे जरूरी है कि केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर डेयरी, मुर्गी पालन और मछली पालन में इस्तेमाल होने वाली एंटीबायोटिक दवाओं को कम करने के लिए सख्त कदम उठाएं।
हमें जानवरों को तेजी से बढ़ाने के लिए और बीमारी को कथित तौर पर रोकने के लिए एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल पूरी तरह से बंद कर देना चाहिए। खेतों में इस्तेमाल होने वाले चारे और एंटीबायोटिक दवाओं की बिक्री को सख्त नियमों के तहत लाना जरूरी है। हमें पशुओं के इलाज के लिए भी मानक दिशानिर्देशों की जरूरत है। अस्पतालों और आईसीयू में इंसानों के इलाज के लिए इस्तेमाल होने वाली एंटीबायोटिक दवाओं को जानवरों के फार्मों में इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।
इस समस्या से निपटने के लिए कई विभागों को मिलकर काम करना होगा और समग्र रणनीति अपनानी होगी। साथ ही, एंटीबायोटिक दवाओं के विकल्पों को भी बढ़ावा देना होगा। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड ने पारंपरिक जड़ी-बूटियों (एथनोवेटनरी दवाओं) का इस्तेमाल कर जो काम किया है, उसे डेयरी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर लागू किया जा सकता है। इसी तरह के प्रयासों को दूसरे क्षेत्रों में भी अपनाया जा सकता है और उन्हें प्रोत्साहित किया जा सकता है।
हमें यह समझने, इस पर निवेश करने और ऐसे तरीकों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है जिनसे खेतों में जैव सुरक्षा बनी रहे और जरूरी टीकाकरण हो। साथ ही, पशुओं को पालने और रखने की स्थिति को बेहतर बनाना होगा। इससे खेतों में बीमारियां कम फैलेंगी और एंटीबायोटिक दवाओं की जरूरत भी कम होगी। इसके लिए बेहतर जांच और पशु चिकित्सा सेवाओं की भी जरूरत है।
हमें यह आंकड़ा सार्वजनिक करना चाहिए कि पशुओं के भोजन के उत्पादन में कितनी एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल होता है। साथ ही, यह भी बताना चाहिए कि पशुओं और मछलियों से मिलने वाले खाने में किस हद तक और किस तरह के प्रतिरोधी बैक्टीरिया और एंटीबायोटिक दवाओं के अवशेष पाए जाते हैं। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) के 2018 के दूध सर्वेक्षण में कई तरह की एंटीबायोटिक दवाओं के अवशेष पाए गए थे। इसी तरह, 2014 में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट, दिल्ली ने चिकन के मांस में एंटीबायोटिक दवाओं के अवशेष पाए थे। 2010 में, इस संस्था ने शहद में भी एंटीबायोटिक दवाओं के अवशेष पाए थे।
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एक्शन प्वॉइंट्स
कीटनाशकों का इस्तेमाल कम से कम हो। फसलों पर इस्तेमाल होने वाले कीटनाशकों की अधिकतम मात्रा तय करनी चाहिए।
खाने में कीटनाशकों के बचे हुए अंशों की नियमित जांच करनी चाहिए। किसानों को कीटनाशकों के संपर्क से बचाने के लिए उपाय करने चाहिए।
प्राकृतिक खेती को बढ़ावा दिया जाए। सरकार की मदद से प्राकृतिक या जैविक खेती को बड़े पैमाने पर अपनाना चाहिए।
जलवायु के अनुकूल खेती के तरीकों को अपनाने के लिए किसानों को प्रोत्साहित करना चाहिए। इसके लिए खास कदम उठाने की जरूरत।
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एक्शन प्वॉइंट्स
खाने के सामानों के पैकेट के सामने साफ और आसानी से समझ में आने वाली जानकारी देना जरूरी है। इससे खाने की कंपनियां कम चीनी, नमक या फैट का इस्तेमाल करेंगी।
पैकेटबंद खाने के विज्ञापन पर रोक। पैकेटबंद खाने, खासकर ज्यादा प्रोसेस्ड खाने के विज्ञापन और फिल्मी सितारों के प्रचार को रोकने के लिए नियम बनाने चाहिए।
पशुओं में एंटीबायोटिक दवाओं का कम इस्तेमाल हो। जानवरों को तेजी से बढ़ाने के लिए या बीमारी को रोकने के लिए एंटीबायोटिक दवाओं का इस्तेमाल पूरी तरह से बंद करना चाहिए। अस्पतालों में मनुष्यों के इलाज के लिए ज़रूरी एंटीबायोटिक दवाओं को पशुओं के फार्मों में इस्तेमाल नहीं करना चाहिए।