भोजन की बाइनरी में धंसी-फंसी दुनिया

भोजन की बाइनरी में धंसी-फंसी दुनिया

हर्बर्ट मार्क्यूज के शब्दों में कहें तो फॉल्स नीड्स पर पूरा समाज जीने का प्रयास कर रहा है।
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कुछ हिंसा अप्रत्यक्ष होती है, और कुछ क्रूरता मानव मुक्ति के नाम पर की जाती है। ऐसे में सवाल जटिल है- ‘शाकाहारी होना बेहतर होगा या मांसाहारी’? इलाहाबाद विश्विद्यालय के पर्यावरणीय समाजशास्त्र के छात्र जब कभी ऐसे सवालों के साथ मेरे सामने आते हैं तो मैं कोई ठोस जवाब नहीं दे पाता। यह कठिन स्थिति होती है। और खासकर तब जब आधुनिक दुनिया में ‘वीगन’ जैसे अनगिनत आन्दोलनों के माध्यम से डेयरी उद्दोग के भीतर भी मौजूद भयानक अमानवीयताओं और हिंसा का जोरदार विरोध किया जा रहा है। इसलिए ये दावा करना कि हमारा शाकाहार जानवरों के प्रति हिंसा को रोक सकता है, या फिर यह पर्यावरणीय दृष्टिकोण से बेहतर होगा, एक भ्रान्ति मात्र से अधिक कुछ नहीं है। इस प्रकार के ‘बाइनरी’ के आधार पर दुनिया की भोजन शैली का मूल्याङ्कन किया जाना अव्यवहारिक भी है, और अतार्किक भी। आधुनिक दुनिया में हिंसा की संस्कृति ही विकसित की गई है- चाहे आप शाकाहारी हो या मांसाहारी, हिंसक प्रक्रियाओं के आप प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हिस्सा होते हैं। हिंसा इस सभ्यता में विधानसम्मत भी है और संस्थागत भी। यह ध्यान रहे कि इस प्रकार की हिंसा और अमानवीयता दुनिया के लगातार पूंजी केन्द्रित होने के कारण हुई। पूंजी की केन्द्रिकता ने जीवन के अन्य तमाम पक्षों के संतुलन को बिगाड़ दिया। संतुलन के बिगड़ने से दुनिया ‘बाइनरी’ में जाकर जीवन के अर्थ को तलाशने लगी।  

पारम्परिक आहार तंत्र में जहाँ एक तरफ शाकाहार आधुनिक डेयरी उद्दोग की हिंसा से अपरिचित थी, तो दूसरी तरफ मांसाहार भी जीवन के पुनरुत्पादन (रिप्रोडक्शन) को ध्यान में रखकर ही किया जाता था; जैसे, आमतौर पर दुनिया के पारंपरिक समाजों में मादा जीवों को खाने का प्रचलन नहीं था, या फिर ऐसे जीव जिनकी संख्या कम होती थी उनके संरक्षण पर ध्यान दिया जाता था। वे जीवन को दुबारा पैदा करनेवाले जीवों को नहीं खाते थे, या फिर खाने से परहेज करते थे। भोजन उत्पादन भी भूख मिटाने के लिए किया जाता था न कि मुनाफे के लिए। आधुनिक पूंजीवाद ने लगातार एक ऐसी दुनिया को रचा-गढ़ा जिसमें जीवन की पुनरुत्पादकता के लिए स्पेस का अभाव है। जीवन को दुबारा जन्म देने वाले ही मार दिए जा रहें। उत्पादन जीने के लिए नहीं बल्कि लाभ और लालच के लिए व्यापक स्तर पर किया जाने लगा। उत्पादन (प्रोडक्शन) और पुनरुत्पादन (रिप्रोडक्शन) के भेद को समझे बिना सभी तरह के जीवों का व्यवस्थित और संस्थागत संहार किया जा रहा। शाकाहार से प्रेरित वैश्विक डेयरी उद्दोग ने नर जीवों के अस्तित्व को नजरंदाज किया या फिर उसे मांस उत्पादन के कारोबार का एक हिस्सा बना डाला, तो मांसाहार से प्रभावित भोजन शैली ने नर और मादा में भेद किये बिना, जीवों की दुर्लभता और सुलभता आदि को देखे बिना, इसे अपना आहार बनाया। दोनों ने ही सामान रूप से प्रकृति और इसके चक्र को बाधित किया। साथ ही दोनों ने ही दुनिया में मानवीय स्वास्थ्य से सम्बंधित अनगिनत समस्याओं को भी जन्म दिया। बाजारवादी सभ्यता की ऐसी प्रवृति ने जीवन के हर पक्ष को हिंसक और आक्रामक बनाया- चाहे यह रोजगार हो या रोटी, दर्शन हो या व्यवहार। यहाँ हम सरसरी तौर पर इन दोनों प्रकार के आहार में उपस्थित अमानवीयता और अप्राकृतिक संरचना को समझ सकते हैं।

शाकाहारी हिंसा: सत्तर के दशक की श्वेत क्रांति के बाद से भारत में बड़े पैमाने पर अधिक दूध और इससे जुड़े उत्पाद के लालच में मवेशियों को अप्राकृतिक रूप से गर्भधारण कराया जाने लगा। और ये गर्भधारण बलपूर्वक किये जाते रहें। तब से यह परंपरा तेजी से विकसित हुई। इसके लिए जो ये क्रॉस ब्रीडिंग करते हैं वे मवेशियों के लिए यातना से भरी होती है जिससे उनमें कई तरह की बीमारियाँ पैदा होती है, जैसे पल्विक फ्रैक्चर, सीवियर नर्व डैमेज आदि अनेक। इसी तरह अधिक दूध उत्पादन के लिए ऐसे पशु-आहारों और तकनीकों का प्रयोग किया जा रहा है जो पशुओं को बीमार कर रहा है, और इसके सेवन करने वाले भी बीमारियों के शिकार हो रहें हैं। आमतौर पर डेयरी उद्दोग, छोटे हों या बड़े, उसमें नर जीवों का कोई खास महत्त्व नहीं होता, क्योंकि क्रासिंग से पैदा हुए पशु खेती या अन्य कार्यों के लिए भी उपयुक्त नहीं माने जाते, इसलिए वे अनिवार्य तौर पर मांस उत्पादन से जुड़े केन्द्रों को बेच दिए जाते हैं। इसके अलावा जो मादा पशु हैं उन्हें भी तब त्याग दिया जाता है जब वे दूध देना बंद कर देती है। एक अनुमान के अनुसार भारत में करीब पचास लाख से अधिक गायें सड़कों पर छोड़ दी गई हैं, जो कचडों पर किसी तरह जी रही होती है। पूरी दुनिया में डेयरी उद्दोग पर नजर डालने पर साफ़ दिखता है कि यह उतना ही हिंसक है जितना मांस से जुड़े हुए उद्दोग। अप्राकृतिक जन्म से लेकर जीवों को अप्राकृतिक मौतें देना सामान्य हो चली हैं, और यह सब होता है शाकाहार और सात्विकता से जुड़े आहार के नाम पर। इसमें पर्यावरण के सामान्य प्राकृतिक मूल्यों के लिए भी जगह नहीं होती। इसकी हिंसा थोड़ी अप्रत्यक्ष होती है जो आमतौर पर सीधे नहीं नजर आती। कुछ साल पहले अंग्रेजी में एक सिनेमा आई थी- ‘ब्लड डायमंड’, जिसमें एक जगह संवाद कुछ इस तरह था कि ‘प्रेम के प्रतीक के रूप में पहनाये जाने वाले हीरे की अंगूठी के उत्पादन के पीछे होने वाले क्रूर नरसंहार को लोग नहीं जानते’। आधुनिक सभ्यता में यह संवाद डेयरी उद्दोग और अन्य शाकाहार से जुड़े आहार प्रणालियों पर भी लागू है।    

मांसाहारी हिंसा: इस उद्दोग के लिए स्पष्ट तौर पर जीवों का महत्व मनुष्यों के स्वाद, आहार और अधिकतम मुनाफे से जुड़ा है। घरेलू और पारंपरिक उत्पादन प्रणाली को छोड़ दें तो इसका पुनरुत्पादन के सिधान्तों से कोई सरोकार नहीं होता। दुनिया के मांस बाजार में उन सब जीवों को काटा और परोसा जाता है जो अबतक पारंपरिक रूप से नहीं खाए जाते थे, जैसा कि ऊपर मादा मांस, और दुर्लभ जीव के निषेध के सन्दर्भ में दिया गया है। दुनिया के बुचरखाने आधुनिक ‘तार्किक’ मूल्यों के आधार पर चलायें जा रहें हैं जिसका अपना एक आर्थिक और व्यवसायिक मकसद होता है। इसमें भी जीवों को अप्राकृतिक और यातनापूर्ण जीवन के साथ एक दर्दनाक मौत दी जाती हैं। और यह सब पिंक क्रांति और ऐसे ही अन्य आर्थिक विचारों से मिली प्रेरणाओं के भी परिणाम हैं।  

ऐसे में जब पर्यावरणीय मूल्यों और विचारों की उपेक्षा पर टिके शाकाहार और मांसाहार दोनों का ही एक वैश्विक कारोबार है तो सवाल उठता है कि आखिर आहार के नाम पर जीव हिंसा को किस रूप में देखा जाए! मैं समझता हूँ इसे कम से कम दो सन्दर्भों में विचार किया जा सकता है, क्योंकि निश्चित रूप से जीवों की हत्या अगर किन्हीं परिस्थितियों में की ही जानी हो तो वह हमेशा एक अंतिम विकल्प होना चाहिए, और स्वाद के रूप में तो नहीं ही होना चाहिए। स्वाद के रूप में जीव हिंसा अमानवीयता की चरम स्थिति है। पहला, सांस्कृतिक मूल्यों के सन्दर्भ में- यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि दुनिया के किसी संस्कृति में यह प्रचलित है तो आधुनिक सभ्यता के बरक्स उसमें एक संतुलन भी है। जैसा कि इसे हम एक छोटे से उदाहरण से समझ सकते हैं- उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में कुछ खास महीनों के अलावा मछलियाँ नहीं खाई जाती, क्योंकि अपनी परंपरागत समझ से वे जानते हैं कि इस अवधि में मछलियाँ प्रजनन जैसी प्रक्रियाओं में होती हैं। ऐतिहासिक रूप से धारणीयता (सस्टेनेबिलिटी) का दर्शन उनमें मौजूद होता है। उनका मानना है कि अभी अगर मछलियाँ खाई गई तो फिर आगे मछलियों का अभाव हो सकता है। यह दुनिया की कमोबेश सभी संस्कृतियों में हैं, और जो संस्कृति जितनी पुरानी होगी उसकी यह समझ उतनी ही विकसित मिलने की सम्भावना अधिक होगी, जैसे जनजातियों में सतत विकास का दर्शन आमतौर पर अधिक प्रतीत होता है।  

और दूसरा, पर्यावरणीय मूल्यों के सन्दर्भ में- ऐसे विषयों पर विचार करते समय स्थानीय पर्यावरणीय जरूरतों के सन्दर्भ में भी विचार किया जाना चाहिए। और देखा जाना चाहिए कि उस क्षेत्र विशेष में किस प्रकार की भोज्य सामग्री उपलब्ध है। और साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए कि यह जीवन चक्र और सतत विकास की अवधारणा से कितनी युक्त है।  

लेकिन दुर्भाग्य से ऐसे किसी भी तरीके के बदले हम इन विषयों पर बाजारू प्रभावों में आकर विचार करते हैं- जिसे हर्बर्ट मार्क्यूज के शब्दों में कहें तो ‘फॉल्स नीड्स’ पर पूरा समाज  जीने का प्रयास कर रहा है। वैश्विक बाजार ने अपनी संवेदनहीनता को समाज की आत्मा में आरोपित कर दिया है, इसलिए भोजन से जुड़े उत्पादों में भी हम निर्मम और गैर-पर्यावरणीय तरीकों से सोचते हैं। स्वाद, हिंसा, बाजार, मुनाफा जैसी सोच ही मुखर है। भोजन केवल चॉइस और टेस्ट का सब्जेक्ट नहीं है, यह मानवीय सभ्यता सहित अन्य जीवों के अस्तित्व का भी सवाल होना चाहिए। हम जो भी खा रहें हैं वह पर्यावरणीय और मानवीय मूल्यों की कसौटी पर कसा जाना चाहिए। दुनिया तब सच में समृद्ध और सुन्दर मानी जायेगी जब धरती पर इतने अनाज उगेंगे, पेड़ों में इतने फल लगेंगे कि भूख मिटाने के लिए पक्षियों और जानवरों का कत्लेआम नहीं किया जाएगा।    

 ( ब्लॉग में लिखे गए विचार लेखक के निजी विचार हैं।)

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