वरिष्ठ कथाकार, कवि और फिल्मकार उदय प्रकाश हिंदी के उन चुनिंदा रचनाकारों में अग्रिम पंक्ति में खड़े दिखाई देते हैं जो अपनी कलम के माध्यम से सत्ता और अन्याय के खिलाफ खड़े नजर आते हैं। उनकी सबसे चर्चित कहानी मोहनदास व्यवस्था से हारे दलित युवक के संघर्ष की कहानी है। न्याय के लिए लड़ता और भटकता मोहनदास अंतत: इतना टूट जाता है कि वह अपना अस्तित्व ही नकार देता है। ऐसे समय में जब शोषण और भेदभाव के खिलाफ दलित मुखर हो रहे हैं, तब मोहनदास कहानी और प्रासंगिक हो उठती है। मोहनदास के लिए आज के हालात पर उदय प्रकाश ने भागीरथ से बातचीत की
पहली बार मोहनदास 2005 में हंस में प्रकाशित हुई थी। तब से अब तक मोहनदास के लिए परिस्थितियों सुधरी हैं या बदतर हुई हैं?
मोहनदास के समय में आधार कार्ड नहीं आया था। मोहनदास बहुत ही प्रतिभाशाली छात्र है लेकिन वह दलित और वंचित तबके का है। अपने समुदाय में वह पहला युवक है जो स्नातक करता है। वह मेरिट में टॉपर है। सबको लगता है उसे नौकरी जरूर मिल जाएगी। लेकिन उसे नौकरी नहीं मिलती। उसे पता चलता है कि कोई उसकी पहचान पर उसकी जगह पर नौकरी कर रहा है। अब उसे साबित करना है कि उसकी जगह नौकरी कर रहा शख्स नकली आदमी है, असली मोहनदास वह है। मोहनदास की पूरी कहानी असली और नकली के बीच संघर्ष पर है। गांधीजी ने कहा था कि हम कोई भी नीति बनाएं, उसमें यह देखें कि अंतिम पायदान पर खड़े आदमी के आंसू पोंछ पा रहे हैं या नहीं। यानी उस तक न्याय पहुंचा सकते हैं या नहीं।
मोहनदास इस नीति का लिटमस टेस्ट है। देखिए, बहुत सारी विचारधाराएं होती हैं, बहुत सारे राजनीतिक घोषणापत्र होते हैं, बहुत सारे धर्म, सिद्धांत होते हैं लेकिन मनुष्य की न्याय पाने की आकांक्षा सबसे बड़ी होती है। न्याय की आकांक्षा अमर है। कोई सिद्धांत अमर नहीं होता। वे कुछ समय तक रहते हैं फिर चले जाते हैं। उन पर बहस शुरू होती है। ये सिद्धांत और विचारधाराएं वो चीज नहीं कर पाते जिसका वादा किया था। कितने गणराज्यों, यूटोपिया और रामराज्य का स्वप्न दिखाया गया लेकिन कोई पूरा नहीं हुआ।
आज इतने कम समय में हम यह नहीं कह सकते कि स्थितियां बेहतर हुई हैं या बदतर। मुझे लगता है कि शायद बुरा ही हुआ है। पहले आधार में फिंगर प्रिंट और रेटिना इमेजेस नहीं थे, फोटोग्राफ भी बड़ी मुश्किल से हुआ करते थे। अब इतना सब कुछ होने के बाद होना यह चाहिए कि हर व्यक्ति के पास अपनी पहचान हो लेकिन अब तो पांच सौ रुपये देकर दस मिनट में पहचान चुराई जा सकती है। कुछ भी ऐसा अभेद्य नहीं है जो मनुष्य और नागरिक को उसकी अस्मिता सुरक्षित रखने की गारंटी दे। न्याय तो तब मिलेगा जब वह सबके लिए हो। लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। न्याय की पूरी प्रक्रिया एक कमोडिटी है। यह मोहनदास में भी है। इतनी महंगी न्याय व्यवस्था में गरीबों को कहां से न्याय मिलेगा? चार स्तंभों में न्यायपालिका एक स्तंभ थी लेकिन अब हर स्तंभ तोड़ा जा रहा है। जजों के ऊपर भी भ्रष्टाचार से लेकर नियुक्तियों तक के आरोप हैं। हमने लोकतंत्र और पूरा ढांचा आयात तो कर लिया है लेकिन न्याय के पीछे जो मानसिकता काम करती है वह विधिनांगों की है। उसी के आधार पर फैसले दिए जाते हैं। अमीर आदमी के विरुद्ध गरीब को न्याय मिलेगा, यह बहुत मुश्किल हो गया है।
मोहनदास एक डरे, हारे और पग-पग वंचित युवक की कहानी है। क्या युवकों की यही नियति है या उम्मीद की कोई किरण नजर आती है?
न्याय की उम्मीद तो है। मोहनदास का अंत बड़ा निराशावादी जरूर है और बहुत से लोगों ने इसकी आलोचना भी की है। लेकिन निराशा अगर रचना में होती है तो वह आशा पैदा करती है। अगर आपने उसे रचना में विजयी होता हुआ दिखा दिया, जैसा बॉलिवुड फिल्में करती हैं तो आप बस ताली बजाकर चले जाएंगे। अच्छा स्वप्न दिखाकर उसे वहीं खत्म कर देना आसान है। उससे बेहतर है आप दिमाग में यह भर दें कि अब भी कुछ नहीं करोगे तो मोहनदास बन जाओगे। अच्छा सपना दिखाने की अपेक्षा आशा की उम्मीद बरकरार रखना जरूरी है। निराशा लोगों को कोंचती है। मोहनदास का अंत ऐसी ही उम्मीद जगाता है। जीत की आकांक्षा पैदा करने वाली हार ज्यादा बेहतर है।
देखिए, यह ऐसा समय है जब झूठ, अज्ञान और अंधविश्वास फैलाया जा चुका है। यह समय धुर दक्षिणपंथ का भूमंडलीय आक्रमण का है, ट्रंप से लेकर यहां तक। जातीय, सांप्रदायिक और नस्लभेदी ताकतों के संगठित होने का यह माकूल समय है। तीसरा कारपोरेट लूट का यह सबसे बड़ा समय है। लूट का सबसे बड़ा तंत्र बैंकिंग सिस्टम है। हम जिसे अपनी संप्रभुता सौंप रहे हैं, वह बिक रहा है, धोखा दे रहा है। अराजकता और दमन का यह बहुत बड़ा दौर है। लेकिन हम लोग आशावादी बने रहते हैं क्योंकि हम स्वप्न नहीं देखेंगे तो जिएंगे कैसे। समय बहुत बदला नहीं है। राजनीति के जरिए परिवर्तन संभव दिखाई नहीं देता। जमीन से जब तक कोई बड़ा आंदोलन नहीं खड़ा होगा, तब तक चीजें नहीं बदलेंगी।
मोहनदास और कहानी के अन्य प्रमुख पात्र मोहनदास करमचंद गांधी और उसके परिवार से मेल खाते हैं। यह महज इत्तेफाक है या इसके पीछे कोई इशारा है?
मोहनदास की कहानी आज की कहानी है। यह कहानी 1930-32 की भी है। मोहनदास हमारे अपने समय में थे और हैं। उसके साथ वही सब कुछ हो रहा है जो 70-80 साल पहले हो रहा था। कुछ बदला नहीं है। जहां तक पात्रों का सवाल है तो गांधी कहीं न कहीं चेतना में जरूर थे। गांधी ऐसे आदमी थे जो हमेशा ही जेहन में रहते हैं। आज अगर गांधी होते तो वह सब उनके साथ भी हो रहा होता जो मोहनदास के साथ हो रहा है। आज एफआईआर गांधी पर दर्ज हो रही होती। गांधी आज देशद्रोही होते। गांधी होना आज बहुत मुश्किल है। जिस मानसिकता से उन्हें मारा गया था, जीती वही मानसिकता है।
साहित्य आजकल लिखा जा रहा है, उनमें पर्यावरण की चिंताएं भी शामिल हैं। मोहनदास भी पर्यावरण में सुकून तलाशता है। लेखकों का ध्यान अचानक पर्यावरण पर गया है या यह अब दिखाई दे रहा है?
चेतना में प्रकृति या पर्यावरण पहले से था लेकिन यह प्रेम के रूप में था। अरण्यक और कालीदास के काल से प्रकृति साहित्य में है। पहले पर्यावरण पर खतरे की कल्पना नहीं थी। रामायण के वाल्मीकी को डाकू कहते थे क्योंकि वह जंगल को कटने नहीं देता था। उसे जंगली कहा जाता था। पहले कृषि तंत्र और जंगलों के बीच टकराव की स्थिति थी। हमारा पूरा काव्य प्रकृति से भरपूर है लेकिन उसमें प्रकृति के विनाश का दृश्य नहीं है। यह अब आ रहा है और बहुत चिंता के रूप में आ रहा है। मोहनदास में भी यह है। इस पर तो बड़ा काम होना चाहिए, कोई बहुत बड़ा उपन्यास लिखा जाना चाहिए। मेरे गांव में भी यह विनाश देखा गया है।
वहां एक ट्यूबवेल बनाया जाता है तो पांच कुएं सूख जाते हैं। जो नदी पहले कभी खत्म नहीं होती थी, वो अप्रैल अंत तक आते आते सूख जाती है। नदी के ऊपर गांव के लोग ककड़ी और तरबूज उगाते हैं। नदी बहते हुए जहां पानी हुआ करता था वहां अब खेत बन गया है। हम लोग बहुत भयावह दौर में पहुंच गए हैं। इसका निदान है कि लोग वाटर हारवेस्टिंग की आदत डालें। यूरोप में तो खेती ही पानी की होती है। पानी की खेती से दूसरी खेतियां संभव होती हैं। हमारे यहां पानी की खेती का कोई विचार की नहीं है। कोई सरकार यह काम नहीं करती है। उसे सचमुच इसकी चिंता भी नहीं है। ये सरकारें अपने लिए होती हैं और अपना काम करती हैं। उन लोगों के लिए काम नहीं करती जिनको जरूरत होती है। उनको मारती जरूर हैं।
क्या मोहनदास की तरह आज भारतीय भाषाओं के लेखक भी डरे हुए हैं?
डर तो लगता ही है। अकेले और निहत्थे लेखक के साथ कब क्या हो जाए, यह कहा नहीं जा सकता। यह बहुत सिरफिरा वक्त है। गौरी लंकेश तर्कशील बातें करती थी। उससे कुछ लोग बहुत परेशान थे। उसने अपने कॉलम में झूठ की फैक्टरी का भंडाफोड़ किया था। यह बताया था कि कहां से अफवाहें फैलाई जाती हैं। उनके पास पांच लोग काम करते थे। वेतन देने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे। उन्होंने उनसे कहा था कि एक दो दिन रुक जाइए। उस दिन गौरी ने उन लोगों को सांभर और चावल बनाकर खिलाया था। वह लौटकर आईं तब उनकी कार बंद नहीं हुई थी, इसी बीच वे लोग आए और गोली मार दी। ऐसा किसी के भी साथ हो सकता है।