हिमालय में आए अब तक के सबसे तीव्र भूकंप के बारे में भारतीय भू-वैज्ञानिकों ने अहम खुलासा किया है। पूर्वी हिमालय के अगले हिस्से में वर्ष 1950 में आए 8.6 रिक्टर की तीव्रता वाले इस भूकंप को असम-तिब्बत भूकंप के नाम से जाना जाता है।
सतह पर इस भूकंप के स्पष्ट संकेत न होने के कारण पहले इसके विस्तार और प्रभाव के बारे में भू-वैज्ञानिकों को जानकारी नहीं थी। वैज्ञानिक समुदाय के बीच यह धारणा थी कि इस भूकंप के लिए जिम्मेदार भ्रंश सतह के भीतर हो सकते हैं। अध्ययन के बाद पहली बार इस भूकंप के कारण सतह पर दरार होने का पता चला है।
अध्ययन में यह भी स्पष्ट हुआ है कि इस भूकंप के कारण हिमालय के इस क्षेत्र में संचित तनाव आंशिक अथवा पूरी तरह से मुक्त हो गया है। इसके कारण वैज्ञानिकों का मानना है कि इस क्षेत्र में निकट भविष्य में किसी बड़े भूकंप की आशंका कम हो गई है। यह अध्ययन देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी और संस्थानों ने मिलकर किया है।
यूरेशियन और भारतीय भौगोलिक प्लेटों में निरंतर टकराव होने के कारण करीब 2500 किलोमीटर की लंबाई में फैले हिमालय में छोटे-बड़े भूकंप अक्सर आते रहते हैं। इन दोनों भौगोलिक प्लेटों के निरंतर टकराव से पैदा होने वाला तनाव संचित होता रहता है और इस ऊर्जा के प्रस्फुटन से भूकंपों का जन्म होता है। लेकिन हिमालय की जटिल बनावट के कारण इस क्षेत्र में होने वाली भौगोलिक हलचलों और उसके कारण पड़ने वाले प्रभाव की जानकारी भू-वैज्ञानिकों को आसानी से नहीं मिल पाती है।
अध्ययनकर्ताओं की टीम में शामिल डॉ आर जयनगोंडापेरूमल ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि ‘‘आमतौर पर भू-वैज्ञानिक यह आकलन करने में जुटे रहते हैं कि इस तरह के भूकंप भविष्य में हिमालय के किन क्षेत्रों में और कब आ सकते हैं। इसके लिए पूर्व भूकंपों, भौगोलिक हलचलों और उनके प्रभाव के बारे में जानकारी होना आवश्यक है। इस अध्ययन से मिली जानकारियों की मदद से भविष्य में हिमालय में होने वाली भौगोलिक उथल-पुथल के बारे में कई अन्य खुलासे भी हो सकते हैं।’’
अध्ययन की एक और खास बात यह है कि इसमें सीएस-137 आइसोटोप को डेटिंग के लिए उपयोग किया गया है। यह रेडियोधर्मी तत्व हिरोशिमा नागासाकी पर परमाणु हमले का एक सह-उत्पाद है। रेडियोकार्बन डेटिंग संभव न होने के कारण अध्ययन के दौरान पूर्वी हिमालय में पाए गए सीएस-137 आइसोटोप को डेटिंग का आधार बनाया गया और पासीघाट क्षेत्र (अरुणाचल प्रदेश) में ट्रेंच बनाकर मल्टी-रेडियोमीट्रिक विश्लेषण किया गया।
डॉ पेरूमल ने बताया कि ‘‘पहली बार इस अध्ययन में वर्ष 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी में की गई परमाणु बमबारी के रेडियोधर्मी प्रभावों के भारतीय उप-महाद्वीप में पहुंचने का भी खुलासा हुआ है। वैज्ञानिकों को जापान के इन दोनों शहरों में की गई परमाणु बमबारी से उत्पन्न सीएस-137 आइसोटोप हवा के जरिये भारतीय उप-महाद्वीप में पहुंचने के प्रमाण मिले हैं। वर्ष 1948 में हवा के बहाव का विश्लेषण करने के बाद वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं।’’
भारतीय एवं यूरेशियन प्लेटों के निरंतर होने वाले टकराव के कारण पिछले 100 वर्षों में पांच बड़े भूकंप इस क्षेत्र में आए हैं। डॉ पेरूमल के अनुसार ‘हिमालय में भी सागरीय निम्नस्खलन क्षेत्रों जैसी तीव्रता के भूकंप आते हैं और 1950 के असम-तिब्बत भूकंप का संबंध पूर्वी हिमालय के अग्रभाग में आए अन्य भूकंपों से हो सकता है।’ उन्होंने बताया कि ‘हिमालयी क्षेत्र में मुख्य रूप से आठ रिक्टर परिमाण से बड़े भूकंपों का उद्गम स्थल उच्च हिमालय है। यहां पर उत्पन्न हिमालय के अग्रभाग तक चट्टानों को विस्थापित करते हैं।’
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी, जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, फिजिकल रिसर्च लैबोरेट्री, सीडैक, कुमाऊं विश्वविद्यालय और पांडिचेरी विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा संयुक्त रूप से किया गया यह अध्ययन हाल में साइंटिफिक रिपोर्ट्स नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित किया गया है।
अध्ययनकर्ताओं की टीम में डॉ. पेरूमल के अलावा प्रियंका सिंह राव, अर्जुन पांडेय, राजीव लोचन मिश्रा, ईश्वर सिंह, रविभूषण, एस रामाचंद्रन, चिन्मय शाह, सुमिता केडिया, अरुण कुमार शर्मा और गुलाम रसूल भट्ट शामिल थे।
(इंडिया साइंस वायर)