स्थानीयकरण की दस्‍तक

2017 में हमें निरंकुश उपभोक्तावाद पर टिके विकास के मॉडल पर विचार करना चाहिए। गरीबों की छोड़िए, ये अमीरों के भी काम का भी नहीं हैं।
स्थानीयकरण की दस्‍तक
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2017 एक उथल-पुथल भरे वर्ष के बाद आ रहा है। अमेरिका में चाहे डोनल्ड ट्रंप की जीत हो, यूरोपीय यूनियन से अलग होने का इंग्लैंड का फैसला हो या फिर अपने देश में पटेल, मराठा और जाटों जैसी समृद्ध जातियों का खुद को ‘पिछड़ा’ घोषित करवाने का आंदोलन हो, यह दुनिया दो फाड़ होती दिख रही है। यह आर्थिक वृद्धि के बुरी तरह गड़बड़ा जाने के संकेत हैं। इसी आर्थिक वृद्धि ने पर्यावरण को भी बड़ा नुकसान पहुंचाया है। हमारी आबोहवा में, हमारे खानपान में, हमारी मिट्टी में जहर फैल रहा है। और सबसे चिंताजनक, जलवायु परिवर्तन हो रहा है। इसलिए 2017 में हमें निरंकुश उपभोक्तावाद पर टिके विकास के इस मॉडल पर विचार करना चाहिए। गरीबों की छोड़िए, ये अमीरों के भी काम का भी नहीं हैं।

भारत में हमारे सामने ज्यादा बड़ी चुनौतियां हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ रही है। लेकिन हम अभी भी उम्मीद कर रहे हैं कि सस्ती मजदूरी पर अमीरों के लिए कम कीमत पर चीजें पैदा करेंगे। लेकिन इस तरह की आर्थिक वृद्धि के दिन पहले ही लद चुके हैं, अब चाहे ट्रंप इस ताबूत में आखिरी कील ठोकें या ना भी ठोकें। बढ़ते संरक्षणवाद और वैश्विकरण से मुंह मोड़ने की सबसे ज्यादा मार विकासशील देशों पर पड़ेगी। अमीर देश हमारे लिए अपने दरवाजे बंद कर रहे हैं। इसलिए हमें अपनी समृद्धि और खुशहाली के दूसरे रास्ते देखने पड़ेंगे। 

इसमें हमारे लिए रोजगार बहुत बड़ी चुनौती है, क्योंकि दुनिया में स्वचालन इतना बढ़ गया है, जितना हमने अतीत में कभी नहीं देखा है। पहले फैक्ट्रियों में मशीनों ने मनुष्य की जगह ले ली, अब कंप्यूटरीकरण काम की गति और उत्पादनशीलता को बढ़ा रहा है। इसमें कष्ट भी कम है। इसका मतलब यह है कि अब अमीर देशों को हमारी सस्ती मजदूरी की उतनी जरूरत नहीं रही, इसलिए बेरोजगारी बड़ी तेजी से बढ़ेगी। दुनिया में वर्गभेद और गैर-बराबरी को लेकर पहले से मौजूद आक्रोश भी बढ़ेगा। इससे भविष्य और अंधकारमय नजर आ रहा है। 

इसलिए दुनिया को अपने विकास की रणनीति और टिकाऊपन के बारे में फिर से विचार करना चाहिए। अगर उत्पादन के बजाय सेवाओं में विकास दिखाई पड़ रहा है तो हमें नए कारोबार शुरू करने पड़ेंगे, जो किफायती मूल्य पर रोजगार और सेवाएं मुहैया करांगे। इसलिए स्थानीयकरण बुरी बात नहीं है। यह स्थानीय संसाधनों के आधार पर, स्थानीय समुदायों के साथ मिलकर एक नए भविष्य का निर्माण कर सकता है। 

इसके उदाहरण एयरबीएनबी और उबर हैं। ये दो ऐसी विश्वव्यापी कंपनियां हैं, जो न तो किसी होटल की मालिक हैं और न कारों की। लेकिन मकान मालिकों और कार मालिकों से कमरे और टैक्सी की सेवाएं दे रही है। यह संकेत है कि भविष्य का कारोबार कितने विध्वंसक बदलाव लाएगा। इसलिए कि आधुनिक विश्व ने अपनी अर्थव्यवस्था को इतना औपचारिक बना दिया है कि वह टिकाऊ नहीं रह गई है। क्योंकि ईंट और कंक्रीट से बनी हुई दुनिया में विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत होती है। और उसको नियंत्रित करने के लिए बहुत नियमन की जरूरत होती है। जिससे अर्थव्यवस्था के खर्च बढ़ जाते हैं। जबकि इसके विपरीत उबर और एयरबीएनबी इस व्यवस्था की काट प्रस्तुत करते हैं। क्योंकि वे व्यक्ति की संपत्ति का सर्वश्रेष्ठ इस्तेमाल करते हैं। ये मौजूदा संसाधनों का अधिकतम इस्तेमाल करते हैं! कारें और मकानों पर लोगों की मिल्कियत होती है। जिसका ये कंपनियां बेहतर इस्तेमाल कर अिधक लाभ दिलवाती हैं और उस मुनाफे में भागीदार बनती हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि ये कारोबार इन्फॉर्मल स्पेस यानी अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं। ये ऐसा इसलिए कर रहे हैं कि लागत कम हो और अवसर बढ़े।

इसलिए हमें अब आगे की सोचनी चाहिए। भारत में पहले से ही अनौपचारिक कारोबार हैं। जैसे घरों से कचरा उठाना। उस कचरे को रिसाइकिल करना और शहरों में यातायात उपलब्ध कराना। इन सब अनौपचारिक काम-धंधों में लाखों लोग लगे हुए हैं। लेकिन हम इसको अपने भविष्य की चीज नहीं मानते। उल्टा हम जिन नियम-कायदों को जरूरी मानते हैं, समझते हैं कि जिस तरह का नियमन जरूरी है, ये उसका उल्लंघन करते हैं। इनकी उपेक्षा करते हैं। इस तरह के धंधों को हम गैर-कानूनी बना देते हैं और इनको हेय दष्टि से देखते हैं। फिर भी ये बने हुए हैं। चूंकि औपचारिक अर्थवयवस्था में लागत अधिक है, इसलिए हम अनौपचारिक रूप से फलते-फूलते कारोबार को बदल नहीं सकते।

कृषि के साथ भी वही बात है। अमीर देश कृषि प्रधान से उद्योग प्रधान समाज बन चुके हैं। वहां कृषि का इतना मशीनीकरण हो गया है कि लोगों की जरूरत ही नहीं रह गई है। लेकिन हमारी दुनिया में लोग खेतों में भी काम कर रहे हैं और औद्योगिकरण भी हो रहा है। अर्थशास्त्री ऐसे अर्धरोजगारों को अनुत्पादक बताते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि स्वरोजगार में लगे और छोटी जोतों में कार्यरत किसान नए आर्थिक भविष्य के लिए रीढ़ की हड्डी साबित हो सकते हैं, जिसमें रोजगार और खुशहाली को अहमियत दी जाती है। जरा सोचिए, अगर हम वाकई मुनाफे को निवेश और आमद के तौर पर देखें तो पाएंगे कि ये लोग इतना कम निवेश कर कितना कुछ हासिल पा रहे हैं।

इसका मतलब यह नहीं कि कचरे की रिसाइक्लिंग, मैला इकट्ठा करना, शहरी यातायात और छोटी खेती किसानी में सुधार की जरूरत नहीं है। दरअसल इनमें कार्य, सेवा, पर्यावरण की परिस्थिति आदि में आमूल सुधार की जरूरत है। उसी तरह किसानों को भी ज्यादा उत्पादन चाहिए। मंडियों की उपलब्धता चाहिए और सबसे ज्यादा टिकाऊपन चाहिए। लेकिन इसका हल श्रम आधारित कारोबार को खत्म करना नहीं है। हमें नई टेक्नोलॉजी की कंप्यूटिंग ताकत का इस्तेमाल करके ऐसे काम-धंधों को बेहतर बनाना चाहिए। भविष्य के ऐसे बदलावों पर चर्चा करना हमारे लिए जरूरी है, अगले साल भी और उसके बाद भी।

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