पर्यावरण से बेपरवाह

नोटबंदी व जीएसटी जैसे फैसले रातोंरात ले लिए जाते हैं, लेकिन बात जब प्रदूषण या औद्योगिक त्रासदी की होती है तो सख्त फैसले की इच्छाशक्ति क्यों दम तोड़ देती है?
रितिका बोहरा / सीएसई
रितिका बोहरा / सीएसई
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पिछले 34 साल से भोपाल के हर चुनाव में 2-3 दिसंबर 1984 की दर्दभरी रात जेहन में ताजा हो उठती है। उस वक्त भी आम चुनाव का प्रचार अपने चरम पर था। भोपाल में उस रात जो हुआ उसे भोपाल गैस त्रासदी और दुनिया की सबसे बुरी औद्योगिक त्रासदी के रूप में जाना जाता है। त्रासदी के बीच चुनावी प्रचार चलता रहा और कुछ सप्ताह बाद देश राजीव गांधी की ऐतिहासिक जीत के जश्न में डूब गया। इस दौरान भारत दो बड़ी घटनाओं का गवाह बना था, एक राजनीतिक विजय और दूसरा पर्यावरणीय आपदा का।

इस गैस त्रासदी के 34 साल पूरे हो चुके हैं। राज्य हाल ही में चुनावी सरगर्मियों से गुजरा है और नई सरकार का गठन हो चुका है। तीन विधानसभा क्षेत्रों में इस त्रासदी के अधिकांश पीड़ित रहते हैं लेकिन हैरानी की बात यह है कि आपदा पीड़ितों की चिंताओं को किसी भी दल के एजेंडे में जगह नहीं मिली है। पीड़ितों ने “मुआवजा नहीं तो वोट नहीं” अभियान भी चलाया लेकिन उसका कोई असर नहीं हुआ। ज्यादातर लोग इस त्रासदी को नजरअंदाज कर रहे हैं। अखबार लोगों के बयान के हवाले से बता रहे हैं कि चूंकि अब उद्योग काम नहीं कर रहा है, इसलिए 1984 की घटना का दोहराव संभव नहीं है। करीब 5 लाख की गैस पीड़ित आबादी के लिए इस तरह का फैसला बहुसंख्यक आबादी ने दे दिया है जो शायद घटना को भूल चुकी है।

भोपाल से करीब 700 किलोमीटर दूर दिल्ली पर्यावरण की सालाना त्रासदी से गुजर रही है। वायु प्रदूषण गंभीर से आपात स्थिति में पहुंच चुका है। भोपाल त्रासदी की तरह ही दिल्ली का वायु प्रदूषण भी कुछ समय तक ही ध्यान खींच पाता है। बाद में इसे भुला दिया जाता है। शहर के पास ग्रेडेड रेस्पॉन्स एक्शन प्लान है जो प्रदूषण के स्तर को देखते हुए कई तरह के सुझाव प्रस्तावित करता है। नवंबर के मध्य में जब वायु प्रदूषण खतरनाक स्थिति में पहुंच गया, तब सुझाव दिया गया कि केवल स्वच्छ ईंधन से चलने वाली कारों को ही इजाजत दी जाए। आपात स्थिति को देखते हुए यह बहुत बड़ा प्रस्ताव था। इसके बाद मानों राजनेताओं, प्रभावशाली लोगों, अधिवक्ताओं और मीडिया विशेषज्ञों को सांप सूंघ गया। सभी ने इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया।

अब दोबारा भोपाल पर आते हैं। जनता और राजनेता कम से कम सख्त उपाय मसलन नोटबंदी और अचानक लागू किए गए वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) पर बात कर रहे हैं। भले ही इसे लोगों का समर्थन न मिले लेकिन बहस और चर्चाओं का लहजा सकारात्मक है। तर्क दिया जा रहा है कि आपात स्थितियों में सख्त उपायों की जरूरत होती है। लेकिन जब बात दिल्ली के आपात प्रदूषण या औद्योगिक त्रासदी की बात होती है तो बहस को यह दलील देकर समाप्त कर दिया जाता है कि ये इक्कादुक्की घटनाएं हैं और पर्यावरण की चिंताएं विकास को नहीं रोक सकतीं। विकास बनाम पर्यावरण के बीच यह एक तरह का ध्रुवीकरण है। इस ध्रुवीकरण में पर्यावरण के प्रति हमारी चिंताएं विकास के आगे नतमस्तक कर दी जाती हैं। उदाहरण के लिए वाहनों पर रोक से विकास की गति थम जाएगी। इसी तरह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों में भी पर्यावरण की चिंताओं को कभी जगह नहीं दी जाती। ये चिंताएं उन स्थानीय समुदायों द्वारा जाहिर की जाती हैं जिनकी जमीन और जलस्रोत निजी व्यवसाय की खातिर लिए जाते हैं। जब उच्चतम न्यायालय ने नियमागिरी में बॉक्साइट के खनन के लिए ओडिशा के समुदायों को निर्णय लेने का अधिकार दिया तो पर्यावरण की चिंताओं और विकास पर बहस छिड़ गई। इस क्षेत्र में खनन से बहुत-सी नदियों बेमौत मर जातीं जिससे इन पर निर्भर नगरों और शहरों में जल सुरक्षा पर असर पड़ता।

दरअसल मजबूत नेतृत्व की हमारी परिभाषा केवल कुछ मुद्दों तक ही सीमित कर दी गई है। इनमें हमारे अस्तित्व से ताल्लुक रखने रखने वाले पर्यावरण के गंभीर मुद्दों को कोई जगह ही नहीं है।

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