विश्व पर्यावरण दिवस: पर्यावरण बचेगा तो हम बचेंगे
इस वर्ष 5 जून को पर्यावरण दिवस का थीम है “प्लास्टिक प्रदूषण से मुक्ति” हर वर्ष पर्यावरण संबंधी अलग-अलग समस्याओं के प्रति जागरूकता और समाधान के प्रयास शुरू करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्र संघ के पर्यावरण प्रभाग द्वारा हर वर्ष विशेष थीम की घोषणा की जाती है।
आशा की जाती है कि समाज और विभिन्न सरकारें इस दिशा में सक्रियता से काम करेंगी. विश्व में 1950 से 2015 तक 6.3 बिलियन टन प्लास्टिक कचरा उत्पादित हुआ। अनेक लाभों के बावजूद प्लास्टिक से अनेक गंभीर पर्यावरणीय और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं पैदा हो रही हैं।
प्लास्टिक धूप में फोटो वोल्टिक प्रभाव से अपघटित होकर माइक्रो और नैनो प्लास्टिक में परिवर्तित हो जाता है और बहुत जल्दी हवा द्वारा पानी और मिट्टी में मिल जाता है। फिर मछली के शरीर में पंहुच कर मानव शरीर में भोजन श्रृंखला का भाग बना कर पंहुच जाता है।
इससे अल्सर, प्रजनन क्षमता में ह्रास, हृदय रोग, गुर्दा रोग, दोष पूर्ण जन्म और कैंसर जैसे रोग हो सकते हैं. डंप करने पर पानी को प्रदूषित करता है तो जलाने पर वायु में जहर घोलता है और बीमारियों का कारण बनता है।
प्लास्टिक को प्राकृतिक रूप से अपघटित होने में 100 से 1000 वर्ष लग सकते हैं. हर साल 8 से 10 मिलियन टन प्लास्टिक समुद्र में पंहुच रहा है. जिससे हर वर्ष एक लाख समुद्री जीव प्रजातियां नष्ट हो रही हैं।
धरती और समुद्र में प्लास्टिक के भंडार जैव विविधता का नाश कर रहे हैं। समुद्री, पालतू और वन्य पशु प्लास्टिक उपभोग के कारण अनेक रोगों का शिकार हो रहे हैं।
समुद्रों से प्राप्त आय में प्लास्टिक प्रदूषण के कारण 1-5% की कमी आई है, जो 2500 बिलियन डॉलर के बराबर है. हालांकि प्लास्टिक कचरे के प्रबन्धन के अनेक प्रयास कचरे से उर्जा बनाने, पुनर्चक्रीकरण, उच्च ताप में विशेष प्रक्रिया द्वारा डीजल में परिवर्तन आदि प्रक्रियाएं अपनाई जा रही हैं, किन्तु प्लास्टिक कचरे की मात्रा को व्यवस्थित करने में न काफी साबित हो रहे हैं।
खुले में जलाने के कारण प्लास्टिक का धुआं जलवायु परिवर्तन का कारण बन रहा है। ताप विद्युत्, निर्माण कार्यों की धूल,परिवहन का धुआं, मौसमी तौर पर जलाए जाने वाले फसलों के अवशेष और जंगलों की आग से वातावरण का तापमान हरित गृह प्रभाव के कारण बढ़ता जा रहा है, जिस कारण जलवायु में तेज गति से अप्रत्याशित बदलाव हो रहे हैं।
देश के 45 प्रतिशत क्षेत्र भारी बारिश का शिकार हो रहे हैं और 57 प्रतिशतप्रतिशत क्षेत्र भीषण गर्मी की चपेट में आ चुके हैं. बारिशों में भारी बदलाव आ चुका है। वर्ष में वर्षा के दिन कम हो रहे हैं, किन्तु वर्षा की बौछार बढ़ती जा रही हैं। जिस के कारण देश बाढ़ और सुखाड़ का शिकार हो रहा है।
जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर हिमालय के संवेदनशील पर्यावरण पर पड़ रहा है। हिमालय की ढलानें अत्यंत भुरभुरी और कच्ची हैं जिनमें जोर की बारिश भूस्खलनों का कारण बन रही है।
हिमाचल, उत्तराखंड, और पूर्वांचल इसका दंश हर वर्ष झेल रहे है. हिमालय, चीन और संपूर्ण भारतीय उप महाद्वीप सहित, दक्षिण- पूर्वी एशिया के जलवायु का भी निर्धारण करता है। इसमें कोई भी बदलाव दुनियां की 380 करोड़ आबादी को प्रभावित करता है।
बढ़ते तापमान के कारण हिमालय के ग्लेशियर पिघल रहे हैं और इस सदी के अंत तक मुश्किल से 10% ग्लेशियर ही बचेंगे. इससे हिमालयी ग्लेशियरों से निकलने वाली नदीयाँ मौसमी बन कर रह जाएंगी।
इन नदियों पर निर्भर गंगा और सिंध के मैदान और चीन के क्षेत्र पानी के संकट से दो चार हो जाएंगे। धरती पर तापमान वृद्धि का कारण हरित प्रभाव गैसों का उत्सर्जन है। यह उत्सर्जन जीवाश्म इंधनों से बनने वाली बिजली और परिवहन व्यवस्था के कारण हो रहा है।
इससे ग्लेशियर सिकुड़ भी रहे हैं और इनके पिघलने से हिमालय में हिमनद झीलों का निर्माण हो रहा है। इस समय ऐसी 25000 झीलें हिमालय में चिन्हित की गई हैं जिनके अचानक फटने के कारण निचले क्षेत्रों में बाढ़ के रूप में भारी तबाही आने का खतरा हमेशा बना रहता है।
हिमाचल, सिक्किम, उत्तराखंड इस तरह के संकट गत 2-4 वर्षों में झेल चुके हैं. हिमाचल का घेपन घाट हिमनद आज कल चर्चा में है जिसका क्षेत्रफल 1989 के 36.49 हैक्टेयर से बढ़ कर 2023 में 101.30 हैक्टेयर हो चूका है.हिमालय में जलवायु परिवर्तन के खतरे के बढने के मुख्य कारण अंधाधुंध बड़े निर्माण कार्य हैं।
बड़े बांध, चार लेन सडकें, बृहद आकार पर्यटन के लिए निर्माण आदि के लिए मोह बढ़ता ही जा रहा है। विश्व भर में उच्च स्तर पर ऊर्जा का उपभोग करने की होड़ लगी है।
ऊर्जा का ज्यादा प्रयोग करने वाला ही ज्यादा सभ्य माना जाने लगा है। ऊर्जा उत्पादन तो जीवाश्म इंधनों से ही ज्यादातर हो रहा है। भले ही वर्तमान में अक्षय उर्जा की दिशा में सोच आरंभ हुई है, किन्तु अभी भी 70 प्रतिशत बिजली कोयले से बन रही है।
भारत में हालांकि प्रति व्यक्ति उर्जा खपत पश्चिमी देशों के मुकाबले बहुत कम है। प्रति व्यक्ति, प्रतिवर्ष, भारत- 1337 किलोवाट घंटे,चीन- 6636 किलोवाट घंटे, अमेरिका-12497 किलोवाट घंटे, और यू.ए.ई.-17342 किलोवाट घंटे बिजली खर्च करते हैं।
यूज एंड थ्रो तकनीकों के कारण अधिक कचरा पैदा हो रहा है। अधिक खनन हो रहा है और अधिक ऊर्जा की भी बिना कारण खपत हो रही है।
अत: टिकाऊ विकास के लिए सादगी, टिकाऊ उत्पाद बनाना और कॉर्पोरेट बृहद आकार उत्पादन व्यवस्था और इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण को नियंत्रित करके ही दुनिया में टिकाऊ विकास का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
अति उपभोगवादी वर्तमान सभ्यता के सामने गांधी जी का यह आदर्श वाक्य कि “ प्रकृति के पास सबके पालन पोषण के लिए पर्याप्त संसाधन हैं परन्तु कुछ लोगों की मौज मस्ती के लिए कुछ नहीं है” वर्तमान पर्यावरणीय संकट में दिशा निर्देशक का कार्य कर सकता है।