इलेस्ट्रेशन: तारिक अजीज
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सतत विकास व पर्यावरण संरक्षण : गांधीवादी दृष्टिकोण

"पृथ्वी, हवा, ज़मीन और पानी हमारे पूर्वजों से विरासत में नहीं बल्कि हमारे बच्चों से उधार में मिले हैं। इसलिए हमें उन्हें कम से कम वैसे ही सौंपना चाहिए जैसे हमें सौंपा गया था।" - महात्मा गांधी
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इस समय पूरी दूनिया में मानव के द्वारा प्रकृति के अंधाधुंध दोहन की बढ़ती प्रवृत्ति चिंता का विषय है। जैसे-जैसे मानव ने सभ्यता की सीढ़िया चढ़ी हैं, वैसे-वैसे उसकी आवश्यकताएं बढ़ीं हैं। अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बे-लगाम प्राकृतिक संपदा का दोहन करके मानव ने पृथ्वी के नाजुक संतुलन को ही गड़बड़ा दिया है।

प्रकृति के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाले लोगों में युगपुरुष महात्मा गांधी का नाम प्रमुख रूप से शामिल है। आज महात्मा गांधी का जन्मदिवस मानवता के उच्च आदर्शों का पोषण करने वाले मूल्यों और परंपराओं को स्मरण करने का दिन है।

उनका कालजयी वाक्यांश आज भी बार-बार दोहराया जाता है कि- 

हमारी आवश्यकता की पूर्ति के लिए इस पृथ्वी पर पर्याप्त संसाधन हैं मगर हमारे लालच के लिए नहीं हैं।  गांधीजी की दृष्टि प्राकृतिक संसाधनों के समझदारी भरे उपयोग पर आधारित है, न कि प्रकृति, जंगल, नदियों की सुंदरता के विनाश पर। 

आज हम देखते हैं कि मानवीय लालच का परिणाम जलवायु परिवर्तन के रूप में सामने आया है।

गांधीजी को अक्सर एक पर्यावरणविद् माना जाता रहा है, हालांकि उन्होंने कभी भी पारिस्थितिकी और पर्यावरण संरक्षण जैसे शब्दों का इस्तमाल नहीं किया, लेकिन उन्होंने जो कहा और किया, वह उन्हें पर्यावरणविद् बनाता है। गांधी एक व्यक्ति नहीं एक विचारधारा का नाम है।

उनके समय में पर्यावरण समस्याएं इस रूप में नहीं थी, लेकिन उन्होने अद्भुत दूरदर्शिता और अंतर्दृष्टि से बताया कि चीजें गलत दिशा में जा रही हैं। गांधी जी ने हिमालय के महत्व को भी उसी समय रेखांकित कर प्रकृति से अनावश्यक छेड़छाड़ न करने की नसीहत दे दी थी। गांधीजी ने जून 1921 में उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा प्रवास के दौरान अपनी डायरी में हिमालय का मानव जीवन के लिए उपयोगिता का बहुत ही सुंदर वर्णन किया है- यदि हिमालय न होता तो गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र और सिन्धु भी न होती। हिमालय न हो तो ये नदियां न हों, न वर्षा हो और वर्षा न हो तो भारत रेगिस्तान या सहारा की मरुभूमि बन जाए।

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वह पृथ्वी या प्रकृति के प्रति सम्यक मानवीय आचरण के लिए जिस तरह मानव समाज को आगाह करते थे, वह उनकी अद्भुत दूरदृष्टि ही थी। इसलिए उन्हें विश्व का पहला पर्यावरणवादी कहा जाए तो उचित ही होगा।

गांधीजी की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता उनकी समग्रता मूलक दृष्टि थी - 

"मैं केवल मानव के साथ ही  तादात्म्य अथवा बंधुत्व स्थापित नहीं करना चाहता अपितु पृथ्वी पर रहने वाले कीड़े - मकोड़ों के साथ भी तादात्म्य अथवा बंधुत्व स्थापित करना चाहता हूं।  क्योंकि हम सभी उसी ईश्वर की संतान हैं और इसलिए जीवन जिस रूप में भी दिखाई देता है, तत्वत: एक होना चाहिए।"

उनकी चिंताएं केवल मनुष्यों तक ही सीमित नहीं थीं क्योंकि उन्हें सभी जीवों की एकता का बहुत गहरा एहसास था। उनका मानना ​​था कि मनुष्यों को पर्यावरण के साथ सामंजस्य बिठाकर रहना चाहिए।

पश्चिमी सभ्यता के वर्चस्व वाले उस युग में गांधीजी ने भारतीय सभ्यता को श्रेष्ठ बताते हुए उसे संपूर्ण विश्व के लिये एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने गांधीजी के बारे में उचित ही लिखा है-

“एक देश में बांध संकुचित करो न इसको 

गांधी का कर्तव्य क्षेत्र, दिक् नहीं, काल है 

गांधी है कल्पना जगत के अगले युग की 

गांधी मानवता का अगला उद्विकास है”

गांधीजी का दृष्टिकोण पर्यावरण के प्रति व्यापक था। उन्होंने देशवासियों से तकनीक के अंधानुकरण के विरुद्ध जागरूक होने का आह्वान किया था। उनका मानना था कि पश्चिम के जीवन स्तर की नकल करने से पर्यावरण का संकट पनप सकता है। कहते थे कि यदि विश्व के अन्य देश भी आधुनिक तकनीकों के मौजूदा स्वरूप को स्वीकार करेंगे तो पृथ्वी के संसाधन नष्ट हो जायेंगे। 

गांधीजी का मानना था कि पृथ्वी, वायु, भूमि तथा जल हमारे पूर्वजों से प्राप्त सम्पत्तियां नहीं हैं। वे हमारे बच्चों की धरोहरें हैं। वे जैसी हमें मिली हैं वैसी ही उन्हें भावी पीढ़ियों को सौंपना होगा।

एक सदी पूर्व 1909 में लिखी गई उनकी पुस्तक, ‘‘हिंद स्वराज’’ ने पर्यावरण के विनाश और पृथ्वी के लिए खतरे के रूप में दुनिया के सामने आने वाले खतरों की चेतावनी दी थी।

गांधीजी ने पहले ही लिख दिया था कि यदि भारत ने अपनी विशाल आबादी के साथ विकास के लिए पश्चिमी मॉडल का पालन किया तो उसे अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए एक अलग धरती की जरूरत होगी।

गांधीजी का स्वदेशी विचार भी प्रकृति के खिलाफ हुए बिना, स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों के उपयोग का सुझाव देता है। उन्होंने आधुनिक सभ्यता, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण की समस्याओं के बारे में आगाह किया। वें धुएं और शोर से पर्यावरण को प्रदूषित करने के लिए मिलों और कारखानों के विपक्ष में रहे। गांधी ने कृषि और कुटीर उद्योगों पर आधारित एक ग्रामीण सामाजिक व्यवस्था का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि मनुष्य जब अपनी भौतिक जरूरतों को पूरा करने के लिए 15 या 20 किलोमीटर से ज्यादा दूर के संसाधनों को प्रयोग करेगा तो प्रकृति की अर्थव्यवस्था नष्ट होगी।

हम सभी गांधीजी के 1930 के  ऐतिहासिक दांडी मार्च से परिचित हैं। इसके जरिए उन्होंने प्राकृतिक संसाधनों पर आम लोगों के अधिकारों पर जोर दिया था। नमक एक महत्वपूर्ण और मूलभूत आवश्यकता है।

बुनियादी संसाधनों से आम लोगों को दूर रखना  अस्थिर विकास की रणनीति का हिस्सा था। अतः नमक कानून तोड़कर और आम लोगों को नमक बनाने का अधिकार देकर उन्होंने उन्हें सशक्त बनाने का काम किया जो कि वर्तमान में सतत/टिकाऊ विकास का केंद्रीय मुद्दा है।

गांधीजी का सर्वोदय सिद्धांत राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर जॉन रस्किन की पुस्तक ‘अंटू दिस लास्ट’ से प्रेरित था। सर्वोदय शब्द का अर्थ है, सभी की प्रगति'। सर्वोदय ऐसे वर्गविहीन, जातिविहीन और शोषणमुक्त समाज की स्थापना करना चाहता है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति और समूह को अपने सर्वांगीण विकास का साधन और अवसर मिले। यही कारण है कि सर्वोदय आज एक समर्थ जीवन, समग्र जीवन तथा संपूर्ण जीवन का पर्याय बन चुका है।

सतत विकास का केंद्र बिंदु समाज की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करना होना चाहिए। इस अर्थ में उनकी पुस्तक “द हिंद स्वराज” टिकाऊ विकास का घोषणापत्र है।

महात्मा गांधी के कई बयान हैं जिन्हें टिकाऊ विकास के लिए उनके विश्वव्यापी दृष्टिकोण के रूप में रेखांकित किया जा सकता हैं। यूरोपीय संघ के संदर्भ में दिए गए उनके एक बयान की प्रासंगिकता आज पूरे मानव समाज को है। उन्होंने 1931 में लिखा था कि भौतिक सुख और आराम के साधनों के निर्माण और उनकी निरंतर खोज में लगे रहना ही अपने आप में एक बुराई है।

गांधीजी ने अहिंसा, सांप्रदायिक सद्भाव, आर्थिक समानता, अस्पृश्यता का उन्मूलन, लोगों के जीवन में प्रगतिशील सुधार, महिलाओं को मताधिकार, नि:शुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा प्रणाली में सुधार पर बल दिया ताकि साधारण लोगों की आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके। ज्ञातव्य है कि यें सभी मुद्दे रियो शिखर सम्मेलन के एजेंडा-21 के अभिन्न अंग हैं, जो टिकाऊ विकास के लिए आवश्यक प्राप्य लक्ष्य हैं।

1938 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति के  हर नागरिक के पास दो कारें होने की चाहत पर महात्मा गांधी ने यह कहते हुए प्रतिक्रिया व्यक्त की थी कि अगर हर भारतीय परिवार में एक कार होगी तो सड़कों पर चलने के लिए जगह की कमी पड़ जाएगी। आज ऑड और ईवन के जरिए भी सड़कों पर कारों की संख्या को कम करने के कोशिश की जा रही है। 

गांधीजी ने वायु प्रदूषण पर बात करते हुए दक्षिण अफ्रीका में पहले सत्याग्रह के समय ही आने वाले समय में स्वच्छ हवा की कीमत बता दी थी। उनकी पुस्तक 'की टू हेल्थ (स्वास्थ्य की कुंजी)' में बताया कि शरीर को हवा, पानी और भोजन तीनों आवश्यक हैं जिनमें हवा सर्वोपरि है। उन्होंने कहा कि प्रकृति ने हमें स्वच्छ हवा फ्री में दी है, लेकिन आधुनिक सभ्यता ने उसकी कीमत तय कर दी है।

स्वच्छता भी पर्यावरण का ही हिस्सा है और गांधीजी स्वच्छता के प्रति जागरूक थे। गांधीजी जब 1915 में दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद कुंभ के अवसर पर हरिद्वार पहुंचे तो गंगा में गंदगी को देखकर उन्हें बहुत कष्ट हुआ।

दुनिया में अकाल और पानी की कमी के संदर्भ में महात्मा गांधी के विचारों को याद करना बहुत ही प्रासंगिक है। पानी की कमी के मुद्दे पर उन्होंने सभी रियासतों को सलाह दी थी कि सभी को एक संघ बनाकर दीर्घकालिक उपाय करने चाहिए और खाली भूमि पर पेड़ लगाने चाहिए। उन्होंने बड़े पैमाने पर वनों के काटने का भी विरोध किया था। इसके साथ ही गांधीजी ने वर्षा जल के संचयन पर भी जोर दिया।

दुनिया भर में पर्यावरणीय आंदोलन चल रहे हैं। पर्यावरणीय आंदोलनों का सीधा संबंध गांधी या गांधीवाद से नहीं है। हालांकि, इन आंदोलनों में जिन तरीकों को अपनाया जाता है और जो बहस होती है, उसमें अक्सर गांधीवादी तत्व शामिल होते हैं जैसे सविनय अवज्ञा, औद्योगिक उद्यमों और पूंजीवादी समाज के मूल्यों की अहिंसात्मक व शांतिपूर्ण आलोचना।

भारत में अधिकांश पर्यावरणीय आंदोलन आजीविका, भूमि, जल और पारिस्थितिक सुरक्षा से संबंधित मुद्दों पर केंद्रित हैं। चिपको आंदोलन को विशेष रूप से अपने गांधीवादी जुड़ाव के लिए जाना जाता है। नर्मदा बचाओ आंदोलन के नेता बाबा आमटे और मेधा पाटकर ने साफ कहा है कि उन्हें मुख्य रूप से गांधीजी से प्रेरणा मिली है।

एक पुस्तक “सर्विविंग द सेंचुरी: फेसिंग क्लाइमेट कैओस एंड अदर ग्लोबल चैलेंजेस” जो प्रोफेसर हर्बर्ट गिरार्डेट द्वारा संपादित की गई है, उसमें चार मानक सिद्धांतों अहिंसा, स्थायित्व, सम्मान और न्याय को इस सदी और पृथ्वी को बचाने के लिए आवश्यक बताया गया है। दुनिया गांधीजी और उनके उन सिद्धांतों को धीरे-धीरे  मान और अपना रही है जो सदैव उनके जीवन और कार्यों के केंद्र में रहें हैं।

महात्मा गांधी की शिक्षाएँ आज और अधिक प्रासंगिक हो गई हैं जबकि लोग अत्याधिक लालच, हिंसा और भागदौड़ भरी जीवन शैली का समाधान खोजने की कोशिश कर रहे हैं। प्रकृति के साथ बर्ताव में गांधीवादी मूल्य अपनाने से ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्याएं कम हो सकती हैं, क्योंकि इस समस्या की जड़ उपभोक्तावाद ही है। गांधीवादी दृष्टिकोण ने सर्वथा पर्यावरण संरक्षण, स्वच्छता, ज़रुरत के अनुसार ही उपभोग, आत्मनिर्भरता तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर ज़ोर दिया।

पर्यावरण संरक्षण का गांधीजी का जो तरीका है, वह झगड़े का तरीका नहीं, बल्कि त्याग का तरीका है। पर्यावरण के साथ आत्मीय रिश्ते जरूरी हैं और पर्यावरणीय दशाओं को समझने के लिए हमें प्रकृति के साथ मधुर संबंध कायम करने होंगे। गांधीजी की विचारधारा केवल भारत के लिए नहीं, बल्कि सारी दुनिया के लिए है, जिसे जीवन में उतारकर लोग पर्यावरण संरक्षण की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

लेखिका डॉ. बबीता एल. बी. एस. राजकीय महाविद्यालय, कोटपुतली, जयपुर में भूगोल की प्रोफेसर हैं, जबकि डॉ. सुभाष चंद्र यादव भूगोल के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। लेखकद्वय एडिलेड विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर रहे हैं।

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