हथकरघा के पुनरुद्धार से पर्यावरण संरक्षण व स्थानीय अर्थव्यवस्था को मिलेगा बढ़ावा
फास्ट फैशन और बड़े पैमाने पर उत्पादित कपड़ों के युग में, पारंपरिक हथकरघा सांस्कृतिक विरासत, शिल्प कौशल और स्थिरता के प्रमाण के रूप में खड़ा है।
पारंपरिक कपड़ों को फिर से पेश करके हथकरघा को पुनर्जीवित करना सिर्फ़ एक शैलीगत विकल्प से कहीं ज़्यादा है - यह एक लचीली स्थानीय अर्थव्यवस्था बनाने और अधिक पर्यावरण के अनुकूल वातावरण को बढ़ावा देने की दिशा में एक कदम है।
हथकरघा केवल बुनाई की तकनीक नहीं है - वे अनगिनत कारीगरों की संस्कृति, विरासत और आजीविका का प्रतिनिधित्व करते हैं। दुर्भाग्य से, औद्योगीकरण और बदलते फैशन के रुझान ने हाथ से बुने हुए कपड़ों की मांग में गिरावट ला दी है, जिससे शिल्प और उनके पीछे के समुदायों दोनों को खतरा है।
हथकरघा बुनाई सिर्फ़ कपड़ा बनाने की एक विधि नहीं है - यह एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है जो पीढ़ियों की पहचान और शिल्प कौशल को दर्शाती है। हथकरघा कपड़ों से बने पारंपरिक कपड़े अक्सर कपास, ऊन, रेशम और जूट जैसे प्राकृतिक रेशों का उपयोग करके तैयार किए जाते हैं।
ये सामग्री बायोडिग्रेडेबल, गैर-विषाक्त हैं, और सिंथेटिक विकल्पों की तुलना में उत्पादन के लिए काफी कम ऊर्जा और पानी की आवश्यकता होती है। पारंपरिक परिधानों को मुख्यधारा के फैशन में वापस लाना नैतिक और टिकाऊ विकल्पों को बढ़ावा देता है।
भारत के प्रत्येक राज्य की अपनी परंपरा है, जो उस क्षेत्र की संस्कृति और कहानियों को अपने में समेटे हुए है और जिसने अपनी सुंदरता के लिए विश्व ख्याति अर्जित की है।भारत की खादी , संबलपुरी, कांचीपुरम, बनारसी , माहेश्वरी, चंदेरी , जामदानी और पटोला से लेकर फुलकारी और पश्मीना, व् जनजातीय पारंपरिक वस्त्र समुदायों की कहानियों और प्रकृति से उनके गहरे जुड़ाव को दर्शाते हैं।
चौथी अखिल भारतीय हथकरघा जनगणना (2019-20) के अनुसार, देश में 26,73,891 हथकरघा बुनकर और 8,48,621 संबद्ध श्रमिक हैं।हालांकि, बड़े पैमाने पर उत्पादित कपड़ों के उदय ने हथकरघा परंपराओं के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है।
घटती मांग, कम मज़दूरी और समर्थन की कमी के कारण कई कारीगरों ने अपने करघे छोड़ दिए हैं। इस बदलाव ने न केवल सांस्कृतिक विरासत को खतरे में डाला है बल्कि पर्यावरण क्षरण में भी योगदान दिया है।
भारत का रेशम के साथ एक लंबा इतिहास रहा है और यह दुनिया में रेशम का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक और सबसे बड़ा उपभोक्ता है।
भारत ने 38,913 मीट्रिक टन रेशम का उत्पादन किया, जिससे यह चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक बन गया।
भारत विश्व में कपास का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक और उपभोक्ता है, जो वैश्विक कपास उत्पादन में लगभग 24% का योगदान देता है। कच्चे माल की अच्छी मात्रा में होने के बावजूद आज भी भारत भारी मात्रा में विदेशी आयात पर निर्भर है।
द हिन्दू में प्रकाशित लेख के अनुसार भारतीय टेक्सप्रेन्योर्स फेडरेशन (आईटीएफ) के हिसाब से, भारत ने अप्रैल से नवंबर 2024 तक 8,900 करोड़ रुपये के परिधान आयात किए और वर्ष 2024-2025 के अंत तक लगभग 13,000 करोड़ रुपये के परिधान आयात के साथ समाप्त होने की संभावना है।
मुख्य आयात सूती परिधान (513 मिलियन डॉलर) और मानव निर्मित फाइबर परिधान (375 मिलियन डॉलर) थे।
इसके अलावा, बुने हुए परिधानों का आयात 420 मिलियन डॉलर और बुने हुए परिधानों का आयात 529 मिलियन डॉलर का था। वस्त्र मुख्य रूप से बांग्लादेश, चीन, वियतनाम और श्रीलंका से आयात किए गए थे। ये आंकड़े गांधी जी की याद दिलाते है।
वर्ष था 1918 , महात्मा गांधी ने स्वदेशी आंदोलन के एक महत्वपूर्ण हिस्से के रूप में खादी कपड़े का इस्तेमाल किया, यह आंदोलन आयातित उत्पादों और सामग्रियों के उपयोग का बहिष्कार करने के लिए बनाया गया था।
ऐसा करने से स्थानीय स्तर पर उद्योग और नौकरियों का सृजन करके भारत को गरीबी से बाहर निकालने में मदद मिलेगी। यह भारत को महंगे, आयातित सामानों पर निर्भरता से भी मुक्त करेगा जो ब्रिटेन से देश में आ रहे थे, भले ही कच्चे माल भारत में ही आते हों। आज 100 साल बाद भी, उनके बताए हुए ग्राम स्वराज के सिद्धांत को समझने की जरूरत है।
एक समय ग्रामीण और अर्ध-शहरी परिदृश्यों में फल-फूल रहा हथकरघा क्षेत्र औद्योगिक कपड़ा उत्पादन के कारण काफ़ी दबाव में है। सिंथेटिक कपड़ों की बाढ़ आने और वैश्विक ब्रांडों के उपभोक्ता की पसंद पर हावी होने के कारण, बुनकरों ने अपने शिल्प की मांग में कमी देखी है। यह गिरावट न केवल सांस्कृतिक पहचान को ख़तरे में डालती है बल्कि ग्रामीण आजीविका को भी प्रभावित करती है।
राष्ट्रीय हथकरघा दिवस २०१५ से प्रत्येक ७ अगस्त को मनाया जाता है ,यह एक अच्छी पहल है परन्तु आमजन तक पहुंचने के लिए नीतिगत सुधार और आम लोगों के जीवन में इसे फिर से गौरवपूर्ण माध्यम से अपनाने को लेकर कार्य करने की आवश्यकता है।
पारंपरिक परिधानों को फिर से पेश करना - चाहे वह खादी हो, इकत हो, संबलपुरी हो, चंदेरी हो,जामदानी हो या अन्य स्वदेशी बुनाई हो - इस प्रवृत्ति को उलट सकता है। रोजाना पहनने वाले कपड़ों, त्यौहारों, शादियों और आधिकारिक समारोहों में इन परिधानों को बढ़ावा देकर, हम स्थानीय कपड़ों की मांग को बढ़ावा दे सकते हैं।
स्कूल , कॉलेज और ऑफिस के ड्रेस कोड या यूनिफॉर्म में इससे सम्मिलित करने की जरूरत है। आमतौर पर महिला और लड़कियां पारंपरिक कपड़े के वेशभूषा अपनाने में अतिउत्साह से आगे बढ़ती है, हमें साथ ही साथ में पुरुष और युवा लड़कों को इस परिधान प्रति रुचि बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए।
डिजाइनर और प्रभावशाली लोग हथकरघा कपड़ों को शामिल करके महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, जिससे वे युवा पीढ़ी के लिए अधिक आकर्षक बन सकते हैं। सप्ताह में एक दिन अपनी पारम्परिक वेशभूषा को दिनचर्या में सम्मिलित किया जाएगा तो अपनी संस्कृति के प्रति जिम्मेदारी बढ़ेगी।
हथकरघा पुनरुद्धार उत्पादन को स्थानीय बनाए रखते हुए, अपशिष्ट को कम करते हुए, और पुनर्चक्रण और पुन: उपयोग को प्रोत्साहित करके एक स्थानीय अर्थव्यवस्था का समर्थन करता है।
प्रत्येक चरण - कताई और रंगाई से लेकर बुनाई और सिलाई तक - समुदायों के भीतर प्रबंधित किया जा सकता है, जिससे रोजगार पैदा होता है और बाहरी आपूर्ति श्रृंखलाओं पर निर्भरता कम होती है। सिंथेटिक उत्पादन के विपरीत, हथकरघा अक्सर प्राकृतिक रेशों और रंगों का उपयोग करते हैं, जो बायोडिग्रेडेबल और कम प्रदूषणकारी होते हैं।
यह स्थानीय दृष्टिकोण न केवल ग्रामीण कारीगरों का उत्थान करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि समुदाय के भीतर पैसा प्रसारित हो, जिससे सतत आर्थिक विकास को बढ़ावा मिले।
क्लाइमेट ट्रेड संस्था के अनुसार फैशन तीसरा सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाला उद्योग है और यह हमारे वार्षिक कार्बन फुटप्रिंट का लगभग 10% पैदा करता है - जो सभी अंतरराष्ट्रीय उड़ानों और समुद्री शिपिंग से भी अधिक है और ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन फैशन क्षेत्र की एकमात्र समस्या नहीं है।
यह हर साल 50 लाख लोगों की प्यास बुझाने के लिए पर्याप्त पानी की खपत करता है, और लाखों टन प्लास्टिक और अन्य अपशिष्ट पैदा करता है जो हमारी हवा और महासागरों को प्रदूषित करते हैं।
समाधान सरल है: फास्ट फैशन से दूर रहें, कम लेकिन बेहतर गुणवत्ता वाले कपड़े खरीदें, और ऐसे स्वावलंबी ब्रांड चुनें जो अपने पर्यावरणीय प्रभाव को पारदर्शी रूप से बताते हैं और इसे कम करने के लिए कार्य करते हैं।
फास्ट फ़ैशन का पर्यावरणीय प्रभाव अच्छी तरह से प्रलेखित है: बड़े पैमाने पर पानी का उपयोग, रासायनिक प्रदूषण और कपड़ा अपशिष्ट बड़े पैमाने पर हैं। दूसरी ओर, हथकरघा को न्यूनतम बिजली की आवश्यकता होती है, जैविक या कम प्रभाव वाले रंगों पर निर्भर होते हैं, और कम अपशिष्ट उत्पन्न करते हैं। पारंपरिक कपड़े चुनकर, उपभोक्ता अपने कार्बन फुटप्रिंट को कम करने और स्वावलंबी प्रथाओं को बढ़ावा देने का सचेत निर्णय लेते हैं।
सरकारी नीतियाँ और शैक्षिक पहल इस आंदोलन को मज़बूत कर सकती हैं। कारीगरों, हथकरघा समूहों और छोटे पैमाने के व्यवसायों के लिए प्रोत्साहन - साथ ही स्कूलों और कॉलेजों में जागरूकता कार्यक्रम - लोगों की रुचि पैदा कर सकते हैं।
शासकीय कर्मचारी को यह परिधान पहने प्रति जिम्मेदारी लेना चाहिए। देश में लगभग 16000 प्राथमिक बुनकर सहकारी समिति है, यह बहुत कम है, इस सहकारी समिति को बढ़ावा देने की जरूरत है। साथ में इन समिति को अच्छा तकनीकी, अच्छा प्रोत्साहन राशि, ऋण के सुविधा के साथ बाज़ार और ई-कॉमर्स प्लेटफ़ॉर्म के साथ सहयोग कारीगरों को व्यापक बाज़ार पहुँच भी दे सकता है।
पारंपरिक कपड़ों को फिर से पेश करके हथकरघा को पुनर्जीवित करना केवल एक सांस्कृतिक आंदोलन नहीं है - यह एक सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय अनिवार्यता है। यह हमें हमारी जड़ों से जोड़ता है, स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाता है और हमें स्वावलंबी जीवन जीने के मार्ग पर ले जाता है।
उपभोक्ताओं, डिजाइनरों और नीति निर्माताओं के रूप में, यह समय है कि हम केवल फैशन के लिए नहीं, बल्कि भविष्य के लिए कपड़े चुनें।हथकरघा कपड़ों से बने पारंपरिक कपड़ों को फिर से पेश करना सांस्कृतिक पुनरुत्थान से कहीं ज़्यादा है - यह आधुनिक चुनौतियों का एक व्यावहारिक समाधान है।
यह पर्यावरण के अनुकूल जीवन को बढ़ावा देता है, स्थानीय कारीगरों को सशक्त बनाता है, और स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं का निर्माण करता है। पारंपरिक परिधानों को अपनाकर, हम न केवल अपनी विरासत का सम्मान करते हैं बल्कि अपने पर्यावरण की रक्षा भी करते हैं