मिथिला का नव वर्ष जुड़-शीतल: पर्यावरण संरक्षण व लोकचेतना का प्रतीक
आज (14 अप्रैल) "सतुआनी" का त्योहार है और कल (15 अप्रैल) ‘जुड़-शीतल’ यानी बिहार के मिथिला का नव वर्ष। रबी फसलों की कटाई के वक्त सतुआनी का यह त्योहार बिहार के अलावा उत्तर प्रदेश और नेपाल के कुछ हिस्सों में भी मनाया जाता है।
वहीं, और कई क्षेत्रों में इसी समय मनाए जाने वाले त्योहारों को अलग-अलग नामों से जाना जाता है। हर वर्ष जुड़-शीतल के एक दिन पूर्व सतुआनी का त्योहार मनाया जाता है। इस दिन जौ और नई फसलों को कूट-पीस कर घर में ही सत्तू तैयार किया जाता है और कुलदेवी/कुलदेवता पर इस सत्तू को गुड़, आम के टिकोरे के साथ चढ़ाया जाता है।
इसके पीछे की वजह है नई फसलों को सर्वप्रथम देवी-देवता को समर्पित करना। जुड़-शीतल का खाना इसी दिन बनाकर रख लिया जाता है। सूर्य के मीन राशि को छोड़ प्रथम राशि मेष में प्रवेश करने की वजह से इसे मेष संक्रांति भी कहते हैं।
‘जुड़-शीतल’— आखिर हमारी संस्कृति में इतने त्योहार और इतनी परंपराएं क्यों हैं? यह सवाल अक्सर किया जाता रहा है, खासकर युवा पीढ़ी द्वारा।
परंपराओं और रीति-रिवाजों पर गौर करें तो मालूम पड़ता है कि हमारी भारतीय संस्कृति में मनाए जाने वाले त्योहार केवल हमारी खुशियों को व्यक्त करने का साधन मात्र नहीं हैं, बल्कि हमारे जीवन, हमारे पर्यावरण और समाज को और बेहतर बनाए जाने की एक प्रक्रिया है।
बात चाहे क्षेत्रीय त्योहारों की हो अथवा राष्ट्रीय, हमारे त्योहारों के पीछे ऐसे कई उद्देश्य समाहित होते हैं जो बड़ी गहराई से हमारे समाज, पर्यावरण और जीवन को प्रभावित करते हैं।
मिथिलांचल का यह नव वर्ष पर्यावरण संरक्षण और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण है। इस दिन हम जल्दी उठने की कोशिश करते हैं; ऐसा इसलिए कि आज के दिन घर की बुजुर्ग महिलाएं देवता के पास रखे जल को चुल्लू में भरकर हमारे सिर पर डालती थीं और आशीष देते हुए कहती थीं— "जुड़ायल रह", यानी जुड़े रहो, फलों-फूलों, संतुष्ट रहो।
इस समय से ग्रीष्म ऋतु का यौवन प्रारंभ होता है और देवता-घर में घड़े में रखे बासी जल को प्रतीकात्मक तौर पर सिर पर इसलिए डाला जाता है ताकि पूरी गर्मी हमारा मस्तिष्क ठंडा रहे और लू से हमारी रक्षा हो। सच कहूं तो माथे पर रखे उस चुल्लू भर जल से वाकई ऐसी ठंडक मिलती थी कि बहुत देर तक लगता था मानो किसी ने सूखी बंजर मिट्टी में पानी डाल दिया हो।
नव वर्ष के दिन मिथिला में बासी खाना खाने की परंपरा रही है। कई प्रकार के व्यंजन एक दिन पूर्व ही बनाए जाते हैं, जिसमें कढ़ी-चावल, दाल की पूरी, सहजन की सब्ज़ी आदि प्रमुख हैं। बासी खाना खाने के पीछे का कारण यह है कि ऐसा माना जाता है कि इस दिन से ग्रीष्म ऋतु की शुरुआत हो जाती है और बासी खाना पेट को ठंडक पहुंचाता है। सहजन (ड्रमस्टिक) के सेवन से ‘जॉन्डिस’ और ‘चिकन पॉक्स’ से हमारी रक्षा होती है, तो दूसरी तरफ आम की चटनी लू से रक्षा करती है।
जुड़-शीतल के दिन पेड़ों में पानी डाला जाता है और नए पौधे लगाए जाते हैं। मुझे याद है कि इस दिन हम दादाजी के साथ बाग में जाते थे। दादाजी ने अनगिनत पौधे लगाए थे। हम हर पेड़-पौधे में पानी डालते थे, साथ ही कहते जाते थे— "जुड़ायल रह, जुड़ावइत रहा"। इस दिन मिट्टी के घड़े भी दान किए जाते हैं। कुछ क्षेत्रों में गीली मिट्टी की होली खेली जाती है। आपने ‘Mud Spa’ और ‘Mud Bath’ का नाम तो अवश्य सुना होगा या वहाँ गए होंगे, जो महंगे दामों में उपलब्ध हैं। लोग बड़े शौक से पैसे खर्च कर यहाँ गीली मिट्टी में लोटने जाते हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि हमारे यहाँ यह परंपरा न जाने कितनी पुरानी है।
जुड़-शीतल के दिन लोग गीली मिट्टी में एक-दूसरे को सराबोर कर देते हैं। इसके पीछे का एक कारण यह है कि इससे शरीर ठंडा रहता है और इंसान आने वाले गर्म मौसम और लू के थपेड़ों से बचने के लिए खुद को तैयार कर लेता है। यह हमें याद दिलाता है कि हम सबकी काया एक दिन इसी मिट्टी में मिल जाएगी, अतः ज़मीन से जुड़े रहें, संतुष्ट रहें। साथ ही, यह उत्सवी तरीका जल संसाधनों की सफ़ाई का भी सामुदायिक तरीका था। यह त्योहार स्वच्छता, जल संरक्षण के साथ-साथ प्रकृति से जुड़ने और ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की भावना को अपने अंदर समाहित किए हुए है।
वक़्त के साथ हम अपने लोक त्योहारों और रीति-रिवाजों से विमुख होते जा रहे हैं और इसका सीधा प्रभाव हमारे पारिस्थितिकी तंत्र पर पड़ता जा रहा है। वर्तमान समय में स्वच्छता का प्रश्न राष्ट्रीय विमर्श का बड़ा हिस्सा बना है। नदियों की सफाई के लिए व्यापक स्तर पर मुहिम चलाई जा रही हैं। जुड़-शीतल का त्योहार साफ-सफाई से जुड़ा एक त्योहार भी है। इस दिन जल स्रोतों को साफ किया जाता था और आसपास सड़कों-मुहल्लों की स्वच्छता का विशेष ध्यान रखा जाता था।
‘थैंक्सगिविंग डे’ तो आपने खूब सुने अथवा मनाए होंगे, पर यह त्योहार हमारे मिथिलांचल का ‘थैंक्सगिविंग डे’ ही है। जहाँ बासी खाना स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, वहीं एक मान्यता यह भी है कि साल भर बाद चूल्हे को आराम देना, शुक्रिया कहना। इस दिन चूल्हे की पूजा भी विशेष तौर पर की जाती है। आज के दिन हम शुक्रिया अदा करते हैं— प्रकृति का, पेड़-पौधों का और यहाँ तक कि चूल्हे का भी, जिससे हमारा अस्तित्व बना हुआ है। यह अंधविश्वास नहीं, बल्कि ‘रेड अलर्ट’ पुस्तक के प्रसिद्ध लेखक डेनियल वाइल्डकैट के शब्दों में कहें तो यह इंडिजेनस रियलिज्म है, जिसमें भावनात्मक रूप से जीवन के यथार्थ को जिया जाता है।
लेखिका मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा से परास्नातक करने के बाद स्वतंत्र लेखन करती हैं