देशज ज्ञान परम्परा: हम क्या चाहते हैं, जीना या जीतना?
हम परमेश्वर के लिए नहीं लड़तेI हम ईश्वर के नाम पर नहीं लड़तेI उनके नाम पर कभी हिंसा करने का हमारा इतिहास नहीं हैI हाँ, कभी-कभी हम कुछ छोटी आर्थिक जरूरतों के लिए आपस में उलझ जाते हैंI लेकिन, हम नहीं चाहते कि हम आकासीय ईश्वर के लिए धरती पर एक दूसरे का क़त्ल करेंI यह जीवन दर्शन है अलास्का और उत्तरी अमेरिका के कई जनजातीय समुदायों काI यह दर्शन वाकई कमाल का हैI
इधर हम सब “मुख्यधारा” के लोग उसके नाम पर हिंसा करते हैं जिसके स्वरूप और होने या न होने के बारे में अलग-अलग राय हैI एक बात तो तय है कि “सभ्य समाज” का इतिहास और “असभ्य समाज” के इतिहास के बीच एक विभाजक रेखा खींची जाए तो कहा जा सकता है कि “असभ्य समाज” का इतिहास ईश्वरीय संघर्षों से वंचित समाज है, और “सभ्य समाज” का इतिहास ईश्वरीय संघर्षों से समृद्धI हमारे यहां साम्प्रदायिक फसादों, और नरसंहारों का पूरा इतिहास भरा है, और भविष्य में इसके न होने के दावे भी नहीं किये जा सकतेI
निस्संदेह हमें लगता है कि अगर दुनिया को बचाना है तो हमें जनजातीय और देशज ज्ञान परम्परा को बचाना होगाI हमें उनसे सीखना होगा कि ईश्वर के नाम पर समाज को डराना स्वयं ईश्वरीय अस्तित्व को और भी अधिक संदिग्ध बना देता हैI ईश्वर का डर, असुरक्षा, हिंसा, हत्या और नरसंहार से सम्बन्ध कैसे हो सकता!
कुछ वर्ष पहले जेम्स कैमरून की एक मूवी आई थी- ‘अवतार’I इसमें हमारी दुनिया से “जनजातीय” दुनिया में आया एक आदमी वहां के एक स्थानीय देवता से कामना करता है कि उसे युद्ध में विजयी बनाये, तो इसपर वहां की स्थानीय “जनजातीय” नायिका कहती है कि “हमारा ईश्वर किसी का पक्ष नहीं लेता, बस वह संतुलन बनाता है”I ईश्वर पर इस तरह का विचार दर्शन जनजातीय समाज में ही मुखर रूप में दिखाई पड़ता हैI इधर यहां हम अपने ईश्वर को पक्षपातों से मुक्त रख ही नहीं पातेI और यहीं से समस्या और संघर्ष शुरू हो जाते हैंI
उनके जीवन मूल्यों के संतुलन को समझने के लिए हम एक और उदाहरण लेते है- उत्तरी अमेरिका में एक विलुप्त प्राय जनजाति है ‘मचिंग्वे’- वे ऊंची आवाज में झगड़ना या चीखना प्रकृति के संतुलन के विरुद्ध मानते हैंI उनका विश्वास है कि अगर वे तेज आवाज में बोलेंगे तो प्रकृति दुखी होगी, और वह कोई आपदा ला सकती हैI
निश्चय ही उनका यह जीवन दर्शन न जाने कितने गैर-जरुरी संघर्षों से उन्हें बचाए रखता होगा! इधर हम अपने यहाँ ऊँची आवाजों को ऊँचे व्यक्तित्व का परिचायक मानते हैं, जबकि ऊंची आवाज एक गैर-दैहिक हिंसा भी हैI इसी तरह भारत समेत दुनिया के देशज ज्ञान प्रणाली पर अगर ध्यान दे तो आपको दिखेगा कि प्रकृति और मानवीय जीवन को केंद्र में रखकर उन्होंने अपने समाज की अर्थव्यवस्था, कला, संस्कृति, शिक्षा, नैतिकता और अन्य पक्षों का निर्माण किया थाI उनके जीवन दर्शन में कुछ भी महत्वहीन नहींI सब एक दूसरे से जुड़े हैं, और सबकों एक दूसरे की जरुरत हैI किसी का स्वायत्त अस्तित्व नहींI
यह अक्सर भुला दिया जाता है कि जनजातीय जीवन दृष्टि और आधुनिक वैज्ञानिक जीवन दृष्टी में अपने मूल स्वरूप में कोई अंतर नहीं हैI वास्तविकता को दोनों ही जीना चाहते हैंI अंतर बस इस बात का है कि एक बस वास्तविकता को जीना चाहते हैं, और दूसरा उसके पीछे की प्रक्रिया को भी जानना चाहता हैI इसे डैनियल वाइल्डकैट अपनी किताब ‘रेड अलर्ट’ में देशज यथार्थवाद (इंडिजेनस रिअलिस्म) की संज्ञा देते हैंI
वे लिखते हैं कि वास्तविकता केवल तथ्य और आंकड़े मात्र नहीं है, वास्तविकता जीवन से जुड़े सभी चीजों के प्रति एक सम्मान और श्रधा भाव भी हैI यह जानने से अधिक जीने का भाव हैI जीवन को हम जहां टुकड़ों में समझना चाहते हैं तो दूसरी तरफ वे इसे सम्पूर्णता में देखते हैं; जैसा कि अलास्का के जनजाति कहते हैं- ‘मिताकुआ ओयसिन’, यानि इस संसार में सबकुछ एक दूसरे से संयुक्त हैI संभवत ऐसे ही दर्शन से प्रेरित होकर यही बात पर्यावरणीय नारीवादी अपना मुख्य नारा बनाते हैं- ‘इट्स ऑल कनेक्टेड’I
एक के ऊपर पड़ने वाला प्रभाव जीवन और प्रकृति के अनगिनत हिस्सों को प्रभावित करता हैI उदाहरण के लिए भारत में तालाब लोगों के लिए केवल पानी का गड्ढा नहीं, यह उनकी संस्कृति, धर्म, कृषि और आजीविका के अन्य श्रोतों की प्रेरक इकाई हैI एक तालाब का सूखना उनकी संस्कृति और अर्थतंत्र को भी अकाल से ग्रसित कर जाता हैI तालाब के साथ ही इनका भी अंत हो जाता हैI
पारंपरिक समाज यहाँ प्रकृति के साथ एक नातेदारी विकसित किये हुए हैं जिसे अक्सर ‘इकोलॉजिकल-किनशिप’, यानि पर्यावरणीय-नातेदारी से समझा जाता हैI धरती उनकी माता हैं, पहाड़ उनके पिता, नदियां उनकी देवी, पेड़ उनके भाई और इसी तरह अन्य जीव जंतुओं से उनका अपना विशिष्ट सम्बन्ध हैI उन्होंने अक्सर अपने उपनाम को किसी जीव, पहाड़ या जीव से युक्त रखा हैI
जैसे झारखंड की एक जनजाति अपने नाम में ‘लाकड़ा’ लगाकर बाघों से अपने सम्बन्ध को दिखाते हैं, दूसरी मिंज लगाकर किसी चिड़िये आदि सेI जनजातीय जीवन दर्शन के केंद्र में कोई एक जीव या अजीव नहीं है, जैसा कि हमारे यहां दर्शन और विचार के केंद्र में मनुष्य और केवल मनुष्य हैI यह दिक्कत आधुनिक विज्ञान के साथ भी है, और संस्थागत मजहबों के साथ भीI दोनों ही ‘होमोसेंट्रिक’, यानि ‘मनुष्य केन्द्रित’ हैI दोनों ही धरती के संसाधनों का पहला अधिकारी मनुष्यों को घोषित करते हैंI जबकि जनजातीय समाज स्वयं को प्रकृति से अलग नहीं मानते I
उनमे धारणीयता की समझ परम्परा से विकसित रही हैI इसलिए वे जब जीते हैं तो संकट में कुछ नहीं आता, लेकिन हमारे जीवन दर्शन से ‘ग्लोबल वार्मिंग’ और ‘बर्निंग’ सब होने लगेI हजारों वर्षों तक दुनिया उनके जीवन मूल्यों के प्रभाव में थी इसलिए ‘वार्मिग’ और ‘बर्निंग’ उनके विमर्श में नहीं आया, लेकिन आधुनिक वैज्ञानिकता और संस्थागत विश्वास मजहबों के विकसित होते ही सब कुछ संकटमय होता चला गयाI
यह मात्र कोई कल्पना नहीं है कि आज दुनिया का अस्तित्व अनिश्चित हैI यह भयावह सच हैI और यह संकट संसाधनों का ही नहीं, संवेदनाओं और मानवीय संबंधों का भी हैI व्यक्ति से लेकर समाज और अर्थव्यस्था से लेकर राजनीति तक संकट में हैI धरती को जीत लेने की धारणा हमारी वैज्ञानिक सोच है, और धरती के साथ जीने का विश्वास देशज और जनजातीय ज्ञान का मूलI हम क्या चाहते हैं? जीना या जीतना- हमें तय करना होगाI
नोट: केयूर पाठक का यह लेख मानवशास्त्र विभाग, डॉ. हरिसिंह गौर केन्द्रीय विश्विद्यालय, सागर में दिए गए व्याख्यान का अंश है।