ऐसे किया जा सकता है उत्तराखंड की पर्यावरणीय सेवाओं का आंकलन

हाल ही में हुए हिमालयन कॉन्कलेव में हिमालयी राज्यों को ग्रीन बोनस देने की मांग की गई है, क्या इसका आकलन करना आसान है
Photo: Varsha Singh
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जिस हवा, मिट्टी, पानी के बिना जीवन की कल्पना संभव नहीं है, उसके मूल्य का आंकलन करना क्या संभव है। इसका जवाब नहीं ही होगा। लेकिन मनुष्यों को इसकी अहमियत बताने के लिए हवा-पानी-मिट्टी समेत अन्य प्राकृतिक तत्वों के मूल्य का आंकलन करने की कोशिश की गई।

उत्तराखंड पूरे देश को जो पर्यावरणीय सेवाएं मुहैया करा रहा है, उसकी कीमत क्या होगी। इसके लिए भोपाल के इंडियन इस्टीट्यूट फॉर फॉरेस्ट मैनेजमेंट के सहयोग से एक रिपोर्ट तैयार की गई। ‘ग्रीन एकाउंटिंग ऑफ फॉरेस्ट रिसोर्स, फ्रेमवर्क फॉर अदर नेचुरल रिसोर्स एण्ड इण्डेक्स फॉर सस्टनेबल एनवायरमेंटल परफॉर्मेंस फॉर उत्तराखण्ड स्टेट’ नाम से तैयार की गई इस रिपोर्ट में राज्य के वन संसाधनों के आर्थिक महत्व को मौद्रिक रूप में मापने का प्रयास किया गया है। राज्य की 18 वन सेवाओं का फ्लो वैल्यू 95,112,60 करोड़ और तीन सेवाओं का स्टॉक वैल्यू  14,13,676.20 करोड़ आंका गया है।

यानी उत्तराखंड हर वर्ष पूरे देश को 95 लाख करोड़ रुपये से अधिक मूल्य की पर्यावरणीय सेवाएं मुहैया करा रहा है। यदि किसी राज्य को उसके पर्यावरणीय उत्पादों का भुगतान किया जाए तो इतनी रकम राज्य की आर्थिक जरूरतों को पूरा कर सकती है। दरअसल, उत्तराखंड सरकार की कोशिश जीडीपी की तर्ज पर जीईपी (ग्रॉस इनवायरमेंटल प्रोडक्ट) के आंकलन की थी। इससे लंबे समय से चली आ रही ग्रीन बोनस की मांग को राज्य सरकार प्रभावी तरीके से केंद्र सरकार के सामने रख सकेगी। 

उत्तराखंड के 70 प्रतिशत भू-भाग पर जंगल हैं। इसके साथ ही ग्लेशियरों, उच्च पर्वत शिखरों और गंगा, यमुना समेत कई अन्य नदियों का उद्गम क्षेत्र होने के नाते इससे हासिल होने वाले पर्यावरणीय और अन्य स्वास्थ्य वर्धक सुविधाओं का लाभ लगभग पूरे देश को मिल रहा है। मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने कहा कि हमें बहुत दिन से फॉरेस्ट रिसोर्स और उसकी एकाउंटिंग की जरूरत थी। उन्होंने कहा कि अब अब हमारे पास एक अध्ययन रिपोर्ट है, जो राज्य की ग्रीन बोनस की मांग के लिए मजबूत आधार हो सकती है।

ग्रॉस इनवॉयरमेंट प्रोडक्ट यानी जीईपी के आंकलन के लिए उत्तराखंड में काफी समय से प्रयास चल रहे थे। पर्यावरण को लेकर कार्य कर रही देहरादून की संस्था 'हिमालयन इनवायरमेंटल इंडस्ट्रीज़ एंड कन्जरवेशन ऑर्गनाइजेशन' यानी हेस्को ने वर्ष 2011 में नैनीताल हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दाखिल की। इस याचिका पर राज्य सरकार ने हाईकोर्ट में जवाब दाखिल किया और कहा कि हमारे पास ऐसा कोई इंडीकेटर नहीं है जिससे हम जीईपी बता सकें। जिसके बाद ये याचिका खारिज कर दी गई।

वर्ष 2013 में केदारनाथ आपदा के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने इस मामले में संज्ञान लिया। मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई। जिसमें वन विभाग के अधिकारी, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन इकॉलजी के डायरेक्टर समेत अन्य लोग शामिल थे। इस कमेटी की दो बैठकें भी हुईं। लेकिन उसके बाद मुख्यमंत्री बदल गये और मामला ठंडे बस्ते में चला गया।विजय बहुगुणा के बाद मुख्यमंत्री पद पर आए हरीश रावत ने इस मामले पर संज्ञान नहीं लिया और मामला ठप पड़ गया।

हेस्को के संस्थापक अनिल जोशी ने बताया कि जंगल, पानी, हवा, मिट्टी जैसे जीडीपी के इंडीकेटर तय किये गये हैं। जंगल की गुणवत्ता और एक वर्ष के अंतराल में जंगल का कितना क्षेत्र बढ़ाया गया। जंगल की गुणवत्ता के तहत किस तरह का पौध रोपण किया गया। जैसे चीड़-पाइन के वृक्ष उत्तराखंड के लिये घातक साबित हुए। साल या ओक के वृक्ष बेहतर हैं। तो किस तरह के वृक्ष लगाये जाने चाहिए, इस पर क्या कार्य किया गया। ये सब जंगल के मूल्य को तय करेंगे।

जंगल समेत 18 पर्यावरणीय सेवाओं का का आंकलन कर आईआईएफएम-भोपाल ने उत्तराखंड सरकार को ये सौंपी है। ग्रीन बोनस के साथ ही ये रिपोर्ट इस बात को समझने में भी मदद करेगी कि यदि एक पहाड़ को काटकर सड़क बनाई गई तो हमने पहाड़ काटने में कितने रुपये का नुकसान किया। नदी की कीमत तय की गई है तो हाईड्रो पावर प्रोजेक्ट लगाने के लिए हम नदी को कितना मौद्रिक चोट पहुंचा रहे हैं, ये समझा जा सकता है। 

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