फोटो: आईस्टॉक
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भूमण्डलीय प्रदूषण और मानवीय भूमिका एक चुनौती

वन, वायु, जल, भूमि, आकाश हमारे लिए प्रकृति के अमूल्य उपहार हैं और मानव ने अपनी संस्कृति व सभ्यता का सर्वप्रथम विकास इन्हीं नदी-घाटियों एवं वनों के इर्द-गिर्द किया
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19वीं सदी के बाद विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कल्पनातीत प्रगति होने लगी। फलस्वरूप लोगों का जीवन अधिक सुखद एवं उनकी जीवन-अवधि बढ़ने लगी, साथ ही उनकी भौतिक आवश्यकताओं में भी तेजी से वृद्धि होने लगी। उनकी मांगों को पूरा करने के लिए नित-नये उद्योगों की स्थापना आवश्यक होने के परिणामस्वरूप उर्जा की मांग में तेजी से वृद्धि होने लगी।

इसके लिए अधिकाधिक मात्रा में जीवाश्म ईंधन-कोयला, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैसें-जलाए जाने लगी। जिसके कारण कार्वन-डाई आक्साइड की मात्रा भी बढ़ने लगी, जो निरन्तर जारी है।1 यही नहीं, कुछ प्राकृतिक कारणों से भी वायुमण्डल में कार्बन-डाई आक्साइड की मात्रा घटती-बढ़ती रहती है। दिन के समय पेड़-पौधे, प्रकाश संश्लेषण क्रिया के लिए वायुमण्डल से कार्बन-डाई आक्साइड लेते हैं, परन्तु रात के समय वे ऐसा नही करते वरन् सांस के रूप में उसे ही छोड़ते रहते हैं। इसलिए वायुमण्डल में दिन के मौसम में कार्बन-डाई आक्साइड बढ़2 जाने के कारण प्रदूषण भी बढ जाता है।

विश्व में हो रही नित-नवीन प्रयोगों एवं खोजों ने एक ओर जिंदगी को आसान बना दिया है परन्तु दूसरी ओर नित प्रतिदिन नई-नई बीमारियां एवं प्रदूषण ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। अर्थात विकास से ज्यादा भूमण्डलीय प्रदूषण चर्चा और चिंता का विषय बनता जा रहा है, जो कि विश्व के सम्मुख एक बड़ी चुनौती के रूप में है।

दिल्ली में दिनों-दिन हो रही प्रदूषण में वृद्धि कहीं न कही इस ओर संकेत कर रही है कि यदि समय रहते इस ओर गम्भीरता से ध्यान नही दिया गया तो स्थिति और भी विकट हो सकती है। क्रिकेट मैच के दौरान श्रीलंकाई खिलाडि़यों के द्वारा मास्क पहनना, भले रणनीति का ही हिस्सा क्यों न रहा हो, परन्तु इस बात से इन्कार नही किया जा सकता है कि जिस प्रकार दिल्ली में प्रदूषण की मात्रा बढ़ रही है वह स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होती जा रही है।

दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण के कारण जिस प्रकार से स्कूल जाते बच्चे हो या आम नागरिक घर से बाहर मास्क पहकर निकल रहे है वह दिल्ली में बढते प्रदूषण की ओर संकेत करते है। बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकतापूर्ति के लिए नित-नवीन कल कारखानें, भोजन बनाने के लिए हो रही उर्जा खपत, सुविधाभोगी जीवन के लिए विभिन्न प्रकार के अप्राकृतिक यंत्र एवं साजो समान ने कहीं न कहीं प्रदूषण एवं पृथ्वी के तापमान बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

भले ही अतीत में भी इस प्रकार के उदाहरण मिलते हैं जिसके कारण अनेकों जीवों का अस्तित्व समाप्त हो गया और नये जीवों का प्रर्दापण हुआ है। चाहे भयंकर प्राकृतिक आपदाओं का आना हो, पूर्व में भी इस प्रकार की घटनाएं होती रही हैं, परन्तु इसका यह मतलब नही है कि हमें हाथ पर हाथ रखकर चुप बैठ जाना चाहिए। क्योंकि पूर्व में अधिकतर घटनाएं प्राकृतिक थी, जिन्हें रोका नही जा सकता था, लेकिन आज इन घटनाओं को बढ़ानें में मानवीय कारण सबसे अधिक जिम्मेदार है इनको रोका तो नही जा सकता पर कम अवश्य किया जा सकता हैं।

पूर्व हमारे ऋषि-मुनि हिमालय के वनों में आकर तपस्या करते थे। वहां उन्हें वह वातावरण मिल जाता था जिसमें वे एकाग्रसित होकर परमात्मा का चिंतन कर सकते थे। वहां उन्हें वह मानसिक शांति मिल जाती थी जो शहरों में दुर्लभ थी। उसी मानसिक शांति की तलाश में हमारे पराक्रमी सम्राटों से लेकर जनसाधारण तक, अपने जीवन के संध्या काल में हिमालय की गोद में चले जाते थे।

आम लोगों को जीवन संघर्ष की कठिनाइयां और चिंताओं से, कुछ समय के लिए छुटकारा दिलाने के उद्देश्य से कदाचित हमारे पूर्वजों ने हिमालय पर्वत श्रेणियों में अनेक तीर्थ स्थल स्थापित किये। प्राचीन काल से ही इन तीर्थ स्थलों में भगवान के दर्शन करने और मानसिक शांति प्राप्त करने के उद्देश्य से लोग बड़ी संख्या में आते रहे हैं और अब भी आते है।

यह बात निश्चित रूप से नही कही जा सकती कि हर तीर्थ यात्री को अपने भगवान के दर्शनों से मानसिक शांति प्राप्त हो जाती है, परन्तु हिमालय प्रदेश की सुखद और स्वास्थ्यवर्धक जलवायु और अद्वितीय प्राकृतिक दृश्य उसे, कुछ समय के लिए ही सही, शांति प्रदान करने की कोशिश अवश्य करते हैं।3

यही कारण है कि जितना बड़ा शहर उतनी घनी आबादी और उतने ही अधिक कल-कारखाने तथा विभिन्न प्रकार के यातायात के साधन, गर्मी एवं सर्दी से निजात पाने के लिए तरह-तरह के कृत्रिम उपायों से प्रदूषण का खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है जिससे निजात पाने के लिए लोग पहाड़ों पर घूमने आते है। लेकिन धीरे-धीरे इसका प्रभाव पहाड़ी पर्यटक स्थलों जैसे; मसूरी, नैनीताल, कौसानी, धनोल्टी, मनाली, शिमला आदि पर भी साफ देखा जा सकता है। कभी पंखारहित इन शहरों में आज अधिकतर होटल वातानूकूलित है, जो कि बढ़ते तापमान एवं प्रदूषण के कारण ही हुआ है।

वन विनाश का प्रभाव:

कारखाने, बांध आदि के निर्माण के लिए पहले हरी-भरी धरती से वन काटने पड़ते हैं। वनों की कटाई से धरती की वह ऊपरी परत जिस पर वनस्पति उगती है, कमजोर पड़ जाती है। पहाड़ों पर तेजी से होने वाली वर्षा उसे काट-काट कर बहाने लगती है। इससे दोहरी हानि होती है। पहली भूमि पर से वह ह्नयूमरस की परत, जिसके निर्माण में वर्षों लग जाते है, हट जाती है और धीरे-धीरे भूमि का उपजाऊपन समाप्त हो जाता है।

दूसरी हानि धरती की ऊपरी परत के हट जाने पर वर्षा का पानी, पहाड़ी ढालानों पर अवशोषित एवं रिसे बिना ही बह कर मैदानी भागों में पहुंच जाता है। इससे एक ओर जहां पानी की अधिकता के कारण मैदानों में बाढ़ आने से तबाही मच जाती है वहीं पर्वतीय क्षेत्र में पानी की कमी की वजह से जलस्रोत सूख जाते हैं और नदियों में पानी की कमी हो जाती है।

नैनीताल जिले में गोला नदी के जलग्रहण क्षेत्र में लगभग 45 प्रतिशत झरने सूख गये है अर्थात उनमें वर्षा ऋतु में ही पानी रहता है4 बाकि समय वह सूख जाती है। उत्तराखण्ड में ऐसे तमाम नदियां, झरने एवं प्राकृतिक जलस्रोत है जो वर्षा ऋतु को छोड़कर अधिकतर समय सूख जाते हैं। सड़क निर्माण के दौरान होने वाला मलवा, वर्षा से बहकर मैदानी भागों में चला जाता है।

यह मलवायुक्त पानी नीचे जाते समय अपेक्षाकृत कहीं अधिक तेजी से पहाड़ों को काटता है और नदियों में भर जाता हैं, जिससे नदियों में गाद की मात्रा बढ जाती हैं। परिणामस्वरूप नदियों के मार्ग उथले हो जाते हैं जिससे बाढ़ के दौरान नदियों का पानी और बड़े क्षेत्रों में फैलने लगता है, जिससे खेतीयुक्त उपजाऊ भूमि को बहुत अधिक हानि पहुंचती है।

वैश्विक ताप आज हमारे समक्ष विश्व की एक प्रमुख पर्यावरणीय चुनौती के रूप में चिंता का विषय बन गई है। ऐसा माना जा रहा है कि विश्व भर का बढ़ता तापमान मौसम में परिवर्तन लायेगा, समुद्र के जलस्तर में वृद्धि करेगा तथा मौसम आधारित बदलावों की तीव्रता और आवृत्ति बढेगी।

इसीलिए वैश्विक तापमान को लेकर विश्व भर में चिन्ता व्याप्त है और इससे निपटने के लिए पर्यावरण संरक्षण के प्रयास तेजी से किए जाने की आवश्यकता महसूस की जा रही है। भले विगत शताब्दियों में पृथ्वी की जलवायु में बहुत अधिक परिवर्तन नहीं हुआ है, फिर भी जो मामूली सा परिवर्तन आया है, उसके प्रभाव से हम अछूते नही हैं।

तापमान में केवल एक या दो डिग्री सेल्सियस के अंतर के कारण ही धरती के अनेक भागों में कृषि में परिवर्तन हुआ है। चराई के लिए उपलब्ध क्षेत्र में भी परिवर्तन हुआ है, पानी की उपलब्धता पर भी इसका प्रभाव पड़ा है और इन सबके परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में लोगों को पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा है।5

विश्व के सभी देशों में कमोवेश बदले हुए मौसम के मिजाज के अनेक प्रलयकारी परिणाम समाने आ चुके हैं और अब भी जारी हैं। संपूर्ण विश्व में कहीं सुनामी तो कहीं तूफान और कहीं अतिवृष्टि हो रही है। प्रलयकारी तूफानों के कहर से अति विकसित राष्ट्र भी नही बच पाये हैं। भूमंडल के बढ़ते तापमान का असर भूमंडल पर मौजूद बर्फ के पिघलने, समुद्री जलस्तर के ऊपर उठने तथा परिवर्तित जलवायु के रूप में साफ दृष्टिगोचर हो रहा है।

हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र के ग्लेशियर, विश्व प्रसिद्ध किलिमंजारों पर्वत की बर्फ, आर्कटिक प्रदेश की बर्फ एवं उत्तरी गोलार्द्ध स्थित ग्रीनलैंड की बर्फीली चादरें तापमान वृद्धि के कारण हिमालय की चोटियों की बर्फ पिघल जाने से हिमालय की ऊँचाई 3.7 मीटर कम हो गई है।

सन् 1975 में हिमालय की ऊंचाई 8,848.13 मीटर मापी गई थी, जो अब घटकर 8,844.43 मीटर रह गई है।6 2 मई 2018 को देश के विभिन्न क्षेत्रों में आई तूफान ने कई जिन्दगियों को लील लिया तथा करोड़ों रुपये की जनधन की हानि सामने आई है। कई लोगों के मौत का समाचार है तो कई तूफान से धरासायी हुए पेड़ो एवं चटटानों के नीचे गाडिया दफन हो गई है। हम वैज्ञानिकता का कितना भी दंभ क्यों न भरे पर प्रकृति के सम्मुख सब नतमस्तक हैं।

भारत में बढ़ती जनसंख्या की आवश्यकतापूर्ति के लिए वैज्ञानिक खोजों के द्वारा नई-नई तकनीकी विकास विभिन्न प्रकार की रासायनिक खादें एवं कीटनाशक दवाओं के कारण लगातार प्रदूषण की गति बढ़ती जा रही है। एक ओर सुदूरवर्ती गाँवों तक सड़क निर्माण तथा दूसरी ओर विभिन्न नदियों में बनाये जाने वाले बांध परियोजनाओं में प्रयुक्त होने वाले विस्फोटक एवं भारी मशीनों से पहाड़ जर्जर होते जा रहे हैं।

औद्योगिकीकरण के कारण वनों का विनाश लगातार जारी है वहीं उनसे निकलने वाली विषाक्त गैसों, औद्योगिक कचरा आदि से भूमि, जल एवं वायु प्रदूषित होते जा रहे है। यातायात के प्रयोग में आने वाली लाखों मोटर गाडियों द्वारा छोड़े गए धुएं से पूरे वातावरण में एक धुंध सी छाई रहती है।

नये-नये परमाणु विस्फोटों, होली, दीवाली, नये वर्ष के आगमन, बकरईद, विभिन्न राजनीतिक पार्टीयों की जीत के जश्न में प्रयुक्त होने वाले रंग एवं पटाखों से जहां हम जल प्रदूषण को बढावा दे रहे है वहीं ध्वनि, वायु प्रदूषण को भी अत्यधिक मात्रा में बढ़ा रहे है। जिससे शहरों में सांस लेने में काफी तकलीफें पैदा हो गई है। भारत में दो तिहाई बीमारियां प्रदूषित जल के पीने से होती है, क्योंकि विभिन्न प्रकार के प्रदूषित पदार्थ प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से जल में मिलते रहते है जो कि जल के द्वारा मनुष्य के शरीर में पहुँच जाते है। जिससे पेचिश, टाइफाइड, पीलिया, हैजा तथा अतिसार जैसी बीमारियां बड़ी मात्रा में बढ़ती जा रही है।

बढ़ती आबादी के कारण देश के अधिकांश महानगरों में कानून व्यवस्था बनाये रखना बड़ी चुनौती बनती जा रही है। ट्रैफिक अवरोध तथा वायु एवं धुआं प्रदूषण से सांस एवं आँखों की अनेकों बीमारियां लगातार बढ़ती जा रही है। शहर दिन-प्रतिदिन बनती जा रही इमारतों से ढकते जा रहे है और बढती जनसंख्या के कारण शहरी क्षेत्र जल, वायु एवं भूमि प्रदूषण की विश्वव्यापी समस्या से जूझ रहे है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अनियंत्रित्र विकास और औद्योगिकीकरण के कारण प्रकृति को संसाधन के रूप में देखा जाने लगा, धीरे-धीरे श्रद्धा-भाव का लोप होता गया और उपभोग की प्रवृत्ति निरंतर बढ़ती चली गई। चूँकि नदी से जंगल, पहाड़, वन्य जीव, पक्षी और जन-जीवन गहरे तक जुड़े हुए है, इसलिए जब नदी पर संकट आयेगा, तब उससे जुड़े सभी सजीव-निर्जीव प्रभावित हुए बिना नही रह सकते और उनके अस्तित्व पर भी संकट मंडराने लगेगा।7

अर्थात जैसे-जैसे सभ्यता का विस्तार होता गया वैसे-वैसे प्रदूषण से नदियों के अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा। मैदानों में गंगा प्रदूषण की स्थिति कितनी भी विकराल क्यों न रही हो पहाड़ में सदा शुद्ध, शीतल ही रही है। अब वह पहाड़ी मार्ग की जड़ी-बूटियों या पौधों का असर रहा हो या पत्थरों, चट्टानों से टकरा-टकरा कर टेढे-मेढे पहाड़ी रास्तों से होकर नदी का बहना, गंगाजल में शुद्धिकरण की प्रक्रिया मौजूद रही।

बहते जल में आक्सीजन की मात्रा भी अधिक होती है,8 किन्तु दिन-प्रतिदिन नदी जलस्तर गिरता जा रहा है तथा प्रदूषण की मात्रा बढ़ती जा रही है। अतः आज नदियों को सफाई से अधिक संरक्षण की आवश्यकता है जिससे नदियां अविरल रूप से बह सके।

वनों का महत्व:

वृक्षों के महत्व को इंगित करते हुए कहा गया है कि जलाशय के समीप पीपल का वृक्ष लगाकर मनुष्य जिस फल को प्राप्त करता है वह सैकड़ों यज्ञों से भी प्राप्त नहीं हो सकता है। प्रत्येक पर्व में उसके जो पत्ते जल में गिरते है वे पिण्ड के समान पितरों को अक्षय वृद्धि प्रदान करते है। उस पेड़ पर रहने वाले पक्षी जो फल खाते है उसका ब्राहमण भोजन के समान अक्षय फल माना जाता है।

गर्मी से बचने के लिए लोग पीपल की छाया में बैठते है उसे लगाने वाले मनुष्य के पितरौं को अक्षय स्वर्ग की प्राप्ति होती है। पीपल की जड़ के पास बैठकर जो जप तथा अनुष्ठान किये जाते है उन सबका करोड़ गुना फल होता है। पीपल को रोपने, रक्षा करने, छूने तथा पूजने से क्रमशः धन, पुत्र, स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त होता है।

पीपल को देखने मात्र से रोगों का नाश, छूने से पाप दूर होते है तथा आश्रय लेने से दीघार्यु प्राप्त होती है। कहा भी गया है कि “यं दृष्टा मुच्यते रोगैः स्पृष्टापापैः प्रमुचयने। यदाश्रया चिरंजीवी तमश्वत्वां नमाम्यहम्।9 वेल के आठ, बरगद के सात और नीम के दस पेड़ लगाने से जो फल मिलता है वही फल पीपल के एक पेड़ लगाने से प्राप्त होता है। कहा गया है कि पीपल का पेड़ हजार पुत्रों का फल देता है। अतः पीपल का पेड़ लगाने से मुनष्य धनी होता है, अशोक का वृक्ष दुःख का नाश करता है, पाकर का वृक्ष यज्ञ का फल देता है, नीम का वृक्ष आयु प्रदान करने वाला तथा जामुन का पेड़ कन्या देने वाला कहा जाता है।

अनार का पेड़ पत्नी प्रदान करता है, अंकोल का वृक्ष लगाने से वंश की वृद्धि होती है, खैर का पेड़ लगानें से अरोग्य की प्राप्ति होती है, चन्दन और कटहल के पेड़ क्रमशः पुण्य और लक्ष्मी देने वाले होते हैं। चम्पा का पेड़ सौभाग्य प्रदान करता है, मौलागिरी से कुल की वृद्धि होती है, केवड़ा शत्रु का नाश करता है। इसी प्रकार अन्यान्य वृक्षों से यथायोग्य फल प्राप्त होते हैं।10 इस प्रकार वनों के साथ हमारा गहरा और आत्मीय रिश्ता युगों-युगों से रहा हैं।

प्रकृति ने उपहारस्वरूप हमें जो कुछ भी दिया है, उसके दोहन का अवसर भी दिया हैं, किन्तु प्रगति की दौड़ में डग भरने वाला आज का सभ्य मानव प्राकृतिक संतुलन को अव्यवस्थित करने में लगा हुआ हैं। सदाबहार वन अगर इस धरती को शीतल छाया और समृद्धि प्रदान करते हैं तो उसकी गोद से निकलने वाली जल धारायें अपने अमृत से न केवल धरती को सींचती हैं, वरन् प्राणीमात्र के जीवन को आधार भी प्रदान करती हैं।

वन, वायु, जल, भूमि, आकाश हमारे लिए प्रकृति के अमूल्य उपहार हैं और मानव ने अपनी संस्कृति व सभ्यता का सर्वप्रथम विकास इन्हीं नदी-घाटियों एवं वनों के इर्द-गिर्द किया है। नदियां हमारे अस्तित्व को बनाये रखने के लिए अमृत तुल्य जल देती हैं, इसलिए ये हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं। वायु और जल पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व के लिए नितांत आवश्यक हैं,11 जिनके बिना जीवन की कल्पना भी नही की जा सकती है।

जल की समस्या:

भारतीय संस्कृति में हमेशा से ही वनों और नदियों को पूजे जाने की परम्परा रही है, इसलिए हमारे धर्म ग्रंथों में विभिन्न वनस्पतियों एवं नदियों का गुणगान किया गया है, किन्तु आधुनिकता की दौड़ ने हमें इस तरह अंधा बना दिया है कि उसके कारण हम अपनी परम्पराओं एवं आस्था से दूर होकर मात्र रूढि़वादी नजरिया से देखने लगे है। परिणामस्वरूप मानवीय भूलों से पर्यावरणीय संकट पैदा हो गया है।

हमारे ग्रंथों में ऐसा कोई पेड़-पौधा, जीव-जन्तु व नदी नही है जिसको किसी न किसी रूप में भगवान का रूप या उसका प्रिय सवारी नही माना गया हो। एक पीपल के वृक्ष को लगाना हजार पुत्रों के समान माना गया है तो सांप को दूध पिलाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है गाय को माता कहकर पुकारा जाता है तो चूहें को गणेश का वाहन कहा जाता है तथा गंगा को पापहरनी कहा गया है।

हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा यह सब प्राकृतिक संतुलन को बनाये रखने के लिए एवं उनका संरक्षण किस प्रकार से हो, के लिए धर्म एवं आस्था से जोड़ा गया था। जिसको हम लगातार भूलते जा रहे है और इसी कारण आज प्राकृतिक असंतुलन, प्रदूषण, पेयजल, सिचाई आदि विभिन्न प्रकार की समस्यायें पैदा हो गई है, जिसको बढ़ानें में मनुष्य की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आज पूरे भारत में जिस प्रकार जल के लिए त्राही-त्राही मची हुई है वह आने वाले समय के लिए शुभ संकेत नही है।

कभी आंधी-तूफान तो कभी भंयकर गर्मी, कभी सोनामी तो कभी बाढ़ भूस्खलन यह सब ग्लोबल वार्मिंग के कारण हो रहा है फिरभी मनुष्य अपनी हरकतों से बाज नही आ रहा है और जंगलों में लगातार आग लगा रहा है जिससे एक ओर वन नष्ट हो रहे है तो दूसरी ओर जल स्रोत सूखते जा रहे है जिसके कारण पीने के पानी की समस्या लगातार विकराल रूप धारण कर रही है। देश का कोई भी कोना ऐसा नही है जहां पानी की समस्या न हो।

नीतियां इस प्रकार बनाई जा रही है कि देश में हर घर में शौचालय की योजना तो बन गई और शौचालय भी बनाये गये लेकिन उनके लिए पानी कहां से उपलब्ध होगा इसका किसी के पास कोई नीति नही है। जो कि समस्या को बढाने का कार्य ही कर रहा है जहां एक बोतल पानी से काम हो जाता था वहां पांच लीटर पानी भी कम पड़ रहा है।

निष्कर्ष:

पर्यावरणविदों का मानना है कि ग्लोबल वार्मिंग के चलते हो रहे जलवायु परिवर्तन निकट भविष्य में कई प्रजातियों के विलुप्त होने का सबसे बड़ा कारण बन सकता है। ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में वृद्धि होना है। मानवीय गतिविधियों से कार्बनडाई-ऑक्साइड, मीथेन, कार्बन मोनोआक्साइड, नाइट्रोजन आदि ग्रीन हाउस गैसों में बढ़ोत्तरी हो रही है जिससे इन गैसों का आवरण सघन होता जा रहा है।

यही आवरण सूर्य की परावर्तित किरणों को रोक रहा है जिससे पृथ्वी के तापमान में वृद्धि हो रही है। वाहनों, हवाई जहाजों, बिजली बनाने वाले संयंत्रों आदि से अंधाधुध हो रहे गैसीय उत्सर्जन से वायुमण्डल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि हो रही है।

जंगलों की बड़ी संख्या में हो रही कटाई भी ग्लोबल वार्मिंग की दूसरी सबसे बड़ी वजह है। जंगल कार्बनडाई-आॅक्साइड की मात्रा को प्राकृतिक रूप से नियंत्रित रखते है और आॅक्सीजन प्रदान करते हैं। रेफ्रीजरेटर, एयर कंडीशनर, अग्निशमन यंत्रों में प्रयुक्त होने वाली यह गैस पृथ्वी के ऊपर बने एक प्राकृतिक आवरण, जिसे हम ओजोन परत कहते हैं, को नष्ट करने का काम करती है।

ओजोन परत सूर्य की पराबैंगनी किरणों को धरती पर आने से रोकती है। क्लोरा-फ्लोरो कार्बन के बढ़ने से ओजोन परत को नुकसान हो रहा है, जिससे तापमान में वृद्धि भी हो रही है। बढ़ते तापमान का ही नतीजा है कि ध्रवों पर सदियों से जमंे बर्फ के ग्लेशियर पिघलने लगे हैं। ग्लेशियरो की बर्फ पिघलने से समुद्र में पानी की मात्रा बढ़ जाएगी, जिससे साल दर साल समुद्र की सतह बढ़ने लगेगी इसके कारण तटीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को पलायन करना पड़ेगा।

ग्लोबल वार्मिंग की वजह से कभी ज्यादा ठंड तो कभी ज्यादा गर्मी पड़ेगी जिससे लोगों को पहले से ज्यादा संक्रामक रोगों का सामना करना पड़ेगा। सूखे के कारण लोग शहरों की ओर पलायन करेंगे जिससे शहरों में आवासीय और जनसंख्या की समस्या विकराल होगी। ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव विकसित, विकासशील और अविकसित सभी देशों पर पड़ेगा। अगर समय रहते नही चेते तो आने वाले वक्त में और भयाभय स्थिति पैदा होने वाली है।

इसके लिए जंगलों में आग लगाने वालों पर कड़ी कार्यवाही की जानी चाहिए जिससे अन्य लोग भी इससे सबक ले सकें। साथ ही वर्षा पानी संचय को भी शौचालयों की तर्ज पर अनिवार्य बनाया जाय जिससे पानी की समस्या पर काफी हद तक निजात पाई जा सके।

सन्दर्भ सूची:

1.      शर्मा, श्यामसुन्दर एवं गोस्वामी, केदारनाथ; 2014ः ग्लोबल वार्मिंग: कारण और निराकरण, शिलालेख दिल्ली, पृष्ठ-54

2.      शर्मा, श्यामसुन्दर एवं गोस्वामी, केदारनाथ; 2014ः ग्लोबल वार्मिंग: कारण और निराकरण, शिलालेख दिल्ली, पृष्ठ-52

3.      मल्होत्रा, अशोक; 2012: हिमालय प्रदूषण, कंचन ग्राफिक्स, दिल्ली, पृष्ठ-9

4.      मल्होत्रा, अशोक; 2012: हिमालय प्रदूषण, कंचन ग्राफिक्स, दिल्ली, पृष्ठ-15-16

5.      मणी, दिनेश; 2009: ग्लोबल वार्मिंग, सत्यसाहित्य प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-9

6.      रावत, ज्ञानेन्द्र, नदियों का बढता निरादर, डेली न्यूज नेटवर्क, इंडिया वाटर पोर्टल (हिन्दी) पृष्ठ-1

7.      मणी, दिनेश; 2009: ग्लोबल वार्मिंग, सत्यसाहित्य प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-53

8.      प्रणव, वेदों में पर्यावरण चिंता, पर्यावरण विमर्श, इंडियां वाटर पोर्टल-हिन्दी पृष्ठ-1

9.      मिश्र, नित्यानंद एवं पाण्डेय, शिवचरण; 1998ः पर्यावरण संस्कृति, प्रदूषण एवं संरक्षण, अल्मोड़ा बुक डिपो, अल्मोड़ा पृष्ठ-98

10.   मिश्र, नित्यानंद एवं पाण्डेय, शिवचरण; 1998ः पर्यावरण संस्कृति, प्रदूषण एवं संरक्षण, अल्मोड़ा बुक डिपो, अल्मोड़ा पृष्ठ-96

11.   भारती, रेशमा, कल की गंगा, जनसत्ता, इंडिया वाटर पोर्टल-हिन्दी

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