राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के मौके पर डाउन टू अर्थ द्वारा श्रृखंला प्रकाशित की जा रही है। इस कड़ी में प्रस्तुत है वर्तमान में गांधी के सबसे बड़े हथियार अहिंसा की प्रासंगकिता पर उठते सवालों का विश्लेषण-
महात्मा गांधी के अहिंसा के विचार दुनियाभर को मुरीद कर रहे हैं। यह वजह है कि 15 जून, 2007 को संयुक्त राष्ट्र ने घोषित किया कि गांधी के जन्मदिन को अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाया जाएगा। यह प्रस्ताव सबसे पहले ईरानी नॉबेल पुरस्कार विजेता शिरीन इबाडी ने 2004 में दिया जो आगे चलकर भारत के लिए एक मजबूत वैश्विक पहचान बना।
150वीं वर्षगांठ पर गांधी को श्रद्धांजलि देने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि पूरी दुनिया प्रतीज्ञा करे कि वह किसी भी तरह की हिंसा से परहेज करेगी। आज दुनिया को बेहतर और खूबसूरत बनाने के लिए अहिंसा से बड़ा कोई अस्त्र और शस्त्र नहीं है। अहिंसा के विचारों के द्वारा ही स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को दुनिया भर में स्थापित किया जा सकता है। यह चेतना मनुष्य समाज ने लंबे संघर्ष के बाद हासिल की और इसके लिए हमें गौतम बुद्ध, जैन गुरुओं, महात्मा गांधी, बाबा साहब आंबेडकर, जूनियर मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मंडेला जैसे नेताओं व महापुरुषों का शुक्रगुजार होना चाहिए। हालांकि दुनिया भर के संविधानों में मान लिया गया है कि अहिंसा मनुष्य समाज के लिए बेहतर विकल्प है, लेकिन जरूरत है कि इस बात को वैचारिक और दर्शन के स्तर पर व्यवहारिक रूप से दुनियाभर में लागू किया जाए।
हार्वर्ड के प्रोफेसर लेसली के फिंगर का कहना है कि 21वीं सदी दुनिया के इतिहास में तुलनात्मक रूप से सबसे सुंदर दौर है। इसके बावजूद दुनिया के अधिकतम देशों में अशांति है। अधिकतम देश हिंसा और युद्ध के शिकार है। “इंस्टीट्यूट फॉर इकोनॉमिक्स एंड पीस” द्वारा हाल में किए गए एक अध्ययन में पाया गया है कि 162 देशों में से केवल 11 देशों में ही शांति की स्थिति है। युद्ध और हिंसा के कारण सीरिया, ईराक, अफगानिस्तान, मैक्सिको और सोमालिया में स्थिति दयनीय है।
“वर्ल्डदाटलास” के सर्वे अनुसार, 6 जून 2019 तक इन पांच देशों में लगभग 1,14,978 मृत्यु सिविल वॉर से हो चुकी हैं। दुनिया के इतिहास में युद्ध, हिंसा, लालच और सत्ता के नशे ने मानवीय सभ्यता को झकझोर कर रख दिया है। केवल प्रथम विश्व युद्ध में 8 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई है। हिटलर ने लगभग 5 करोड़ यहूदियों को होलोकास्ट में भयावह रूप से डाल दिया। यह हिंसक लड़ाई का सबसे बड़ा प्रतीक है। लाखों की संख्या में कम्युनिस्ट विद्रोह में आंदोलनकारी और जनता को मारा गया।
इसका साफ अर्थ और संकेत है कि आधुनिक सभ्यता युद्ध और उसके परिणाम के कारण बड़ी कीमत चुका रही है।
हालांकि यह विचार दुनिया में मजबूती से उभर रहा है कि समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे के लिए युद्ध जरूरी है। दुनिया में गरीबी, भुखमरी, गैरबराबरी, पर्यावरण असंतुलन, बिना युद्ध खत्म नहीं हो सकता। युद्ध खत्म करने के लिए युद्ध जरूरी है। लेकिन दुनियाभर के आंदोलनों और क्रांति के अनुभव से एक सीख लेनी चाहिए कि समानता और गैरबराबरी के लिए मनुष्य को युद्ध में ढकेल देना ठीक नहीं साबित हुआ है। जितनी बड़ी कीमत शोषित मनुष्य ने युद्ध और अहिंसा को दी, उसके मुकाबले कुछ भी हासिल नहीं हुआ है।
दरअसल, मनोवैज्ञानिक स्तर पर जब व्यक्ति को हिंसा की आदत लग जाती है तो वह हिंसा का इस्तेमाल अन्य जगह करता है। हिंसा एक स्वभाव है, आदत है और इसका दुरुपयोग कोई भी कर सकता है। चे ग्वेरा और फिदेल कास्त्रो ने क्रांति के लिए जनता को बंदूक दी, लेकिन सत्ता में आने के बाद जनता से बंदूक कैसे वापस ली जाए, इस विषय पर लंबा वाद-विवाद हुआ। समाज, बंदूक और राज्य एक साथ नहीं चल सकता। अंतोगत्वा कास्त्रो को जनता से बंदूक लेनी पड़ी।
आज दुनिया भर में यह समझदारी विकसित हो जानी चाहिए कि सत्याग्रह और अहिंसा के माध्यम से दुनिया भर में कई मांगें मनवाई जा सकती हैं। हार्वर्ड कैनेडी स्कूल की प्रोफेसर एरिका चेनोवेथ और मारिया जे स्टीफन की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि 20वीं सदी में सिर्फ 26 प्रतिशत हिंसक आंदोलन सफल और 64 प्रतिशत असफल रहे, जबकि इस दौरान 54 प्रतिशत अहिंसक अभियान सफल रहे। यानी हिंसक आंदोलनों की तुलना में अहिंसक आंदोलन बदलाव लाने में दोगुना ज्यादा सफल रहे। आज जरूरत है कि दुनिया इस व्यवहारिकता को पहचाने।
20 मार्च 1927 को जब महाड़ सत्याग्रह भीमराव आंबेडकर द्वारा किया जा रहा था तो उनके कई समर्थकों के साथ उनके पैर पर गहरी चोट आई। समर्थकों का बार-बार कहना था कि बाबा आप आज्ञा दीजिए। बदला लेने के लिए हम तैयार हैं। लेकिन बाबा साहब 5 सालों तक कोर्ट में मुकदमा लड़ते रहे। उन्होंने समर्थकों को हिंसा करने से मना कर दिए। वह समझते थे कि दलित कभी हिंसा से जाति के शोषण को खत्म नहीं कर सकता। उल्टे ऊंची जाति के लोगों द्वारा मजबूती से हिंसा का सहारा लेकर दलितों पर प्रहार किया जाएगा। यह स्थिति हाल में उस समय देखने को मिली जब सहारनपुर और भीमा कोरेगांव में हिंसा और प्रतिहिंसा हुई। हिंसा के जवाब में दलितों को घर से लेकर कोर्ट तक हिंसा झेलनी पड़ी। आज जरूरत यह भी है कि जाति विरोधी आंदोलन को किस तरफ ले जाया जाए? हिंसक या अहिंसक?
गांधी अहिंसा के मर्म को जानते थे। वह अहिंसा को मांग मंगवाने का महत्वपूर्ण साधन मानते थे। वह अहिंसा रूपी भारत की आत्मा को पहचान कर ही आजादी के महत्वपूर्ण आंदोलन को संभव बना पाए। वह समझते थे कि निहत्थे का हथियार बंदूक नहीं है। बंदूक तो सत्ता का हथियार है। अहिंसा का जिस तरह वैश्विक राजनीति में गांधी ने हथियार स्वरूप इस्तेमाल किया, वह आज एक आम आदमी का महत्वपूर्ण हथियार दुनिया भर में बन गया है। उन्होंने तो एक जगह अहिंसा को एटम बम से भी ज्यादा प्रभावी बताया है।
उन्होंने कहा था, “यदि मैं बिलकुल अकेला भी होऊं तो भी सत्य और अहिंसा पर दृढ़ रहूंगा क्योंकि यही सबसे आला दर्जे का साहस है जिसके सामने एटम बम भी अप्रभावी हो जाता है।” आज युवाओं को यह समझने की जरूरत है कि जेल के अंतिम दिनों में महान क्रांतिकारी नेता भगत सिंह विचार और बम में विचार को चुनते हैं।
भारत दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ा सकता है। दरअसल, पश्चिमी देशों ने अहिंसा के मर्म को पहचाना है। हिंसा के दर्द को झेला है। आज पूरब भी हिंसा से लड़ रहा है, साथ ही पश्चिम के दर्शन को चुनौती भी इसके माध्यम से दी जा रही है क्योंकि पश्चिमी देश पूरब के देशों से इस दर्शन के अलावा और कुछ लेना नहीं चाहते। गांधी की 150वीं जयंती पर हमें प्रतीज्ञा लेनी होगी कि कोई मॉब लिंचिंग और गाय के नाम पर किसी की हत्या नहीं करेगा। हमें अपने मन में छिपे गोडसे को निकालना होगा। दलितों-पिछड़ों, महिलाओं और मुसलमानों के ऊपर हो रहे अत्याचार को खत्म करना होगा। कश्मीरियों का दिल जीतना होगा और एक बेहतरीन न्याय प्रणाली व शासन व्यवस्था के साथ विधि द्वारा स्थापित संविधान को मानने की भीष्म प्रतीज्ञा लेनी होगी, तभी भारत, विश्व का ध्यान अहिंसा की तरफ खींचने में सफल हो पाएगा।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के विधि संकाय में अध्ययनरत हैं)