यंग कंज्यूमर्स जर्नल में छपे एक अध्ययन में कहा गया है कि जो लोग वस्तुओं और सेवाओं का कम उपभोग करते हैं, वे उन लोगों की तुलना में अधिक खुश रहते हैं, जो पर्यावरण अनुकूल वस्तुओं (ग्रीन प्रोडक्ट्स) और सेवाओं का उपभोग करते हैं। इसके साथ ही अपने उपभोग में कमी लाना और अनावश्यक खरीदारी से बचना, ग्रीन प्रोडक्ट्स की खरीदारी की तुलना में पर्यावरण के दृषिटकोण से कहीं अधिक लाभकारी होता है।
यूनिवर्सिटी ऑफ एरिजोना की शोधकर्ता सबरीना हेलम का कहना है कि हमारे द्वारा भोजन और कपड़े से लेकर ट्रांसपोर्ट तक अनेक वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग अपनी आवश्यकता से अधिक करने के कारण वो पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन के लिए एक बड़ी चुनौती बनता जा रहा है। इसलिए इस तथ्य को समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि उपभोक्ता द्वारा खरीदारी के समय लिए गए निर्णयों का हमारी धरती पर क्या असर पड़ता है, क्योंकि हमारे संसाधन सीमित हैं। इस अध्ययन में हेल्म और उनके सहयोगियों ने इस तथ्य को जानने की कोशिश की है कि कैसे भौतिकवादी विचारधारा हमारी संस्कृति का हिस्सा बनती जा रही है, जिसने हजारों सालों से पर्यावरण का समर्थन करने वाले उपभोक्ताओं के व्यवहार को बदल दिया है ।
उपभोक्ताओं के व्यवहार को कैसे मापा गया है
इस अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने पर्यावरण के अनुकूल व्यवहारों को दो मुख्य श्रेणियों में बांटा है, पहला कम खपत कम खरीदारी, जिसमें नयी वस्तुओं को खरीदने की जगह पुरानी वस्तुओं की मरम्मत करने और शौक के लिए की गयी खरीदारी से बचने और अनावश्यक वस्तुओं को न खरीदने पर बल दिया हैं, जबकि दूसरी श्रेणी में पर्यावरण के अनुकूल निर्मित वस्तुओं (ग्रीन प्रोडक्ट्स) की खरीदारी जिनके उत्पादन के समय पर्यावरण पर कम प्रभाव डालने को ध्यान में रखकर डिज़ाइन किया गया है जैसे कि पुनर्नवीनीकरण सामग्री से बने सामान। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने देखा कि कैसे पर्यावरण अनुकूल व्यवहारों में उलझने से उपभोक्ता का हित प्रभावित होता है। उन्होंने पाया कि जो उपभोक्ता भौतिकवाद के समर्थक थे, उनकी खपत को कम करने की सम्भावना न के बराबर थी । हालांकि, उनकी खरीदारी की आदत पर पर्यावरण अनुकूल उत्पादों का कोई खास प्रभाव नहीं पड़ा । हेल्म के अनुसार ऐसा शायद इसलिए हुआ क्योंकि ग्रीन प्रोडक्ट्स ने भौतिकवादियों की नयी वस्तुओं को संचय करने की इच्छा को पूरा करने का एक नया तरीका दे दिया है।
नॉर्टन स्कूल ऑफ फैमिली एंड कंस्यूमर साइंसेस में एसोसिएट प्रोफेसर, हेल्म ने बताया कि, "ग्रीन प्रोडक्ट्स को खरीदने वाले ग्राहकों की मानसिकता अभी भी भौतिकवादी हैं । क्योंकि यदि आप पर्यावरण अनुकूल उत्पादों को खरीदने में सक्षम हैं, तो आप अभी भी अपने भौतिकवादी मूल्यों को जी सकते हैं। आप अभी भी नई चीजों को प्राप्त कर रहे हैं और उनको पाने की चाह रखते हैं, यह उपभोक्ता संस्कृति और भौतिकवाद का सार है । जबकि अपनी इच्छाओं को सीमित कर और वस्तुओं की खपत को कम करना, पर्यावरण और सतत विकास की अवधारणा से जुड़ा है, और पर्यावरण के दृष्टिकोण से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है।
इस अध्ययन में भाग ले रहे जिन प्रतिभागियों में भौतिकवाद की कमी थी, वे अपनी खपत को कम करने की अधिक संभावना रखते थे। वहीं खपत में कमी करने से उनके व्यक्तिगत कल्याण की संभावनाएं भी बढ़ जाती है, साथ ही इससे उनके ऊपर पड़ने वाले मानसिक दबाव में भी कमी देखी गयी ।
हेल्म ने बताया कि हालांकि ग्रीन उत्पादों का पर्यावरण पर कुछ सकारात्मक प्रभाव जरूर पड़ रहा है, लेकिन खपत में कमी लाने वाले उपभोक्ताओं की तुलना में ग्रीन उत्पादों को खरीदने वालों के व्यक्तिगत कल्याण में उतना सुधार नहीं देखा गया और तुलनात्मक रूप से खपत में कमी लाने से पर्यावरण पर अधिक सकारात्मक प्रभाव देखा गया। "हमने सोचा कि यह बात लोगों को संतुष्ट कर सकती है कि उन्होंने ग्रीन प्रोडक्ट्स ख़रीदे हैं। उन्होंने पर्यावरण को बचाने में अपना योगदान दिया है, लेकिन ऐसा नहीं है। खपत में कमी लाने वाले उपभोक्ताओं में लोक कल्याण का भाव और मानसिक दबाव में कमी देखी गयी जबकि ग्रीन प्रोडक्ट्स खरीदने वालों में ऐसा कुछ भी नहीं देखा गया।"
वास्तविकता में खरीदारी और यह कहें कि अनावश्यक खरीदारी से बचकर हम अधिक संतुष्ट और खुश रह पाते हैं, जितना कि हम ग्रीन प्रोडक्ट्स को खरीदने के बाद नहीं रह पाते।"यदि आपके पास बहुत सारा सामान है, तो आपके दिमाग में बहुत कुछ चलता रहेगा। हो सकता है कि आपने इसको खरीदने के लिए बहुत सारा कर्ज लिया हो और अब आपको उसको चुकाने का प्रबंध भी करना होगा। साथ ही इस सामान के रखरखाव पर भी ध्यान रखना होगा। बात सिर्फ सामान को खरीद लेने तक ही सीमित नहीं है, चूंकि अब आप उसके स्वामी हैं तो उसके स्वामित्व का बोझ भी आपको ही उठाना पड़ेगा । जो कि आपके ऊपर पड़ने वाले मानसिक बोझ को बढ़ा सकता है, इसके विपरीत यदि आपको इस बोझ से छुटकारा मिल जाता है तो आप अधिक स्वतंत्र और प्रसन्न महसूस करने लगते हैं।
हेल्म और उनके सहयोगियों ने इसके साथ-साथ अधिक खरीदारी करने वाले भौतिकवादी उपभोक्ताओं के बजट और बचत पर पड़ने वाले इसके प्रभावों का अध्ययन किया है। पर्यावरण के साथ-साथ वित्तीय व्यवहारों की जांच करने से शोधकर्ताओं को कमी के दो पहलू नजर आये है पहला पर्यावरणीय संसाधनों की कमी दूसरा वित्तीय कमी। शोधकर्ताओं के यह निष्कर्ष 968 युवाओं पर किये गए अध्ययन से प्राप्त हुए हैं, युवाओं पर यह अध्ययन तब किया गया जब वह कॉलेज के पहले वर्ष में 18 से 21 वर्ष की आयु के बीच थे, तथा दो साल बाद महाविद्यालय में, जब वे 23-26 वर्ष की आयु के बीच थे । इसके लिए प्रतिभागियों ने भौतिकवाद, सक्रिय वित्तीय व्यवहार, पर्यावरण के अनुकूल व्यवहार, व्यक्तिगत कल्याण, जीवन की संतुष्टि, वित्तीय संतुष्टि और मानसिक दबाव को मापने के लिए डिज़ाइन किए गए ऑनलाइन सर्वेक्षण के जरिये अपने जवाब दिए थे।
हेल्म ने बताया कि यह समझना बहुत जरुरी है कि भौतिकवादी विचारधारा उपभोक्ता के व्यवहार को कैसे प्रभावित करती है, और ये व्यवहार पर्यावरण और व्यक्तिगत कल्याण को कैसे प्रभावित करते हैं, अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इन्ही पर हमारी धरती का भविष्य निर्भर है। "हमें बचपन से बताया जाता है कि हर चीज जो हमें चाहिए बाजार में उपलब्ध है और हम जब चाहे उसे खरीद सकते हैं । हमारी अर्थव्यवस्था इसी तरह काम करती है। पर हमें वस्तुओं को सोच समझकर, जरुरत के हिसाब से और पर्यावरण को ध्यान में रखकर खरीदना चाहिए यह नहीं समझाया जाता, तो हमने जो सीखा है, उसी को व्यवहार में लाया है और इसलिए इसे बदलना इतना आसान भी नहीं है।"
आज जरुरत है कि हम अपनी मानसिकता को बदलें और अपने बच्चों को उपभोक्तावाद का सही अर्थ समझाए । आपके पास पड़े लाखों करोड़ों रुपये और कीमती सामान भी पर्यावरण को हो चुके नुक्सान को नहीं भर सकेगा । आज हम सिर्फ यह कहकर नहीं बच सकते कि हमने जो सामान ख़रीदा है वो ग्रीन प्रोडक्ट है, क्योंकि वो भी पर्यावरण पर कुछ न कुछ प्रभाव जरूर डालते हैं, हो सकता है कि उनका प्रभाव अन्य सामान्य उत्पादों जितना बड़ा न हो, पर होता जरूर है।
वास्तव में यह सब कुछ हमारी मानसिकता से जुड़ा है। शायद हम अपने पुराने जूतों कि मरम्मत करवाकर भी उसका उपयोग कर सकते हैं, पर कौन उस झंझट में पड़े, चलो नया ही आर्डर कर देते हैं । पर क्या कभी हमने सोचा है कि पैसे को छोड़कर भी उन जूतों के बदले हमें कुछ और मूल्य भी चुकाना पर रहा है, ऐसा जो हमें दिखता नहीं है। नहीं न, तो एक बार फिर से सोचिये यह धरती हमारा घर है, इसका हर तत्त्व हमारी धरोहर है । आप जो कुछ भी नया खरीदते हैं उसका असर हमारे पर्यावरण हमारे घर पर जरूर पड़ता है, जरा एक बार फिर से सोचिये हम अपनी इच्छाओं के बदले कुछ ऐसी कीमत चुका रहे है जो आपके पैसों से कहीं बढ़कर है।