संपादकीय: साथ मिलकर लाएंगे बदलाव
योगेन्द्र आनंद / सीएसई

संपादकीय: साथ मिलकर लाएंगे बदलाव

डाउन टू अर्थ, हिंदी ने नौंवे साल में प्रवेश कर लिया है। अक्टूबर 2024 के पत्रिका के अंक में डाउन टू अर्थ की संपादक सुनीता नारायण का संपादकीय लेख पढ़ें
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डाउन टू अर्थ हिंदी की आठवीं वर्षगांठ है और इन्हीं कुछ वर्षों में चरम मौसमी घटनाएं सामान्य सी प्रतीत होने लगी हैं। जमीन से लेकर आकाश तक अनचाहे बदलाव दिख रहे हैं। इन्हीं बदलावों में बहती हवाओं का रुख भी मंद पड़ रहा है। डाउन टू अर्थ, हिंदी का विशेषांक आपके हाथों में पहुंचने वाला है, मंद पड़ती हवाओं पर केंद्रित है।

यह पवन विशेषांक जलवायु परिवर्तन से जुड़ी इस कड़ी को समझने का एक हिस्सा है। इन्हीं कुछ वर्षों में दुनिया ने भी अपना रुख बदल लिया है। जब हमने 2016 में इसकी शुरुआत की थी, तब पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते पर हस्ताक्षर के एक साल ही पूरे हुए थे।

यह तब था जब दुनिया को एहसास हुआ कि वे एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और एक देश अपने क्षेत्र में जो कुछ भी करेगा, उसका असर दूसरे पर भी पड़ सकता है। पारिस्थितिक वैश्वीकरण के नियम बनाने के लिए एक साथ दुनिया भर के नेता आए और इस पर विचार-विमर्श किया कि उत्सर्जन को कैसे कम किया जा सकता है और कैसे भविष्य में इसे साझा किया जा सकता है।

हमने तो 1992 में रियो के बाद इस बारे में लिखा था, जिसमें बताया गया था कि समानता और समावेश पर आधारित सहकारी विश्व व्यवस्था बनाने के लिए बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है। उस समय में हमने अपने अंग्रेजी के जून 1992 अंक में विश्वभर के नेताओं की एक समूह तस्वीर को अपने कवर पर लगाया और कहा कि यह एक असफल क्लास थी।

कुछ साल बाद, मुक्त व्यापार के लिए वैश्विक समझौते पर झड़पें शुरू हुईं। हमने इस पर रिपोर्ट की, जिसमें कहा गया कि व्यापार का उदारीकरण लोगों या ग्रह की कीमत पर नहीं होना चाहिए।

आज जब डाउन टू अर्थ हिंदी अपनी आठवीं वर्षगांठ पूरी कर चुका है, तब ऐसा लगता है कि हम रिवर्स गियर में हैं। जलवायु परिवर्तन की गंभीर और अस्तित्वगत चुनौती पर आगे बढ़ने के बजाय, दुनिया 1992 की तुलना में अधिक विभाजित, घृणास्पद और अधिक विखंडित हो चुकी है।

जलवायु संकट को रोकने के लिए अविश्वसनीय तकनीकी प्रगति पर्याप्त नहीं रही है। साथ ही दुनिया भर के समाज एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था से जूझ रहे हैं जो सभी के लिए काम नहीं कर रही है। यह अमीरों को और अमीर और गरीबों को और गरीब बना रही है।

यह हमारे पर्यावरण को भी नष्ट कर रही है और यह स्पष्ट है कि भले ही अमीर समाजों की सड़कों पर प्लास्टिक के कूड़े या हवा में काले जहरीले धुएं का कोई दृश्य न दिखाई दे रहा हो, लेकिन यह स्थिति उनके लिए भी अच्छी नहीं है। अब, मुक्त व्यापार के गुणों के बारे में प्रचार करने के बजाय, अमीर देश घरेलू विनिर्माण की ओर मुड़ रहे हैं। दो वैश्विक महाशक्तियां अमेरिका और चीन युद्धरत हाथी हैं और जैसा कि अफ्रीकी कहावत में कहा गया है, “यह घास है, जिसे रौंदा और नष्ट किया जा रहा है।”

यह हमारी पत्रिका की एक जीवन यात्रा है। आपको वास्तव में महत्वपूर्ण चीजों पर समाचार, विश्लेषण और दृष्टिकोण लाना है। हमारा काम अभी खत्म नहीं हुआ है। तथ्य यह है कि दुनिया को पहले से कहीं ज्यादा आईना दिखाने की जरूरत है।

हमें एक तरफ जमीनी हकीकत की कहानियां बताते रहना चाहिए। हमें हाशिए पर रहने वाले लोगों की आवाज सुनने की जरूरत है, जो आज लगातार खराब मौसम की मार के कारण बद से बदतर हालात में पहुंच चुके हैं। लेकिन हमें साहस, प्रेरणा और नवाचार की कहानियों की तलाश भी करनी चाहिए।

हमें बदलाव की जरूरत पर अपनी नजरें मजबूती से टिकाए रखने की जरूरत है। आज किसी भी प्रकाशन के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात अपने पाठकों का विश्वास बनाए रखना है। पिछले दशक में, यह सूचना प्रणालियों की मूलभूत खामी रही है।

एक तरफ हमारे पास पक्षपातपूर्ण और ध्रुवीकृत वैश्विक मीडिया है और दूसरी तरफ हमारे पास विभाजनकारी सोशल मीडिया है जो जोरदार है लेकिन अक्सर सटीक नहीं होता है। यह व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी की तरह आधे सच और बिना सच का समय है।

यही कारण है कि डाउन टू अर्थ में हमारा सबसे कीमती उपहार हमारे काम में आपकी निरंतर आस्था है। मैं यह जानती हूं, क्योंकि अगर हम अपने पन्नों पर छोटी से छोटी तथ्यात्मक गलती भी करते हैं या हमारा काम आपके मानकों पर खरा नहीं उतरता है तो मुझे तुरंत ई-मेल मिलता है। मैं आपकी हर टिप्पणी को दिल से लेती हूं।

हम यह जानते हैं कि आप हमें पढ़ते हैं। हमें यह जानने की जरूरत है कि आप हमसे उस तरह की पत्रकारिता की उम्मीद करते हैं जो तथ्य-आधारित और कठोर हो। यह हमारा वादा है। इस यात्रा में हमारे साथ बने रहें। साथ मिलकर हम बदलाव लाएंगे।

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