पर्यावरणीय गरीबी

नवंबर 2000 में तीन नए राज्यों की स्थापना के बाद डाउन टू अर्थ के संस्थापक संपादक अनिल अग्रवाल द्वारा लिखा गया संपादकीय
15 जनवरी, 2001 को डाउन टू अर्थ के अंक में पत्रिका के संस्थापक संपादक अनिल अग्रवाल ने यह संपादकीय लिखा था। इसका हिंदी अनुवाद यहां प्रकाशित किया जा रहा है
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भारत के नेता कभी भी आगे की सोचते नजर नहीं आते। उन्होंने देश के सबसे गरीब क्षेत्रों में से तीन (उत्तरांचल, छत्तीसगढ़ और झारखंड) को नए राज्यों के रूप में तो बना दिया, लेकिन यह सोचे बिना कि ये राज्य आर्थिक रूप से कैसे चलेंगे और क्या वे केंद्र से मिलने वाली भारी-भरकम और स्थायी सहायता के बिना जीवित रह पाएंगे। यदि नए मुख्यमंत्री भी वही पुरानी सोच और तरीके अपनाते रहे, तो केंद्र की उपेक्षा का रोना पहले से कहीं अधिक सुनाई देगा। एक ऐसे देश में जहां नेता गरीबी पर बातें तो बहुत करते हैं, पर उससे निपटने के तरीकों के बारे में बहुत कम जानते हैं, वहां यह पूछना लाजिमी है कि इन राज्यों में आर्थिक विकास की रणनीति क्या होगी?

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जवाब गरीबी की नई परिभाषा में छिपा है। इन राज्यों के नेताओं को यह समझना होगा कि इन्हें “आर्थिक गरीबी” से ज्यादा “पारिस्थितिक गरीबी” परेशान कर रही है। वही पारिस्थितिक गरीबी, जिस पर अर्थशास्त्री कम ही ध्यान देते हैं। इन राज्यों को एक मजबूत और स्वस्थ प्राकृतिक संसाधन आधार की जरूरत है, जो किसानों, पशुपालकों और जंगल-आधारित आजीविका से जुड़े गरीब लोगों को अपने ही संसाधन-आधारित उद्यमों को बेहतर बनाने में मदद कर सके। इन राज्यों को अर्थशास्त्रियों की नहीं, बल्कि अच्छे पर्यावरण प्रबंधकों की जरूरत है, बल्कि देश के सबसे बेहतर प्रबंधकों की जरूरत है। इसके लिए शासन संरचना व अधिकारियों की मानसिकता दोनों में बदलाव की आवश्यकता है, ताकि विकास का केंद्र प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण पर आधारित हो। पहला कदम यही होना चाहिए कि नए मुख्यमंत्री स्वयं को अपने राज्य का “मुख्य पर्यावरण अधिकारी (सीइओ)” घोषित करें। मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं? आइए समझते हैं।

सबसे पहले, ये तीनों राज्य मूलतः वन-प्रधान राज्य हैं। यहां बड़ी आबादी अपने जीवनयापन के लिए जंगलों पर निर्भर है, लेकिन यहां से भारी पैमाने पर जंगलों का कटान हो चुका है। छत्तीसगढ़ और झारखंड में, जंगलों के अधिनायकवादी प्रबंधन ने लोगों को राज्य से दूर कर दिया है और स्थानीय आबादी के समर्थन से नक्सलवादी आंदोलन ने अपनी पकड़ मजबूत की है। इसलिए, इन राज्यों के सामने पहली चुनौती यह है कि लोग अपने जंगलों के पुनर्जीवन में इस तरह शामिल हों कि वे इन जंगलों को अपना समझें और इनके सतत प्रबंधन में दिलचस्पी लें। लघु वनोपज पर अधिक नियंत्रण देकर शुरुआत की जा सकती है, जिससे उनकी आमदनी बढ़ेगी, बिल्कुल उसी तरह जैसे हाल ही में बस्तर जिले में शुरू किए गए वन धन कार्यक्रम में किया गया। इसके बाद लोग जंगलों में खाली पड़ी जमीन पर पेड़ लगा सकते हैं और आगे चलकर इससे अच्छी-खासी आमदनी कमा सकते हैं। दूसरा, इन राज्यों की कृषि को फिर से सशक्त स्वस्थ स्थिति में लाना होगा। इन तीनों नए राज्य में ज्यादा बारिश होती है, जो सालाना औसत 1,000 मिलीमीटर से भी अधिक है। फिर भी यहां कृषि बदहाल बनी हुई है। यदि वर्षा जल संचयन का एक बड़ा सामुदायिक कार्यक्रम चलाया जाए और उसके बाद एक व्यापक जलागम विकास कार्यक्रम लागू किया जाए, तो कृषि उत्पादकता में उल्लेखनीय सुधार हो सकता है। इन राज्यों में कृषि शायद कभी पंजाब जैसी न हो पाए, जहां अनाज का भंडार भरपूर या अतिरिक्त रहता है। लेकिन यहां हर गांव खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो सकता है और संभवतः थोड़ा सा बाजार योग्य अनाज भी पैदा कर सकता है। आगे चलकर जब प्राकृतिक संसाधनों के आधार की सेहत सुधर जाएगी तो किसान दूर-दराज के बाजारों के लिए उच्च-मूल्य वाली फसलों की ओर रुख कर सकते हैं।

तीसरा, ये तीनों राज्य जैव-विविधता से समृद्ध हैं। इन्हें ऐसे कार्यक्रमों की आवश्यकता है जो न सिर्फ अपनी घटती जैव-विविधता का संरक्षण करें, बल्कि उसका सही उपयोग भी सुनिश्चित करें। जड़ी-बूटियों की खेती कृषि में अतिरिक्त मूल्य जोड़ सकती है। उत्तरांचल अपनी जड़ी-बूटी संपदा का इस्तेमाल कर केरल की तर्ज पर एक बड़ी आयुर्वेदिक स्वास्थ्य उद्योग विकसित कर सकता है, जो स्थानीय आबादी के साथ-साथ बड़े बाजारों तक पहुंच स्थापित करे।

चौथा, इन तीनों राज्यों बल्कि खासकर उत्तरांचल की दृश्य सुंदरता अत्यधिक पारिस्थितिक महत्व रखती है। यहां पर्यटन का प्रबंधन इस तरह करना चाहिए कि पर्यावरण नष्ट न हो, लेकिन यह बात भारतीय प्रशासक आमतौर पर नहीं जानते। उत्तरांचल में धार्मिक और मनोरंजन आधारित पर्यटन हमेशा से अच्छा रहा है, लेकिन जोशीमठ और गंगोत्री जैसे धार्मिक महत्व से लेकर मसूरी और नैनीताल जैसे मनोरंजन आधारित लगभग सभी कस्बे आज गंदगी, कचरे और प्रदूषण के ऐसे गढ़ बन चुके हैं, जैसे भारत के बाकी शहरों का हाल है। इसके अलावा भारत में पर्यटन शायद ही कभी स्थानीय लोगों के लाभ के लिए विकसित किया गया हो।

हालांकि यह संभावना कम ही है कि नए राज्यों के ये “सीईओ” किसी भी प्राकृतिक संसाधन पर ध्यान देंगे। जल, जंगल और जैव-विविधता के प्रबंधन की न तो कोई मजबूत लॉबी होती है और न ही कोई प्रभावशाली हित समूह। मौजूदा लॉबी तो उन गतिविधियों पर जोर देती है जिनसे ठेकेदारों और कंपनियों को लाभ मिले-जैसे खनिजों का दोहन और सड़क निर्माण। भारत में सरकारें गरीबी पर बातें तो बहुत करती हैं, लेकिन आमतौर पर ठेकेदारों और कंपनियों के हित ही साधती हैं। समस्या यह है कि सड़क निर्माण और खनिज दोहन की वजह से गरीबों के प्राकृतिक संसाधन खासकर जंगलों और जैव-विविधता को नष्ट करना बहुत आसान है, जब तक कि इन संसाधनों का सशक्त और स्थानीय समुदाय को सहभागी बनाकर शासन न किया जाए। ऐसे में, यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि संसाधन प्रबंधन लोगों को अपने से दूर न करे, बल्कि उन्हें उसका अभिन्न हिस्सा बनाए।

(15 जनवरी, 2001 को डाउन टू अर्थ के अंक में पत्रिका के संस्थापक संपादक अनिल अग्रवाल ने यह संपादकीय लिखा था। इसका हिंदी अनुवाद यहां प्रकाशित किया जा रहा है)

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