Tamil Sangam
मुदुमलाई स्थित मुरुगन मंदिर में वन देवी की प्रतिमा, जिसकी स्थानीय लोग मातृ शक्ति के रूप में पूजा करते हैं। फोटो: कुशाग्र राजेंद्र

विश्व पर्यावरण दिवस पर विशेष: तमिल संगम साहित्य की पारिस्थितिक अंतर्दृष्टि

विभाजनकारी भाषाई तल्खी के बीच तमिल संगम साहित्य में प्रकृति की अवधारणा की पड़ताल
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समकालीन विश्व आज गंभीर पर्यावरणीय संकट का सामना कर रहा है। प्रदूषण, वैश्विक उष्मण और जलवायु परिवर्तन के खतरों ने मानव अस्तित्व और प्रकृति के प्रति चिंता स्थानीय से लेकर वैश्विक बहास के केंद्र में है।

इसी क्रम में तमिलनाडू में स्थानीय राजनीति और संकीर्ण सोच तमिल और हिंदी को लेकर भाषा विवाद को हवा दे रही है, ऐसे में ये जरुरी हो जाता है कि तमिल जैसे प्राचीन भारतीय भाषा को वर्तमान के जरुरी मुद्दों के नजरिये से देखा जाये ना कि तमिल को अन्य भारतीय भाषा के प्रतिद्वंदी के रूप में।

इस संदर्भ में, प्राचीन तमिल साहित्यिक परंपराओं की ओर मुड़ना महत्वपूर्ण हो जाता है जिसमें  प्रकृति के साथ मानव के संबंध की गहरी समझ का खजाना छुपा है।

तमिल संगम साहित्य, जिसकी अवधि मोटे तौर पर लगभग 300 ईसा पूर्व से 250 ईस्वी के बीच मानी जाती है, प्राचीन तमिझकम (आधुनिक तमिलनाडु, केरल, और दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों) की एक ऐसी ज्ञान परंपरा है जो प्रकृति और मानव पर्यावरण में अपनी अनूठी अंतर्दृष्टि के लिए जानी जाती है।

संगम साहित्य मदुरै में आयोजित तीन तमिल साहित्यिक सभाओं (संगम) में विद्वानों और कवियों द्वारा रचित प्राचीन रचनाओं का संग्रह है। इसमें 'तोळकामप्पियम्' (तमिल व्याकरण का प्राचीन ग्रंथ), आठ संकलन (एट्टुत्तोकै), दस गीत (पट्टुप्पाट्टु), और दो महाकाव्य—'शिलप्पदिकारम' और 'मणिमेगलै'—शामिल हैं।

संगम साहित्य वांग्मय में कुल 2,381 कविताएं हैं, जो 537 कवियों द्वारा रचित हैं, जिनमें 39 कवयित्रियां भी शामिल हैं।

संगम साहित्य मुख्यतः 'अकम' (आंतरिक) और 'पुरम' (बाहरी) श्रेणियों में वर्गीकृत है। अकम कविताएं प्रेम और घरेलू जीवन से संबंधित हैं, वही पुरम कविताएं युद्ध, वीरता और सार्वजनिक जीवन के अन्य पहलुओं पर केंद्रित हैं और दोनों प्रवृतियाँ  प्रकृति के परिदृश्य के साथ जोड़कर प्रस्तुत की गई है।

महत्वपूर्ण बात यह है कि ये दोनों प्रकार की कविताएं पांच प्रकार के पारिस्थितिकी तंत्र ‘तिणै’ की बात करती हैं; कुरुञ्जि (पहाड़ी क्षेत्र), मुल्लै (चारागाह क्षेत्र), मरुतम (नदी तट के कृषि क्षेत्र), नेयतल (तटीय क्षेत्र), और पालै (शुष्क/मरुस्थलीय क्षेत्र)। प्रत्येक तिणै की अपनी विशिष्ट वनस्पति (वृक्ष, फूल), जीव-जंतु (पक्षी, जानवर), खान पान और देवता है।

ऐसी पारिस्थितिकी वैशिष्ट्य से प्रकृति-सम्मत व्यवहार और संस्कृति विकसित हुई होगी, जिसकी छाप आज भी तमिल क्षेत्र में देखी जा सकती है। तिणै की यह अवधारणा आज के पारिस्थितिक अध्ययनों के लिए प्रासंगिक है, क्योंकि यह जैव-विविधता और क्षेत्रीय पर्यावरण की महत्ता को रेखांकित करती है।

संगम कवियों जिसमें तिरुवल्लुवर प्रमुख है, ने प्रकृति को पृष्ठभूमि में रख मानव जीवन और भावनाओं को गहराई से बुना, जिनसे स्थानीय संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था को स्थायी रूप से आकार मिलता गया।

उदाहरण के लिए, 'अकनानूरु' की एक कविता में माँ को झील की रक्षा करने वाली वाली बताई गयी है, इसी तरह, 'तोळकामप्पियम्' में एक योद्धा की तुलना नदी के प्रवाह को रोकने वाले बाँध से की गई है। 'पुरनानूरु' उन राजाओं की प्रशंसा करती हैं, जिन्होंने निचले क्षेत्रों में तालाब और झीलें बनवाकर भूमि को उपजाऊ बनाया।

'शिलप्पदिकारम' में एक राजा का वर्णन है, जिसने वर्षा जल संचयन के माध्यम से अपने देश को समृद्ध किया। इन सन्दर्भों में तमिल समाज की विशिष्ट जल/नदी संस्कृति की झलक मिलती है, जो जल संचयन और जल प्रबंधन की महत्ता को रेखांकित करती है, तभी तो तिरुवल्लुवर भी बरसात की महिमा गाते है।

संगम साहित्य में प्रकृति के प्रति यह श्रद्धा केवल जल तक सीमित नहीं है, प्रकृति के अन्य अव्ययों जैसे वृक्षों की पूजा और उनके संरक्षण का भी उल्लेख है। प्रत्येक तिणै से जुड़ा एक विशेष वृक्ष होता है, जिसमे देवताओं का निवास माना जाता था।

मंदिरों में पूजे जाने वाले और गांव, मंदिर या देवता से जुड़े वृक्षों को पवित्र वृक्ष माना जाता है।

पवित्र वृक्ष एकल आनुवंशिक संसाधन हैं और जैव विविधता के संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, वही हरे-भरे जंगल को बारिश का एक बड़ा कारण माना गया है। यह विश्वास प्राचीन तमिलों की पर्यावरणीय संवेदनशीलता को दर्शाता है।

कवयित्री अव्वैयार ने एक समृद्ध कृषि क्षेत्र का वर्णन करते हुए लिखती है, "जैसे-जैसे खेत की मेड़ ऊंची होती है, उसकी जल धारण क्षमता बढ़ती है; जैसे-जैसे जल क्षमता बढ़ती है, फसलें अच्छी होती हैं; जैसे-जैसे फसलें अच्छी होती हैं, लोग बेहतर जीवन जीते हैं; और जैसे-जैसे लोग बेहतर जीवन जीते हैं, राज्य समृद्ध होता है।"

यह कथन प्रकृति और समाज के बीच परस्पर निर्भरता को स्पष्ट करता है। इसी बात की पुष्टि संत तिरुवल्लुवर करते है जब वो खेती-किसानी को सबसे पवित्र कार्य, किसानों  को समाज और समृधि का आधार रेखांकित करते हैं। 

अकम कविताएँ, जो मुख्य रूप से प्रेम से संबंधित हैं, अक्सर प्रकृति के दृश्यों के साथ पुरुषों और महिलाओं की भावनाओं और जुनून को उजागर करती हैं, जो प्रेम के विभिन्न चरणों को बखूबी निरुपित करती हैं। वे प्रकृति के विविध रंगों को दर्ज करने में एक चित्रकार की आँख, प्रकृति की आवाज़ सुनने में एक अचूक कान रखते प्रतीत होते हैं।

कवियों ने प्रकृति के विभिन्न पहलुओं और क्षेत्रों अलग-अलग महारत रखते हैं। उदाहरण के लिए, संगम सहित्य के प्रभावी कवि कपिलर की रचना का आधार पहाड़ी क्षेत्र, वहां की वनस्पति और जीव-जंतु है, वही अंटैय्यार शुष्क रेगिस्तानी क्षेत्रों का बखूबी वर्णन करते हैं।

संगम कवि विभिन्न पौधों और जानवरों का ना सिर्फ विस्तार से वर्णन करते हैं बल्कि उसके माध्यम से मानवीय भावनाओं, और भौतिक विशेषताओं को निरुपित करते हैं। उदाहरण के लिए, थैर की आँखों की तुलना कोंरै फूलों के रंग से की जाती है। एक घायल योद्धा के घावों के उपचार की तुलना किंगफिशर के तालाब से मछली पकड़ने के लिए डुबकी लगाने से की जाती है। कोंरै फूलों को सोने के छोटे धब्बे जैसा बताया गया है।

संगम साहित्य सिर्फ प्रकृति के वर्णन तक ही सीमित नहीं हैं; यह प्रकृति और मानव जीवन के बीच अंतर्संबंधो को भी दर्शाता है, जो आधुनिक डीप इकोलॉजी की समझ के मूल में हैं। जीवन के सभी स्वरूपों में एकात्मकता, प्रकृति के साथ उनके चक्रीय अंतर्संबंध और इसे आम समझ के रूप में प्रस्तुतीकरण संगम साहित्य की एक विशेषता मानी जा सकती है।

प्रकृति का सम्मान ईश्वर का सम्मान से जुडा था और कविजन दृढ़ता से मानते है कि यदि हम प्रकृति को परेशान करेंगे, तो प्रकृति हमें अपने तरीके से दंडित करेगी।

आज हम जिन पर्यावरणीय समस्याओं का सामना कर रहे हैं, उनके आलोक में, संगम साहित्य में निहित पारिस्थितिक ज्ञान अत्यधिक प्रासंगिक हो जाता है। जिसका एक ठोस उदाहरण नीलगिरि तहर (वरुडाई) के संरक्षण में इसका प्रभावी उपयोग है।

नीलगिरि तहर तमिलनाडु का राजकीय पशु है और इसका विस्तृत उल्लेख तमिल संगम साहित्य में मिलता है। प्रोजेक्ट ‘नीलगिरि तहर’ के दौरान इसके संभावित रहवास की पहचान में प्राचीन संगम साहित्य प्रभावी रूप से मददगार साबित हुई।

संगम साहित्य के कुछ ग्रन्थ जैसे नऱ्ऱिणै, ऐंगुणूनूरु, कुऱुन्तोकै, पट्टिऩप्पालै, सिलाप्पतिकारम, और कलितोकै, नीलगिरि तहर और उसके पारिस्थितिकी के बारे में विस्तार से बताते हैं।

संगम साहित्य में वरूडाई का अक्सर वर्णनात्मक रूप से उल्लेख किया गया है, जहां कवि कुरुञ्जि (पहाड़ी) या मुल्लै (तलहटी) में प्रेमियों की भावनाओं का वर्णन करने के लिए तहर के व्यवहार का उपमा के रूप में उपयोग करते हैं।

अगस्थियारमलाई, ऐंथलैपोडिगै, मंगलादेवी, कुंजुरमपुडी, और तिरुनेलवेली तिरुवनमलाई मोट्टई (हालांकि संगम साहित्य में उल्लिखित स्थान के नाम आज से भिन्न हो सकते हैं) जैसे स्थानों की पहचान साहित्यिक संदर्भों के आधार पर नीलगिरि तहर के प्राकृतिक रहवास के रूप में की गई।

प्राचीन तमिल साहित्य की समझ यह दर्शाता है कि साहित्य में निहित ज्ञान का उपयोग आज जैव-विविधता संरक्षण तक के लिए भी किया जा सकता है। यह केवल एक ऐतिहासिक या साहित्यिक जिज्ञासा नहीं है, बल्कि हमारे वर्तमान पारिस्थितिक संकट के लिए एक व्यावहारिक संसाधन है।

संगम युग के लोगों ने जो पारिस्थितिक चेतना दिखाई, वह आज के समाज के लिए एक मूल्यवान सबक है कि हमें प्रकृति को एक संसाधन के रूप में नहीं, बल्कि जीवन के एक अभिन्न अंग के रूप में सम्मान देना सीखना चाहिए।

तमिल भाषा में लिखित प्राचीन ग्रन्थ ना सिर्फ तमिल धरोहर है बल्कि यह भारतीय ज्ञान परम्परा की महत्वपूर्ण थाती है, जिसमे अन्तर्निहित समझ भारत ही नहीं समूचे मानवता के कल्याण के लिए है।

आज, जब हम ना सिर्फ अभूतपूर्व पर्यावरणीय संकट का सामना कर रहे हैं, बल्कि हमें वीभत्स भाषाई कट्टरवाद का भी सामना है, ऐसे में तमिल भाषा के संगम साहित्य मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकते हैं और हमें ना सिर्फ प्रकृति, बल्कि भाषाई विविधता के साथ सद्भाव में रहने के तरीके खोजने में मदद कर सकते हैं।  

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