इलेस्ट्रेशनः योगेंंद्र आनंद
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बिश्नोई समाज बनाम दिल्ली वाले: दो अलग-अलग मानसिकताएं

दिल्ली के मध्य वर्ग के लिए अभी भी यह सीखना बाकी है कि भौतिक चीजों की गरीबी, दिमागी गरीबी की तुलना में बिल्कुल महत्वहीन है
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एक संरक्षित जानवर चिंकारा को जान से मारने के मामले में जोधपुर में फिल्म स्टार सलमान खान की गिरफ्तारी और दिल्ली में मुख्यमंत्री के पद से साहिब सिंह वर्मा का इस्तीफा, इन दोनों घटनाओं में पर्यावरणविदों और पर्यावरण-प्रबंधन से जुड़े सभी लोगों के लिए एक संदेश छिपा है।

पहले उस अप्रत्याशित कार्रवाई को देखते हैं, जो एक अमीर और जाने-माने फिल्म कलाकार के खिलाफ की गई है। भारत में एक सार्वजनिक जगह पर शिकार करना, देश के वन्यजीव के लिए एक गंभीर खतरा बन रहा है। दूसरी ओर सरकार अपने कठोर वन्यजीव कानूनों के बावजूद इस सड़ांध को रोकने में पूरी तरह नाकाम साबित हुई है। उससे भी खराब बात यह है कि वन्यजीवों का संरक्षण करने वाला समुदाय, जो इन कानूनों का समर्थन करता है, इस स्थिति से निपटने के लिए पूरी तरह से अनभिज्ञ है।

बुरी तरह से भ्रष्ट और नकारा सिस्टम के बावजूद, सलमान खान जैसा ताकतवर इंसान अगर कानून सेे नहीं बच सका तो इसके पीछे जोधपुर की लचीली नौकरशाही नहीं बल्कि एक दृढ़-प्रतिज्ञ समुदाय की इच्छा शक्ति थी। बिश्नोई समुदाय के लोग अपनी फसलों के नुकसान की कीमत पर भी लंबे समय से काले हिरन के मजबूत रक्षक रहे हैं। उनके लिए इसकी रक्षा उनकी परंपराओं और धर्म से उपजी पौराणिक मान्यता पर आधारित है।

जैसे ही इस समुदाय को सलमान खान के दुस्साहस के बारे में पता चला तो उन्होंने इतना बड़ा हंगामा खड़ा किया कि नेता, खासकर वो जो नवंबर में होने जा रहे चुनावों में हिस्सा ले रहे हैं, उनके समर्थन में आ खड़े हुए ताकि किसी तरह से सलमान जैसा फिल्मी सितारा कानून के पंजे से बच न सके। इसकी सीधी वजह यह है कि नाराज बिश्नोई समुदाय राजस्थान विधानसभा की कई सीटों पर चुनावी गणित बिगाड़ सकता था।

दूसरी ओर, दिल्ली के लोगों ने एक दूसरा नजारा पेश किया। अर्थशास़्त्री सबको बताते हैं कि गरीब लोग, अमीरों की तुलना में भविष्य को ज्यादा महत्व देते हैं क्योंकि वर्तमान में वे अपनी जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनके पास भविष्य की चिंता करने के लिए कोई ‘आर्थिक स्पेस’ नहीं होता।

अगर सचमुच ये अर्थशास्त्री अपनी जगह सहीं हैं तो दिल्ली का मध्य वर्ग, जो संभवतः देश के अन्य राज्यों की तुलना में सबसे अमीर मध्यवर्ग है, वह अभी भी बिल्कुल दरिद्र मानसिकता वाला है। वर्मा को पद छोड़कर जाते हुए देखते मुझे खुशी होती  लेकिन प्याज की ताजा कीमतों की वजह से नहीं, (जो वास्तव में अक्टूबर 1997 की तुलना में सात गुना ज्यादा हो गई हैं और 60 रुपये प्रति किलोग्राम तक पहुंच गई है) बल्कि उस घटिया तरीके की वजह से जिससे उन्होंने दिल्ली में वायु-प्रदूषण की समस्या से निपटने का प्रयास किया।

जब सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट द्वारा भारतीय शहरों में वाहन प्रदूषण पर अपना अध्ययन "स्लो मर्डर" प्रकाशित किया था तो उसके बाद न्यायमूर्ति कुलदीप सिंह ने अध्ययन में शामिल आंकड़ों को पेश करने वाली समाचार पत्रों की रिपोर्टों पर प्रतिक्रिया दी थी। उन्होंने स्वतः संज्ञान नोटिस जारी कर दिल्ली सरकार को वायु प्रदूषण नियंत्रण के लिए कार्य योजना बनाने को कहा था।

इस पर दिल्ली सरकार ने 15 साल से पुराने तिपहिया वाहनों और टैक्सी बंद करने का प्रस्ताव रखा था लेकिन जब इसकी समय-सीमा यानी 31मार्च 1998, नजदीक आई तो देश एक चुनाव का सामना करने जा रहा था। चुनाव में कांग्रेस इस फैसले से प्रभावित होने वाले आटोरिक्शा और टैक्सी वालों का बचाव कर रही थी तो तुरंत वर्मा ने पर्याावरण के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता से पीछे हटते हुए प्रस्ताव को अमल में लागू करने का फैसला वापस ले लिया।

जबकि भाजपा के पास भी अपने घोषणापत्र में यह कहने के लिए था कि सरकार का यह फैसला दिल्ली को प्रदूषण-मुक्त करेगा और सरकार वाहन-प्रदूषण की जांच के लिए उचित कदम उठाएगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ, यहां तक कि केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद भी यह नहीं हुआअ। ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि दिल्ली में नई सरकार चुनने के लिए नवंबर में चुनाव होने थे।

जब सुप्रीम कोर्ट ने 15 साल से पुराने वाहनों को बंद करने का फैसला दिया,, तब भाजपा सरकार को फैसला लेने पर मजबूर होना पड़ा। अब जबकि वर्मा जा चुके हैं, नई मुख्यमंत्री सुषमा स्वराज भी उन्हीं के रास्ते पर चल रही हैं। राजेंद्र गुप्ता को हटाया जा चुका है और समस्या का हल ढूंढने की बजाय सुषमा स्वराज सार्वजनिक तौर पर कह रही हैं कि प्याज की उपलब्धता इसलिए कम हो रही है क्यांेकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद 15 साल से पुराने ट्रक हटाए जा रहे हैं।

मैंने सोचा होगा कि केंद्र में भाजपा के सत्ता में आने के बाद दिल्ली भाजपा ने प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए केंद्रीय और राज्य एजेंसियों के बीच बेहतर समन्वय विकसित किया होगा। सच यह है कि राज्य एजेंसियों की तुलना में कई केंद्रीय एजेंसियां इस समस्या की बड़ी वजह हैं। केंद्रीय पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय द्वारा प्रदान किया जाने वाला गंदा ईंधन इसका सिर्फ एक उदाहरण है। 

सिर्फ इसी वजह से दिल्ली का मामला, जोधपुर के मामले से इतना अलग है ? सीधी सी बात है कि एक मामले में समुदाय कार्रवाई कराने को लेकर इतना दृढ-़प्रतिज्ञ था कि नेताओं को प्रतिक्रया देनी पड़ी, दूसरी ओर एक समुदाय को तब भी कोई फिक्र ही नहीं है, जब उसका शहर गंदी हवा से भर रहा हो।

दिल्ली के मध्य वर्ग के लिए अभी भी यह सीखना बाकी है कि भौतिक चीजों की गरीबी, दिमागी गरीबी की तुलना में बिल्कुल महत्वहीन है और सचमुच दिल्ली दिमागी गरीबी का सामना कर रही है। सलमान खान का एपीसेड हर पर्यावरणविद को यह बड़ा सबक सिखाता है कि  जब तक हम समुदाय के साथ मिलकर काम नहीं करेगे, तब तक पर्यावरण की स्थिति बदलने वाली नहीं है। साथ ही हर उस नौकरशाह और अधिकारी के लिए इसमें यह सबक छिपा ह, जो ये सोचते हैं कि केवल कोर्ट का फैसला और कागजी कार्रवाई ही लोगों को न्याय दिला सकती है।

अनिल अग्रवाल डाउन टू अर्थ के संस्थापक संपादक थे। आज ही के दिन यानी 2 जनवरी 2002 को उनको देहांत हुआ था। उनका यह संपादकीय डाउन टू अर्थ, अंग्रेजी के 1-15 नवंबर, 1998 के अंक में प्रकाशित हुआ था।

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