स्मृति और प्रतिरोध का उत्सव बिहार का छठ महापर्व
सामूहिक स्मृति सामाजिक अस्तित्व को जीवंत रखती है। यह स्मृति अनुभव की, मूल्यों की या सामाजिक नैतिकता की भी हो सकती है और ऐसी स्मृतियाँ समाज की निरंतरता को बचाए रखने में बड़ी भूमिका निभाती है।
बिहार का छठ महापर्व ऐसी ही स्मृतियों का महान उत्सव है जो सामाजिक मूल्यों से सामाजिक सुदृढ़ता को रचती-गढ़ती है। इसमें बिहार के लोगों का अपवित्र या राजनीतिक-आर्थिक जीवन कुछ दिनों के लिए स्थगित हो जाता है और एक पवित्र या नैतिक जीवन प्रवाहित होता है।
पवित्रता की धारा में जिस सामाजिक नैतिकता का निर्माण होता है वह आगामी अपवित्र जीवन को प्रेरित और नियंत्रित करती रहती है। पवित्रता से प्रस्फुटित प्रेरणा सांसारिक यथार्थ को जीवन का अर्थ प्रदान करती है।
व्यक्ति जीवन की तमाम विसंगतियों में अपने अस्तित्व को खोजने का प्रयास जारी रखता है, और यह सब चलता रहता है सामाजिक सरोकारों के साथ. छठ महापर्व आध्यात्मिकता की पवित्र परम्परा के द्वारा व्यक्ति के इन्हीं अपवित्र आर्थिक सरोकारों को सार्थकता प्रदान करने का महान उत्सव है।
प्रसिद्ध फ्रेच समाजशास्त्री इमाइल डर्कहाइम ने धर्म को पवित्रता और अपवित्रता के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया था। उन्होंने धर्म को एक भ्रम मानने से इंकार किया। उनका मानना था कि जो चीज समाज की चेतना में इतना व्यापक और विस्तृत है वह कोई भ्रम नहीं हो सकता, बल्कि इसके पीछे भी कोई न कोई सामाजिक सत्यता का आधार है।
उन्होंने धर्म को नैतिकता के उस अर्थ में देखा जो समाज को जोड़े रखने की एक इकाई के रूप में कार्य करता है- जिसे वे ‘कलेक्टिव-कन्साइंस’ कहते हैं, जो समाज की संरचना को संगठित कि रहने में सहायक है।
इस तरह उनके लिए धर्म समाज का ही जीवंत रूप है, और ईश्वर समाज का विराट स्वरूप. समाज धर्म का रचयिता होने के कारण जीवन की सम्पूर्ण क्रियाओं को दो भागों में विभक्त करता है, जिसे डर्कहाइम उपरोक्त शब्दावली- पवित्र और अपवित्र की संज्ञा देते हैं।
अपवित्र क्रिया वह है जब हम सांसारिक राजनीतिक-आर्थिक यथार्थ में अपना जीवन व्यतीत करते हैं. निस्संदेह अपवित्र क्रियाओं का भी अपना महत्व है जो राजनीतिक-आर्थिक जीवन को बनाये रखने के लिए अनिवार्य है।
हम अपने जीवन का अधिकतर हिस्सा अपवित्र क्रियाओं के द्वारा ही जीते हैं, लेकिन इसे नियंत्रित करने के लिए हमें ऐसी प्रेरणा की आवश्यकता होती है जो सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में एक संतुलन को बनाये रख सके और इसके लिए एक नैतिक श्रोत पवित्र क्रिया प्रदान करती है।
छठ महोत्सव बिहार के समाज में ऐसी ही प्रेरणा का एक पवित्र श्रोत है जिससे यह समाज अपनी ऐतिहासिक त्रासदियों के बीच भी फिर से जीवित हो उठने का सामर्थ्य पैदा कर लेता है।
डर्कहाइम धर्म के स्वरूप के लिए मुख्यतः तीन चीजों के होने की बात करते हैं, ये हैं-
एक विश्वास का तंत्र (बिलीफ): यह समाज के द्वारा निर्धारित पवित्र और अपवित्र चीजों की प्रकृति को बताती है। पवित्र चीजें हमें उसमें आस्था देती है और जो हमारे जीवन दर्शन को नियंत्रित करती है।
इस आस्था के द्वारा ही समाज व्यक्ति को अपने में समावेशित कर पाता है. छठ पूजा में यह आस्था और विश्वास इतना गहरा है कि बिहारी समाज इसके लिए किसी भी सीमा तक जाकर इसे प्रकट करते हैं।
छठ के समय राज्य या देश से बाहर रहने वाले लोग,विशेषकर प्रवासी मजदूरों के आगमन की प्रक्रिया से ही इस विश्वास की तीव्रता को समझा जा सकता है। वे ट्रेनों में सीटें नहीं मिलने पर शौचालयों में भी बैठकर आ जाते हैं, या फिर बसों की छतों पर बैठकर अपने-अपने गांव आ ही जाते हैं।
हर वर्ष पूजा में गांव पहुंचना इतना दुष्कर कार्य होता है कि कई लोग सड़क हादसों के भी शिकार होते हैं, साथ ही बसों-ट्रेनों में भी भयानक भीड़ के कारण उनकी मौतें हो जाती है, या फिर गंभीर रूप से बीमार हो जाते हैं।
ऐसे भी अनेक मामलों को देखा जा सकता है जब नौकरियों में छुट्टियाँ नहीं मिलती है तो लोग अपनी नौकरियों को ताक पर रखकर पूजा में शामिल होने आ जाते हैं। छठ पूजा की आस्था इतनी गहरी है कि इसमें शामिल होने के लिए वे कोई भी कीमत चुकाने को तैयार होते हैं और दुर्भाग्य से उनके इस अटूट विश्वास से बाजारवादी तंत्र इनका पर्याप्त आर्थिक शोषण करता है।
अनुष्ठान (रिचुअल्स) : यह एक नियमावली की तरह है कि पवित्र या अपवित्र चीजों के साथ किस तरह का व्यवहार किया जाए। इस महोत्सव में भी अनगिनत तरीके से समाज के प्रति अपना समर्पण विभिन्न अनुष्ठानों के द्वारा प्रदर्षित किया जाता है।
दो दिनों की निर्जला उपवास से लेकर प्रसाद वितरण तक उसी सामाजिकता के प्रति समर्पण का अनुष्ठानिक तरीका है। इसमें पूरी पवित्रता बरती जाती है. सबकुछ शुद्धता की कसौटी पर तय होता है। यह शुद्धता या पवित्रता वस्तुतः समाज के प्रति सच्चे भाव से जुड़ने का सांकेतिक सन्देश है। तमाम अपवित्र चीजें जैसे पैसा, शोहरत, पद, प्रतिष्ठा सब समाज में तिरोहित हो जाता है।
चर्च: यह एक नैतिक संगठन का भौगोलिक और मूर्त पवित्र स्थान है. चूँकि डर्कहाइम का संदर्भ यूरोपीय समाज से था इसलिए उन्होंने वहां चर्च का उल्लेख किया है।
भारत में, खासकर हिन्दुओं में इसे मंदिरों के रूप में देखा जा सकता है, लेकिन छठ पूजा हिन्दू मंदिर की अनिवार्यता से भी मुक्त है। इसमें ईश्वर की आराधना के लिए किसी मंदिर का प्रयोग नहीं है, बल्कि प्रकृति की जीवन-दायिनी शक्तियों को ही पवित्र स्थान का मूर्त रूप माना है। और प्रकृति के ही विभिन्न स्थान जैसे नदी, तालाब, इसका भूगोल भी है और आराध्य भी।
इस महोत्सव में ‘कलेक्टिव- कन्साइंस’ के लिए सम्पूर्ण प्रकृति को ही आधार बनाया जाता है. और इस अर्थ में समाज को जोड़ने के एक उत्सव के रूप में यह मंदिर की सीमाओं में नहीं बंधता; जैसे, इसमें नदियां समाज को जोड़ने की एक अनंत धारा की तरह कार्य करती है, जिससे बिना किसी भेदभाव के समाज का पूरा आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन संचालित होता है।
इस तरह छठ के समय की जाने वाले तमाम पवित्र अनुष्ठानिक क्रियाएं छठ के बाद की अपवित्र क्रियाओ या राजनीतिक-आर्थिक क्रियाओं को नियंत्रित करने का एक श्रोत बनती है.
इन सब बातों के आलावा कुछ और भी विशेष है छठ महोत्सव में. इसका दार्शनिक और सांकेतिक पक्ष इतना विशाल है कि बिहार में यह जाति, लिंग, पुरोहिततंत्र, मजहबी सीमाओं से ऊपर जाकर मनाया जाता है।
मुस्लिम समाज के लोगों के द्वारा भी इसमें भागीदारी देखी जा सकती है. इसकी पूरी अनुष्ठानिक क्रियाओं में पुरोहिततंत्र नहीं होने के कारण यह इतना समावेशी बन जाता है कि किसी भी तरह से सामाजिक भेदभाव इस त्यौहार की सामूहिकता को प्रभावित नहीं कर पाता।
बिहार के पास अब शायद केवल इतिहास है, वर्तमान के नाम पर इसके पास केवल स्मृतियाँ है। फिर भी अगर इसके पास कोई सबसे बड़ी चीज है जो इसके सामाजिक तंत्र को पूरी तरह बिखरने से बचा रही है तो वह छठ महापर्व को कहा जा सकता है।
शायद ही ऐसा कोई समाज है जहाँ डूबते हुए सूरज की पूजा की जाती है. डूबते सूरज का दर्शन बिहारी समाज की उस सामाजिक बुनावट को बताता है जो असफलता या पतन की स्थिति में भी अवदानों या उसकी महत्ता को विस्मृत नहीं होने देता.। यह स्मृति के महत्व को प्रदर्शित करता है. स्मृति प्रतिरोध है,और यही कारण भी है कि प्रतिरोध की चेतना इस समाज में विरासत की तरह है।