उत्तराखंड राज्य गठन के बाद तेजी से बिगड़े हालात
साल 2024 की यात्रा हमारी छठी यात्रा थी। यात्रा को पचास साल पूरे हो गए हैं । 1974 की यात्रा के समय हम खुद बहुत ज्यादा नहीं जानते थे कि कहां-कहां नजर रखें, किन मुद्दों पर बात करें। मोटे तौर पर हम स्थानीय मुद्दों पर बात करते थे, जैसे- जंगल बचाओ, शराब बंदी, स्कूल व शिक्षा, कनेक्टिविटी, पिछड़ापन आदि। एक और खास मुद्दा उस यात्रा में मुखर तौर पर सामने आया, वो था जन प्रतिनिधियों की पहुंच दूरस्थ गांवों तक न होना। स्थानीय लोग अपने जन प्रतिनिधियों को नहीं जानते थे। ऐसे स्थान मोटर गाड़ियों की पहुंच से 80-90 किलोमीटर तक दूर थे।
1984 में यात्रा को पीपुल्स एसोसिएशन फॉर हिमालय एरिया रिसर्च (पहाड़) संस्था द्वारा सुव्यवस्थित करने का प्रयास किया गया। हर गांव का विषय वार फॉर्म भरने लगे। लोगों से अलग-अलग विषयों पर सवाल पूछते थे। यात्रा में शामिल साथी स्थानीय लोगों के साथ बैठक करते थे। महिलाएं गांव की महिलाओं के साथ बैठक करतीं, उनके मुद्दों को, समस्याओं को नोट किया जाता। शाम को बच्चों के साथ बैठक होती। वे एकदम नई और अप्रत्याशित जानकारी देते। पहली यात्रा में शामिल यात्रियों की संख्या कम थी, लेकिन 1984 में यात्रियों की संख्या बढ़ गई। इसलिए हमने अलग-अलग समूह बना दिए, जो अलग-अलग रास्तों और गांव से होते हुए दो-तीन दिन बाद मिलते थे। फिर भी बहुत सारी बातें छूट जाती होंगी, इसलिए हम अपनी हर यात्रा में अधिक से अधिक विवरण जानने और जुटाने की कोशिश करने लगे। यह जानने की कोशिश करने लगे कि देश-दुनिया में जिस तरह के बदलाव हो रहे हैं, उसका असर पहाड़ के दूरस्थ गांवों पर किस तरह पड़ रहा है? लोगों के लिए शिक्षा, अस्पताल, संचार या सड़क का न होना क्या मायने रखता है? वहां जाने से पता चलता है कि आउटमाइग्रेशन (स्थायी पलायन) का हाल क्या है? भारत-तिब्बत व्यापार रुक जाने के बाद भोटिया समाज पर क्या असर पड़ा है?
साल 2024 की यात्रा मुख्य निष्कर्ष यह है कि 2014 से 2024 के बीच का दशक पिछले पांच दशकों के मुकाबले सबसे अधिक बदलाव का रहा है। अगर इसे सड़कों के संदर्भ में देखें तो यह विकास का दशक रहा, लेकिन उसी अनुपात में यह विनाश का भी दशक रहा। पूरा पहाड़ खोद दिया गया है। वह चाहे सड़क के बहाने हो, सुरंग (टनल) या हाइड्रो प्रोजेक्ट के बहाने हो या कोई अन्य विकासात्मक गतिविधि के बहाने हो। यहां तक कि इस दशक में उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में हेलीपैड की संख्या भी बढ़ गई है। पहाड़ में स्कूल बंद हो रहे हैं, लेकिन हेलीपैड खुल रहे हैं। दूरस्थ क्षेत्रों में भी पब्लिक स्कूलों की संख्या बढ़ती नजर आई, जबकि सरकारी प्राइमरी स्कूलों की संख्या तेजी से घट रही है। स्कूलों के क्लस्टर बनाने की नौबत आ गई है।
देखने में यह आया कि सड़क जहां गई, वहां विकास के दूसरे ज्यादा जरूरी हिस्से नहीं पहुंचे। इससे विकास का नकारात्मक पक्ष ज्यादा सामने आया, जैसे कि- दूरस्थ गांव के लोगों को जब स्कूल नहीं मिला, अस्पताल नहीं मिला तो वे गांव छोड़ कर इसी सड़क का इस्तेमाल कर नजदीकी तहसील-ब्लॉक मुख्यालय, कस्बों, शहरों में अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए आ गए। लोग गांव में पैदा अन्न, फल और दूध-दही के बदले बाजार में उपलब्ध मिलावटी चीजों को खरीदने को विवश हो रहे हैं, जो कीटनाशकों या रासायनिक खाद से उगाया जाता है। इससे उनके बच्चों की खाने की आदत ही बदल गई, जबकि उनके घर-गांव में बहुत कुछ उपलब्ध है। पलायन से लोक देवता, पनघट-गोचर, घट-इजर सब पीछे छूट गए। हमने पाया कि यह दशक (2014 से 2024) बहुत बड़े व कठोर बदलाव का रहा। इस दशक के दौरान लोगों ने आपदाएं खूब झेलीं। भूस्खलन, बाढ़, और दावानल ने बहुत नुकसान पहुंचाया।
अस्कोट-आराकोट अभियान के पांच दशकों को हम उत्तराखंड राज्य बनने से पहले के 25 साल और बनने के बाद के 25 साल के हिसाब से देखें तो पाते हैं कि पहाड़ों में आपदाएं पहले भी आती थी, लेकिन हाल के दशक में आपदाएं अब प्राकृतिक कम रह गई है, और मनुष्यकृत ज्यादा हो गई हैं। सीधे शब्दों में कहें तो यह व्यवस्था और हमारे खुद के द्वारा पैदा की गई आपदाएं हैं। पहले आपदाएं 10 या 20 साल में एक बार आती थी, अब इनकी आवृति बढ़ी है। वैसे तो पूरे हिमालय में ऐसा देखा जा रहा है, लेकिन हमारे यहां (उत्तराखंड) जहां विकास के काम ज्यादा हुए हैं वहां उनकी आवृति बहुत ज्यादा हुई है। हमने यह बहुत साफ-साफ देखा कि अगर सड़क या किसी प्रोजेक्ट के लिए पहाड़ या मिट्टी खोदी जाती है तो मलबा नदियों में डाला जा रहा है। जगह-जगह नदी के किनारे डंपिंग जोन दिख जाते हैं। डंपिंग जोन के चारों ओर अगर कोई दीवार भी बनाई जा रही है तो मलबा उस दीवार से बाहर निकल कर नदियों में जा रहा है, जबकि नदी खुद ग्लेशियरों से अपना मलबा भी ला रही है। नदियों का मिजाज बदलने के लिए यह दशक याद किया जाएगा। अब काली नदी के पार नेपाल में भी सड़कों का विस्तार देखा।
हालांकि 2024 की यात्रा में एक सुखद बात यह रही कि हमने देखा कि लड़कियों का शिक्षा संस्थानों में जाना आसान हुआ है और उनकी संख्या विद्यालयों में बढ़ी है। लड़कों को गांव से निकाल कर शहरों में पढ़ने के लिए भेजा जा रहा है, लेकिन लड़कियां भी आगे बढ़ रही हैं। 1994 तक हम बहुत कम लड़कियों को मिडिल स्कूल में देख पाते थे, लेकिन 2014 और अब 2024 में उनकी संख्या बढ़ी है। ज्यादातर कक्षाओं में परीक्षाएं टॉप करने वाली लड़कियां मिलीं। एक और सकारात्मक बदलाव हमने देखा कि महिला मंगल दल, ग्राम सभाएं या कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं ने बिना सरकारी मदद के दूरस्थ इलाकों में उद्यम स्थापित किए हैं। ऐसा हमने धारचूला, जोशीमठ (नीति-माणा), मुनस्यारी आदि इलाकों में देखा है। इससे हमें यह लगा कि कुछ लोग भागने की बजाय रुक कर वहीं अपना भविष्य तलाश रहे हैं।
जंगलों का नुकसान बढ़ा
2024 की 45 दिन की हमारी यात्रा के दौरान 28 दिन तक हमें जंगलों में आग का सामना करना पड़ा। चीड़ के जंगलों में आग लगना तो सामान्य बात है, लेकिन हमने चौड़ी पत्ते वाले बांज और बुरांश के जंगलों में आग लगी हुई पाई। यह बेहद असामान्य बात है। बिन्सर अभयारण्य में आग से जूझते हुए आठ लोगों की जान चली गई। ऊंचे इलाकों में इस साल बर्फ काफी कम पड़ी। जो लोग कीड़ाजड़ी यानी यार्सागुंबा इकट्ठा करने गए थे, वे हताश मिले। वहां भी ट्री लाइन, स्नो लाइन, ग्रास लाइन के बीच के इलाकों में भी जंगलों में आग देखने को मिली। इस साल इतना सूखा था कि हल्की सी भी लापरवाही की वजह से जंगल आग पकड़ लेते थे। यात्रा में शामिल दो-तीन साथी ऐसे थे जिन्हें दमा था और यात्रा के दौरान उन्हें सांस लेने में काफी दिक्कत हुई, जबकि ये साफ हवा के लिए सबसे अच्छे इलाके माने जाते थे। लेकिन जंगलों की आग ने उन इलाकों की भी हवा को दूषित कर दिया।
ऐसे ही इस यात्रा में हमने भूस्खलन की घटनाएं भी बहुत देखीं। खासकर चार धाम यात्रा मार्ग के इलाकों में भूस्खलन का क्षेत्र साफ तौर पर बढ़ा हुआ दिखाई दिया। हमारा अनुमान है कि लगभग 200 स्थानों पर नए भूस्खलन सम्भावित क्षेत्र बन गए हैं। खास बात यह है कि जब भूस्खलन की वजह से चारधाम यात्रा मार्ग बंद हुआ तो वही पुरानी सड़कें काम आई, जो कि कम चौड़ी हैं और जिनकी बहुत कम मरम्मत की जाती है। इस दशक में आपदाओं के बढ़ने का यह एक बड़ा कारण सड़कों का अवैज्ञानिक और अनियत्रिंत विस्तार रहा।
जलवायु परिवर्तन का असर
असल में जलवायु परिवर्तन को लेकर बहुत साफ इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि वैज्ञानिक भी किसी क्षेत्र विशेष को लेकर बहुत स्पष्ट नहीं बताते हैं परंतु यह सच है कि अब लोग जलवायु परिवर्तन को महसूस कर रहे हैं। हमारा पांच दशक का अनुभव बताता है कि पिछले 20 से 30 सालों में लोगों ने जलवायु परिवर्तन का असर महसूस नहीं किया। तब कोई हो-हल्ला भी नहीं होता था। हालांकि तब भी बर्फ न पड़ने, अतिवृष्टि जैसी घटनाएं होती थीं, परंतु उसे नोटिस नहीं किया जा रहा था, लेकिन इधर के सालों में लोगों ने महसूस किया कि पहाड़ों में असाधारण रूप से ड्राई स्पेल बढ़ रहा है। मॉनसून में बारिश कम और अनियंत्रित हो रही है। क्षेत्र विशेष में बादल फट (स्थानीय भाषा में यानी पणगोला बरस) रहे हैं। दिसंबर-फरवरी में बर्फ नहीं पड़ रही है। कभी दो-तीन सालों में अचानक बहुत ज्यादा बारिश और बर्फ पड़ जाती है। ऐसे में लोग महसूस तो करने लगे हैं कि पहले के मुकाबले अब मौसम में अटपटापन आ गया है। इसका असर उनकी आर्थिकी पर पड़ रहा है। हमारे यहां कहा जाता है कि ‘जै साल ह्ंयु वी साल ग्ंयू’ यानी जिस साल बर्फ ज्यादा पड़ेगी उस साल गेहूं बहुत अच्छा होगा। हमारे यहां जाड़ों की प्रमुख फसल गेहूं है, लेकिन अब गेहूं का उत्पादन लगातार घट रहा है।
पलायन बढ़ा
उत्तराखंड में पलायन की शुरुआत अंग्रेजों के समय में 1860 के आसपास हुई थी। उससे पहले तक हमारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था आत्मनिर्भर थी। हम केवल अपनी जरूरत का उगाते थे और जो हम नहीं उगाते थे, वो हम अपने पड़ोसी से अदल-बदल करते थे। अंग्रेजों के बाद पहली बार मसूरी, पौड़ी, नैनीताल, देहरादून जैसे नगर बसने-बढ़ने शुरू हुए। 1857 के बाद हमारे यहां बड़ी सैन्य छावनियां बननी शुरू हईं। इस तरह जो समाज पूरी तरह आत्मनिर्भर था, वह अपनी खेती, पशुचारण छोड़ कर इन शहरों में नौकरियों के लिए आने लगे और उत्तराखंड के पहाड़ मनीऑर्डर इकोनॉमी पर चलने लगे। लेकिन समय के साथ आए बदलाव के चलते यहां से स्थायी पलायन बढ़ गया। 1994 की यात्रा के दौरान एक पूर्व फौजी ने हमें बताया कि अब ‘मनी ऑर्डर’ नहीं आता बल्कि ‘रनिंग ऑर्डर’ आता है यानी अब मैदानों में रह रहे बच्चे अपने अभिभावकों को कहते हैं कि पहाड़ छोड़कर उनके साथ आ जाएं।
(राजू सजवान से बातचीत पर आधारित)