क्यों घट गया है हिमाचल के इस जिले का कुल वन क्षेत्र?

रिपोर्ट में बताया गया है कि वर्ष 1991 में किन्नौर का कुल फोरेस्ट एरिया 633 वर्ग किलोमीटर था, जो कि वर्ष 2015 में घटकर 604 वर्ग किलोमीटर तक सीमित रह गया है|
हिमाचल प्रदेश में हाइड्रो प्रोजेक्ट्स की वजह से वन क्षेत्र घट रहा है। फोटो: रोहित पराशर
हिमाचल प्रदेश में हाइड्रो प्रोजेक्ट्स की वजह से वन क्षेत्र घट रहा है। फोटो: रोहित पराशर
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रोहित पराशर

हिमाचल प्रदेश में पर्यावरण में आ रहे बदलावों पर नजर रखने के लिए स्थापित की गई एक संस्था स्टेट सेंटर ऑन क्लाइमेट चेंज की रिपोर्ट में हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिला में कम होते फोरेस्ट कवर का खुलासा किया गया है। संस्था की ओर से 24 साल आंकड़ों का विश्लेषण किया गया है। 1991 से 2015 तक के आंकडों के आधार पर रिपोर्ट में कहा गया है कि चीन की सीमा से सटे इस जिले में फोरेस्ट कवर एरिया 4.6 घट गया है।

फोरेस्ट कवर घटने के पीछे सबसे बड़ा कारण हाइड्रो पावर प्रोजेक्टों की मौजूदगी बताया गया है। सरकारी आंकड़े के अनुसार किन्नौर जिला में हिमाचल के सबसे अधिक हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट चल रहे हैं। किन्नौर में अभी तक 30 पावर प्रोजेक्ट चल रहे हैं और इसके अलावा 50 से अधिक पावर प्रोजेक्ट एन्वायरनमेंट क्लीयरेंस और अन्य औपचारिक्ताओं को पूरा करने की वजह से प्रोसेस में हैं।

इसके अलावा शुक्ला कमेटी की मोनिटरिंग कंप्लाइंस ऑफ हाइडल प्रोजेक्ट्स इन हिमाचल प्रदेश के मुताबिक अभी तक किन्नौर में लगे 1000 मेगावाॅट के कड़च्छम वांगतु प्रोजेक्ट में 10,540, नाथपा झाकड़ी में 1087, टीडोंग वन में 1261, सोरंग प्रोजेक्ट 184 पेड़ों को काटा गया है। इसके अलावा क्षेत्र में ट्रांसमिशन लाइन बिछाने के लिए भी हजारों की संख्या में पेड़ों को काटा गया है। स्थानीय लोगों का आरोप है कि जिले में अत्यधिक मात्रा में लगे पावर प्रोजेक्टों की वजह से प्राकृतिक आपदाओं में वृद्धि हुई है। इससे जीव-जंतुओं की कई प्रजातियां भी विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई हैं। 

रिपोर्ट में बताया गया है कि वर्ष 1991 में किन्नौर का कुल फोरेस्ट एरिया 633 वर्ग किलोमीटर था, जो कि वर्ष 2015 में घटकर 604 वर्ग किलोमीटर तक सीमित रह गया है। इसमें घने वन क्षेत्र में 39.1 फीसदी की कमी दर्ज की गई है, वहीं झाड़ीनुमा क्षेत्र में 89.9 फीसदी की कमी दर्ज की गई है।

किन्नौर जिले को बाढ़ और भूकम्प की दृष्टि से सबसे संवेदनशील जिला माना गया है। तिब्बत से हिमाचल के किन्नौर जिले में प्रवेश करने वाली सतलुज नदी में 1 अगस्त 2000 को आई बाढ़ में शिमला और किन्नौर जिलों में 150 से अधिक लोग मारे गये थे और इसमें लगभग 1 हजार करोड़ की क्षति का अनुमान लगाया गया था। इसी तरह 26 जून 2005 की बाढ़ में सतलुज का जलस्तर सामान्य से 15 मीटर तक उठ गया था।  इस बाढ़ में 5 हजार लोगों का रेस्क्यू किया गया था और 800 करोड़ का नुकसान हुआ है। वहीं हाल ही में मौसम विभाग की ओर से जारी आंकड़ों के अनुसार जनवरी 2020 में हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिला में पिछले 30 सालों में सबसे अधिक बर्फबारी दर्ज की गई है। इससे भी मौसम में हो रहे बदलावों का अंदाजा लगाया जा सकता है।

रिपोर्ट में बताया गया है कि वनों के घटने से पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा हैं। इससे क्षेत्र में अधिक वर्षा, जैव विविधता को खतरा, मृदा अपर्दन, वन्य जीवों पर विपरीत असर, पानी के प्राकृतिक स्त्रोतों का सुखना, पारिस्थितिकी पर असर, स्थानीय लोगों के लिए वनों से मिलने वाले संसाधनों में कमी और सबसे बड़ा असर देखा गया है। इसके घटते वन क्षेत्रों और बढ़ते पावर प्रोजेक्टों से क्षेत्र के पर्यावरण पर असर पड़ रहा है। इसलिए जरूरत है कि विकास की इस अंधी दौड़ में पर्यावरण के साथ सामंजस्य बनाकर आगे बढ़ा जाए।

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