
नीलू देवी के घर में दोपहर के भोजन के बाद मेहमान आए। वर्षा देवी ने मेहमानों को चाय की पेशकश की। मेहमान थोड़े असमंजस में थे कि अब इस गर्मी में चूल्हे के साथ लकड़ी जोड़ेगी तभी चाय बनेगी।
चाय पीने के लिए इतना कष्ट क्यों देना। वर्षा देवी ने मेहमानों के चेहरे पर असमंजस को देखते हुए कहा कि घर में बायोगैस लग चुका है। चाय बनाने में जरा भी मेहनत नहीं लगेगी।
बायोगैस संयंत्र लगने के पहले वर्षा देवी लकड़ी के चूल्हे पर ही निर्भर थीं। तब उनकी जिंदगी का ज्यादातर समय जलावन इकट्ठा कर खाना बनाने में ही चला जाता था।
नीलू देवी के साथ ही मध्य प्रदेश के सिंगरोली जिले के पिपरा गांव के आसपास के गांव की महिलाओं की जिंदगी काफी बदल चुकी है। अब उनके पास अपने लिए फुर्सत के कुछ पल हैं।
अब असमय और बिना पूर्व सूचना दिए आए मेहमानों को देख कर इन्हें कोफ्त नहीं होती है।
रसोईघर में अब पहले से कम समय देना होता है और खाना ज्यादा आसानी से बन जाता है।
पिपरा गांव की तस्वीर कई मायनों में बदल गई है।
अब गांव में किसी महिला या पुरुष को लकड़ी का गट्ठर, या रसोईगैस सिलेंडर या बोतल में कैरोसिन आदि ले जाते नहीं देखा जाता है। गांव की इस सूरत को बदले अभी लगभग दस महीने ही हुए हैं।
इस गांव के आधे से अधिक यानी कुल 71 घरों में बायोगैस संयंत्र लग गए हैं। अहम बात है कि जीवनशैली बदल देने वाली इस स्थिति को लाने में महिलाओं ने सक्रिय भूमिका निभाई है।
“दीनबंधु मॉडल बायोगैस संयंत्र” योजना का क्रियान्वयन करवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली योजना की समन्वयक रक्षा सिंह ने “डाउन टू अर्थ” को बताया, "आज की तारीख में इन महिलाओं के अथक प्रयासों का ही नतीजा है कि अब वे हर माह सिलेंडर का 800 से 11 सौ रुपए तक की बचत कर पा रही हैं।"
अकेले सिलेंडर ही नहीं लकड़ी का खर्च, कैरोसिन का खर्च और बिजली बिल आदि में भी उनकी बचत संभव हो पाई है।
वह कहती हैं, "घरों में बायोगैस संयंत्र लगने से महिलाओं के स्वास्थ्य पर भी अब सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। इस संबंध में पिपरा गांव की नीलू वेस ने कहा कि बायोगैस के हो जाने से अब हमें इस सिरदर्दी से छुटकारा मिल गया है कि सिलेंडर नहीं मिला, लकड़ी नहीं मिली या कैरोसिन नहीं मिला।"
वह कहती हैं कि हमारे दिन का कहें या माह का अधिकांश समय तो इसी में बीत जाता था कि सिलेंडर कब मिलेगा या लकड़ी है कि नहीं आदि।
इन महिलाओं ने अपने आसपास के पर्यावरण को बचाने और अपनी जैसी अन्य ग्रामीण महिलाओं की जिंदगी को और आसान बनाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम उठाया है।
सबसे अहम बात है कि इस काम ने महिलाओं को रसोई में लकड़ी के धुएं से होने वाली परेशानियों से मुक्ति दिलाई है।
“दीनबंधु मॉडल बायोगैस संयंत्र” अपनी कम लागत और ग्रामीण जरूरतों के अनुकूल डिजाइन किया गया है। ये संयंत्र गोबर और जैविक कचरे से गैस बनाते हैं, जिससे रसोई में ईंधन की जरूरत पूरी होती है।
साथ ही इससे निकलने वाली स्लरी खेतों में जैविक खाद के रूप में इस्तेमाल की जाती है। किसान इसका उपयोग आसानी से अपने खेतों में कर पाते हैं, जिससे उनकी उपज की पैदावार पर भी सकारात्मक असर पड़ रहा है।
केंद्रीय नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के अनुसार भारत में बायोगैस संयंत्र ग्रामीण क्षेत्रों में स्वच्छ ऊर्जा का एक व्यावहारिक समाधान हैं जो पर्यावरण संरक्षण के साथ सामाजिक-आर्थिक लाभ भी देते हैं।
बायोगैस संयंत्र के तकनीकी पक्ष पर सिंगरौली जिला पंचायत के मुख्य कार्यपालन अधिकारी गजेंद्र सिंह नागेश ने कहा कि बायोगैस में उपयोग किए गए गोबर की 70 प्रतिशत मात्रा 24 घंटे में स्लरी के रूप में मिल जाती है।
यह एक गंधरहित खाद है। इसे गीले या सूखे रूप में महिलाएं अपने खेतों में इस्तेमाल कर रही हैं।
बायोगैस के उपयोग करने से भविष्य में बदलने वाली परिस्थितियों पर रक्षा कहती हैं कि इस तकनीक के जरिए बिना अतिरिक्त प्रयास के ही आम ग्रामीण प्राकृतिक एवं जैविक खेती कर सकने में सफल होंगे।
रक्षा कहती हैं कि हमने एक मानदंड तैयार किया है जिसके अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में परंपरागत रूप से जलावन के रूप में पांच किलो लकड़ी का प्रतिदन उपयोग किया जाता है और इसके चलते लगभग दो माह में एक व्यस्क पेड़ को लकड़ी के रूप में एक परिवार द्वारा जलाया दिया जाता है।
वहीं गांवों में लोग दुग्ध उत्पाद की जरूरतों के लिए मवेशी पालते हैं। हर घर में अपने मवेशी होते हैं। इन मवेशियों के गोबर के बायौगैस के रूप में इस्तेमाल होने से जलावन के लिए पेड़ भी कटने से बच रहे हैं।
एक तरह से देखा जाए तो बायोगैस संयंत्र ऊर्जा की स्वावलंबी व्यवस्था है। एक व्यक्ति अपने घर के निजी संसाधनों से अपनी जरूरत की गैस और बिजली पैदा कर सकता है।
यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि खुले में पड़े हुए गोबर से मीथेन गैस निकलती है और इसके कारण गर्मी बढ़ती है। यह गैस ग्लोबल वार्मिंग का एक बड़ा कारण बनती है।
लेकिन इसके बायोगैस बन जाने से व इसका स्वत: निस्तारण हो जाने पर ग्लोबल वार्मिंग को कम करने में मदद मिलती है।
रक्षा बताती हैं कि बायोगैस द्वारा प्रति घन मीटर में 1.25 किलोवाट यूनिट हरित ऊर्जा का निर्माण होता है और इसके माध्यम से पर्याप्त मात्रा में कार्बन फुटप्रिंट को कम करना संभव होगा।
यही नहीं ग्रामीण परिवेश में व्यापक स्तर में बायोगैस की स्थापना होने से ग्रामीण क्षेत्र में कार्बन क्रेडिट की संभावनाओं को स्थापित किया जा सकेगा। गोबर गैस संयंत्र अपनाने वाला हर घर कम कार्बन निस्तारण कर रहा है। वह पेड़ को भी कटने से बचा रहा है और खेतों के लिए जैविक खाद भी मिल रही है।