
जनवरी 2024 की सर्द सुबहों में बीकानेर जिले के नोखा दैया गांव के किसान कृष्णराम गोदारा बेचैन रहने लगे थे। उनके आसपास के खेतों में सौर ऊर्जा कंपनियां खेजड़ी के पुराने पेड़ काटकर सोलर प्लेटें बिछा रही थीं। राजस्थान के पश्चिमी जिलों के खेतों में सैकड़ों साल पुराने खेजड़ी के पेड़ सहज मिल जाते हैं, जो मरुस्थली पारिस्थितिकी की रीढ़ हैं। लेकिन कंपनियों ने बिजली उत्पादन के लिए अधिकतम ज़मीन घेरने की मंशा से इन पेड़ों की अंधाधुंध कटाई शुरू कर दी थी।
जब यह कटाई कृष्णराम के गांव तक पहुंची, तो उनके भीतर गहरी बेचैनी ने जन्म लिया। इस बेचैनी में उनकी मुलाकात खेजड़ी बचाने के लिए गांव-गांव घूम रहे पर्यावरण कार्यकर्ता रामगोपाल बिश्नोई से हुई।
जुलाई की एक सुबह जब कृष्णराम अपने खेत में काम कर रहे थे, उन्होंने पड़ोस के खेतों में पेट्रोल आरी की आवाजें सुनीं। दौड़कर पहुंचे तो पाया कि खेजड़ी के पुराने पेड़ काटे जा रहे हैं। वे बिना देर किए विरोध में कूद पड़े और रामगोपाल को बुला लिया। थोड़ी ही देर में गांव के कई किसान और रामगोपाल के साथी वहां जुट गए। उपस्थिति बढ़ते देख पेड़ काटने वाले लोग भाग खड़े हुए।
गांव वाले पहले भी देख रहे थे कि कंपनियां चोरी-छिपे खेजड़ियां काटती हैं और विरोध होने पर कुछ समय के लिए रुक जाती हैं। रामगोपाल ने साफ कहा, “जब तक 24 घंटे आंदोलन नहीं चलेगा, तब तक खेजड़ियां नहीं बचेंगी।”
खेतों में तंबू, विरोध की जमीन तैयार
18 जुलाई 2024 को नोखा दैया गांव के खेतों में आंदोलन का आगाज हुआ। रामगोपाल ने बताया कि साल की शुरुआत में ही उन्होंने गांव-गांव जाकर एक नेटवर्क बनाना शुरू कर दिया था। पहले किसानों का विरोध असंगठित था, जिससे कंपनियां फायदा उठाती थीं। लेकिन नेटवर्क बनते ही हालात बदलने लगे।
यह आंदोलन धीरे-धीरे बीकानेर से निकलकर पूरे पश्चिमी राजस्थान में फैल गया—जोधपुर, जैसलमेर, नागौर, बाड़मेर, गंगानगर, हनुमानगढ़ जैसे जिलों तक। कई बार इन जिलों में बंद तक बुलाए गए। दबाव बढ़ने पर राज्य सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ा। सितंबर 2024 में सरकार ने घोषणा की कि अगर कोई खेजड़ी काटनी हो तो बदले में 10 गुना पेड़ लगाने होंगे।
हालांकि आंदोलनकारी इससे संतुष्ट नहीं हैं। चंद्रसिंह भाटी कहते हैं, “यह सिर्फ कागज पर है। जिन जगहों पर पेड़ काटे गए हैं, वहां तो सोलर प्लेटें लग चुकी हैं। वहां पेड़ कहां लगाएंगे?”
"ग्रीन" एनर्जी बनाम हरियाली का विनाश
बीकानेर यूनिवर्सिटी में पर्यावरण विज्ञान के प्रोफेसर डॉ. अनिल छंगाणी के अनुसार, पिछले 14 वर्षों में सिर्फ बीकानेर जिले में 5 लाख से ज्यादा पेड़ कट चुके हैं। वे कहते हैं, “हर बड़े सोलर प्रोजेक्ट से पहले वैसा ही कठोर पर्यावरण ऑडिट जरूरी है जैसा रिफाइनरी या एयरपोर्ट के लिए होता है। पर यहां बिना जांच के सैकड़ों हेक्टेयर में पेड़ काटे जा रहे हैं।”
खेजड़ी, केर, कुमटिया, रोहिड़ा जैसे पेड़ न सिर्फ पर्यावरण के लिए बल्कि आजीविका, चारा और पोषण के लिहाज से भी महत्वपूर्ण हैं। इनका सफाया स्थानीय पशुपालन, कृषि और जैव विविधता को नुकसान पहुंचा रहा है।
इतना ही नहीं, इन सोलर प्लांट्स को बार-बार साफ करने के लिए मीठे पानी की जरूरत होती है, जो पहले से ही जल-संकटग्रस्त मरुस्थल के लिए खतरा है। डॉ. छंगाणी बताते हैं कि 2014 में बीकानेर के एक इलाके में 120 जल स्रोत थे, जो 2022 तक घटकर सिर्फ 15 रह गए।
वन्य जीवन पर संकट
वन्यजीव विशेषज्ञ मृदुल वैभव बताते हैं कि इन सोलर प्रोजेक्ट्स ने थार के जीवन चक्र को गहरा नुकसान पहुंचाया है। मधुमक्खियां, चूहे, नेवले, गोडावण, काले हिरण, रेगिस्तानी बिल्ली जैसी कई प्रजातियां संकट में हैं। गोडावण जैसे पक्षी सोलर प्लांटों के बिजली तारों में फंसकर बड़ी संख्या में मरे हैं।
18 जुलाई 2025 को आंदोलन की पहली वर्षगांठ मनाने के ठीक अगले दिन, बीकानेर के लाखूसर गांव में 400 खेजड़ी के पेड़ काट दिए गए। सूचना मिलते ही आंदोलनकारी पहुंचे, मजदूरों को पकड़ा और पूछा कि उन्हें किसने भेजा है। तभी एक पुलिस अधिकारी का फोन आया कि मजदूरों का ठेकेदार गांववालों के खिलाफ अपहरण की एफआईआर दर्ज कराने थाने पहुंच गया है।
रामगोपाल बिश्नोई बताते हैं, “प्रशासन हमेशा कंपनियों का साथ देता है। जब दबाव बनाते हैं, तब पेड़ काटने वालों पर 100 रुपए प्रति पेड़ का जुर्माना लगाकर छोड़ दिया जाता है।” 1955 के पुराने कानून के तहत यही प्रावधान है, जिससे कंपनियों को डर नहीं लगता। आंदोलनकारियों की मांग है कि एक नया, सख्त वृक्ष संरक्षण अधिनियम बनाया जाए।
विकास बनाम विनाश
डॉ. छंगाणी कहते हैं, “मैं विकास विरोधी नहीं हूं। पर अगर सोलर चाहिए, तो स्कूलों, सरकारी भवनों या राजस्थान की 1700 किमी लंबी नहरों को कवर करके लगाए जा सकते हैं। पंजाब में यह प्रयोग सफल रहा है।”
लेकिन कंपनियों के लिए यह मुश्किल और महंगा रास्ता है। सस्ता और आसान है किसानों से जमीन खरीदना और पेड़ काट देना।
बीकानेर की सामाजिक कार्यकर्ता कनुप्रिया कहती हैं, “बायोडायवर्सिटी खत्म कर देंगे तो टेंपरेचर बढ़ेगा, भोजन की समस्या होगी और जीवन कठिन होगा। एक पेड़ मां के नाम लगाना अच्छी बात है, लेकिन हमारी दादी-नानियों के लगाए पेड़ बचाना उससे भी ज़रूरी है।”
खेजड़ी: एक पेड़ नहीं, सभ्यता का प्रतीक
खेजड़ी राजस्थान का राज्य वृक्ष ही नहीं, मरुस्थल की आत्मा है। इसकी पत्तियां पशुओं के लिए चारा हैं और फल सांगरी राजस्थानी भोजन का अहम हिस्सा। इसकी छांव, लकड़ी, जड़ें और पत्तियां, सब किसी न किसी रूप में थार के जीवन में जुड़ी हैं।
खेतों में सोलर प्लेटों के बीच खाली पड़ी जमीन दिखाते हुए कृष्णराम भावुक होकर कहते हैं, “जब हम खेजड़ी काटते हैं, तो अपनी जड़ें काटते हैं। 1730 में अमृता देवी बिश्नोई और 362 अन्य लोगों ने सिर कटवाकर भी खेजड़ी को बचाया था। आज भी वही जज्बा चाहिए।”
नोखा दैया में धरने पर बैठे एक बुज़ुर्ग बोले, “363 लोग पहले भी खेजड़ी के लिए शहीद हुए थे, आज फिर हम तैयार हैं। पेड़ नहीं कटने देंगे।” इस आंदोलन में बिश्नोई समाज सबसे आगे है, पर साथ में दूसरी किसान और मजदूर जातियां भी खड़ी हैं। बिश्नोई धर्मगुरु जंभेश्वर जी के 29 नियमों में खेजड़ी और वन्यजीवों का संरक्षण प्रमुख है।
रामगोपाल बिश्नोई कहते हैं, “सरकारें खुद को धार्मिक कहती हैं, पर उनके फैसलों में धर्म, परंपरा और पर्यावरण की कोई जगह नहीं होती। विकास के नाम पर सिर्फ कॉर्पोरेट्स का विकास हो रहा है, जनता का नहीं।” जब इस मुद्दे पर जिंदल ग्रुप और एकमे सोलर कंपनी से बात करने की कोशिश की गई, तो उन्होंने बात करने से मना कर दिया।
हरियाली की हत्या
यह संघर्ष सिर्फ पेड़ों का नहीं, एक जीवनशैली, एक सभ्यता का संघर्ष है। जिस ‘ग्रीन एनर्जी’ के नाम पर यह सब हो रहा है, वह खुद हरियाली को खत्म कर रही है। यह सिर्फ राजस्थान की नहीं, पूरे देश और दुनिया की समस्या है। जब तक विकास और प्रगति के नाम पर पर्यावरण से समझौता होता रहेगा, यह संघर्ष चलता रहेगा। और जब तक यह संघर्ष जारी रहेगा, तब तक उम्मीद भी जीवित रहेगी। जैसे खेजड़ी खुद सिखाती है: “जड़ें जितनी गहरी होती हैं, तूफानों से लड़ने की ताकत उतनी ज्यादा होती है।”