केंद्र और राज्य की सरकार अलकनंदा-भागीरथी घाटी में प्रस्तावित 24 जलविद्युत परियोजनाओं को शुरू कराने की पूरी कोशिश कर रही है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय से इसके पर्यावरणीय असर को लेकर ताजा रिपोर्ट दाखिल करने के आदेश दिए। उत्तराखंड की जलविद्युत क्षमता 25 हजार मेगावाट कही जाती रही। नए सिरे से आंकलन कर इसे करीब 18 हजार मेगावाट निर्धारित किया गया। राज्य में इस समय 3756.4 मेगावाट जलविद्युत उर्जा का उत्पादन हो रहा है। 1,640 मेगावाट की परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं और 12,500 मेगावाट क्षमता की परियोजनाएं विकसित करने का उद्देश्य है।
28 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने अलकनंदा-भागीरथी नदी घाटी पर प्रस्तावित हाइड्रो पावर परियोजनाओं के मामले में सुनवाई करते हुए टिप्पणी की, कि सरकार इन पावर प्रोजेक्ट्स को इको सेंसेटिव ज़ोन से बाहर दूसरे क्षेत्रों में शिफ्ट करने पर विचार कर सकती है, ताकि लोगों की ज़िंदगियां खतरे में न आएं। चार हफ्ते बाद इस मामले में दोबारा सुनवाई होगी।
माटू जन संगठन के विमल भाई कहते हैं वर्ष 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद नदियों की भौगोलिक संरचना तक बदल गई है। तब डब्ल्यूआईआई की रिपोर्ट के बाद 24 परियोजनाओं पर रोक लगी थी। लेकिन सरकार पर ठेकेदार लॉबी की ओर से इन परियोजनाओं को शुरू करने का बहुत दबाव है। केदारनाथ आपदा के समय जहां विष्णुप्रयाग बांध के गेट टूटे ठीक उसी जगह जीएमआर कंपनी का अलकनंदा हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट प्रस्तावित है। वह मानते हैं कि विष्णुप्रयाग बांध नहीं होता तो बद्रीनाथ और हेमकुंड आपदा से प्रभावित नहीं होते। उसी बांध का मलबा नदियों में मिलकर तबाही की वजह बना।
विमल भाई कहते हैं कि बांधों के चलते हुए नुकसान पर न तो प्रशासन न ही राज्य या केंद्र सरकार जरूरी कदम उठाती है। नुकसान चाहे नदी को हो या लोगों के विस्थापन का मुद्दा हो। विष्णुप्रयाग बांध की सुरंग के उपर बसे जांई और थैंग गांव बरसों बाद अचानक धसक गए। लंबी लड़ाई के बाद उनका पुनर्वास हो सका। इसी तरह टिहरी झील विस्थापितों की संख्या बढ़ती जा रही है। कई गांव अब भी विस्थापन का इंतज़ार कर रहे हैं। बांध के चलते जंगल काटे गए, डूब गए, खत्म हो गए लेकिन उनके बदले होने वाला वनीकरण पूरा नहीं हुआ।
ऊर्जा मंत्रालय की स्टैंडिंग कमेटी ने वर्ष 2018-19 में जलविद्युत ऊर्जा की स्थिति को लेकर 16वीं लोकसभा में रिपोर्ट पेश की। उत्तराखंड सरकार ने स्टैंडिंग कमेटी को कहा कि राज्य में हिमाचल की तर्ज़ पर ही हाइड्रो पावर की क्षमता है, हिमाचल हर साल एक हज़ार करोड़ रुपए की बिजली बेचता है और हम एक हज़ार करोड़ रुपए की बिजली हर साल खरीदते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि गंगा नदी उत्तराखंड में ही जन्म लेती है और भागीरथी इको सेंसेटिव ज़ोन होने की वजह से राज्य में अदालत, एनएमसीजी और जल संसाधन मंत्रालय की ओर से कई पाबंदियां लगाई गई हैं, जिससे ये क्षेत्र ठप हो गया है। उत्तराखंड सिर्फ जलविद्युत ऊर्जा पर ही निर्भर है और इसपर गतिरोधों की वजह से राज्य की आर्थिकी प्रभावित हो रही है।
एऩजीटी के आदेशानुसार राज्य की नदियों में फिलहाल 15 प्रतिशत पर्यावरणीय प्रवाह सुनिश्चित करने के आदेश दिए गए हैं। 9 अक्टूबर 2018 को जल संसाधन मंत्रालय ने गंगा बेसिन के ऊपरी हिस्सों में पर्यावरणीय प्रवाह 20-30 प्रतिशत करने का आदेश दिया, जिस पर राज्य सरकार ने कहा कि इससे हाईड्रो पावर प्रोजेक्ट्स का नुकसान बढ़ जाएगा। अभी एनजीटी के आदेशों का पालन करने में ही सालाना 120 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ रहा है।
गंगा की धाराओं पर बने 19 हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स में से एक अलकनंदा हाइड्रो पावर कंपनी नदी के 20 से 30 प्रतिशत के ई-फ्लो के आदेश पर पिछले वर्ष उत्तराखंड सरकार और केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय को कोर्ट में चुनौती भी दी है। कंपनी का कहना है कि इससे होने वाले नुकसान की भरपाई सरकार को करनी होगी।
तो जब हाइड्रो कंपनियां अपने हित और नदियों की अनदेखी करते हुए केंद्र का फैसला मानने को तैयार नहीं हैं, ऐसे में 24 नई परियोजनाएं नदी के जीवन को कितना प्रभावित करेंगी। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी पर गौर करना जरूरी है कि क्या इन परियोजनाओं को इको सेंसेटिव ज़ोन के बाहर शिफ्ट किया जा सकता है।