डाउन टू अर्थ खास: छोड़ी गई खदानों पर बसे हैं लोग, कभी भी हो सकता है हादसा

छोड़ी गई खदानों के आसपास समुदायों के पुनर्वास के लिए सरकार योजना बना रही है, साथ ही खनन फिर से शुरू करने की संभावना भी तलाश रही है
झारखंड में गोपीनाथपुर पहाड़ी बस्ती। यह देश में कोयला खानों के कर्मचारियों के लिए कुछ पुनर्वास कॉलोनियों में से एक है। बस्ती धधकती भूमिगत आग के ऊपर बसी है जो कोयले के भंडार से पोषित होती है और इसे बुझाया नहीं जा सकता (फोटो: विकास चौधरी)
झारखंड में गोपीनाथपुर पहाड़ी बस्ती। यह देश में कोयला खानों के कर्मचारियों के लिए कुछ पुनर्वास कॉलोनियों में से एक है। बस्ती धधकती भूमिगत आग के ऊपर बसी है जो कोयले के भंडार से पोषित होती है और इसे बुझाया नहीं जा सकता (फोटो: विकास चौधरी)
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सदन कुमार पासवान हर दिन आग में सांस लेते हैं। उनके घर के आसपास की जमीन दरारों से भरी हुई है जो हर वक्त धुआं उगलती रहती है। वह बताते हैं कि जब भी बारिश होती है, हानिकारक गैस और धुआं बस्ती में फैल जाता है, जिससे सांस लेना तक दूभर होता है। 37 साल के सदन झारखंड के गोपीनाथपुर पहाड़ी बस्ती में रहते हैं, जो सेवानिवृत्त कोयला खान कर्मचारियों के लिए भारत की कुछ पुनर्वास बस्तियों में से एक है।

बस्ती को 2010 में गोपीनाथपुर की खुली कोयला खदान के एक हिस्से को भरकर बसाया गया था। शेष खदान 2020 तक गड्ढों में पानी भरने तक चालू थी। पासवान कहते हैं, “रिफिलिंग ठीक से नहीं की गई थी और खनन कंपनी ईस्टर्न कोलफील्ड्स ने हमें यह सूचित करने की भी जहमत नहीं उठाई कि जमीन के नीचे धधकती आग है जो कोयले के भंडार पर पोषित होती है और इसे बुझाया नहीं जा सकता है।” जब डाउन टू अर्थ ने मई 2022 की शुरुआत में बस्ती का दौरा किया, तब भी सभी 60 घरों की दीवारों और छतों में दरारें थीं। निवासियों का कहना है कि क्षेत्र में दरारें एक स्थायी समस्या है क्योंकि खराब रिफिलिंग के कारण हर बार बारिश होने पर कुछ जमीन धंस जाती है।

उन्होंने कहा कि आग कितनी बड़ी है, यह किसी को नहीं पता, लेकिन धुआं हर साल बढ़ता जा रहा है। वह बताते हैं कि कंपनी ने हाल ही में हमें कॉलोनी खाली करने के लिए बेदखली नोटिस भेजना शुरू कर दिया है, लेकिन हमारे पास जाने के लिए कोई अन्य जगह नहीं है। सदन भारत की कोयला राजधानी धनबाद में एक निजी बैंक में काम करने के लिए हर दिन 60 किमी की यात्रा करते हैं। उधर, खनन कंपनी मानती है कि बस्ती सुरक्षित है और उसने बेदखली नोटिस जारी नहीं किए हैं। ईस्टर्न कोलफील्ड्स के निदेशक (तकनीकी) जेपी गुप्ता कहते हैं, “मैंने बस्ती का दौरा किया है और वहां भूमिगत आग जैसी कोई समस्या नहीं है।”

बस्ती में बुनियादी नागरिक सुविधाओं का भी अभाव है। निवासियों का कहना है कि वे नदी से पानी लाने के लिए हर दिन 1.5 किमी से अधिक की यात्रा करते हैं क्योंकि उनके पास पाइप से पानी के कनेक्शन नहीं है। जमीन के नीचे आग धधकने के चलते वे भूजल तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। बिजली भी दिन में सिर्फ 8-10 घंटे ही मिलती है। इन तमाम कमियों के बाजवूद गोपीनाथपुर पहाड़ी बस्ती के निवासी कंपनी को जवाबदेह बनाने के लिए ज्यादा कुछ नहीं कर सकते क्योंकि कोयला खदान बंद करने के नियम उस पर आश्रित लोगों के पुनर्वास के बारे में चुप हैं।

कमजोर ढांचा

भारत सरकार ने 2009 में सभी कोयला कंपनियों के लिए खदानों को बंद करने की योजना के साथ खनन और व्यवहार्यता रिपोर्ट बनाना अनिवार्य किया था। इस योजना को केंद्रीय कोयला मंत्रालय की स्थायी समिति या सरकारी स्वामित्व वाली कंपनी के बोर्ड द्वारा अनुमोदित किया जाना था।

2013 में संशोधित दिशानिर्देशों में खदान बंद करने के लिए तकनीकी (भूमि की रिफिलिंग, उपकरणों की हैंडलिंग) और पर्यावरण (वायु और जल प्रदूषण के स्तर, वृक्षारोपण) पहलुओं पर ध्यान केंद्रित किया गया। साथ ही लोगों पर खदान बंद होने के प्रभाव को कम करने के तरीके पर ध्यान दिया गया। दिशानिर्देशों के अनुच्छेद 3.10 जो खदान के बंद होने के आर्थिक परिणामों से संबंधित है, का कहना है कि कंपनी को यह जांचना चाहिए कि खदान में काम करने वाले लोग खदान बंद होने के बाद अपने पारिवारिक व्यवसायों में लौट सकते हैं या नहीं। इसमें प्रभावित लोगों के लिए मुआवजे और दूसरी खान में रोजगार देने की बात भी कही गई है।

अंतरराष्ट्रीय थिंक टैंक इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकॉनोमिक्स एंड फाइनैंशियल अनेलिसिस में ऊर्जा विश्लेषक स्वाति डिसूजा का कहना है, “एक मजबूत नीति से क्षेत्र में भविष्य की आर्थिक गतिविधियों को आकार देने के तरीकों पर भी विचार करना चाहिए। इसमें सामाजिक न्याय, आर्थिक विविधीकरण और उन सभी लोगों के लिए मुआवजे के पहलुओं को शामिल किया जाना चाहिए जो अपनी आजीविका खो देंगे।”

धनबाद स्थित सामाजिक अधिकार कार्यकर्ता सुभाष मिश्रा कहते हैं, “दूसरी चुनौती यह है कि कंपनियां कोयला खदानों को भरे बिना उसे छोड़ना जारी रखती हैं, जो मौजूदा दिशानिर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन है।” एक बार खदान छोड़ दिए जाने के बाद आसपास के लोग अवैध खनन शुरू करते हैं और इसके परिणामस्वरूप अक्सर दुर्घटनाएं होती हैं क्योंकि भूमि गुफानुमा होती है। मिश्रा का कहना है कि कंपनियां केवल यह कहकर दिशानिर्देशों को लागू करने से पल्ला झाड़ लेती हैं कि खदानों को छोड़ा गया है, बंद नहीं किया गया है। कोल इंडिया के अधीन भारत कोकिंग कोल लिमिटेड के निदेशक (तकनीकी) संजय कुमार सिंह ने धनबाद में अपनी परित्यक्त खदानों पर कार्रवाई नहीं करने का यही कारण बताया। वह कहते हैं, “खदान बंद होने पर प्रोटोकॉल का पालन किया जाना चाहिए।

हमने केवल उन्हीं खदानों को छोड़ा है जो फिर से चालू हो सकती हैं। उन्हें इसलिए छोड़ दिया गया है क्योंकि हमारे पास तकनीकी बुनियादी ढांचा नहीं था।” कोल इंडिया और इसकी आठ सहायक कंपनियों के पास 284 बंद या परित्यक्त खानें हैं। 7 फरवरी, 2022 को संसद में केंद्रीय कोयला, खान और संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी के एक जवाब के अनुसार, सिंगरेनी कोलियरीज कंपनी के पास ऐसी और नौ खदानें हैं। मार्च 2021 में रांची स्थित सेंट्रल माइन प्लानिंग एंड डिजाइन इंस्टीट्यूट लिमिटेड द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, भारत ने दिशानिर्देशों को लागू किया और 2020 तक कोल इंडिया ने 111 बंद खानों के 201 वर्ग किमी पर पुनः दावा किया। रिपोर्ट में इन स्थलों से लोगों के पुनर्वास का उल्लेख नहीं किया गया है।



जागने में देरी

खदान पूर्णत: बंद करने की योजनाओं में पुनर्वास को शामिल करने के लिए केंद्रीय कोयला मंत्रालय ने नवंबर 2021 में विश्व बैंक के साथ खान बंद करने के ढांचे को विकसित करने के लिए आठ साल की परियोजना को केंद्रीय वित्त मंत्रालय से मंजूरी मांगी थी। भारत को 2070 तक शून्य उत्सर्जन के लिए चरणबद्ध तरीके से कोयले को उपयोग को कम करना है। इसमें कोयला सेक्टर पर निर्भर लोगों की अहम भूमिका होगी।

नई व्यवस्था में बंद खदानें स्थानीय समुदायों द्वारा आर्थिक गतिविधियों के लिए उपयोग की जा सकती हैं। कोयला मंत्रालय द्वारा प्रेस में दिए गए बयान के मुताबिक, यह राष्ट्रीय स्तर का समग्र और समावेशी खदान बंद करने का फ्रेमवर्क होगा। इसमें विरासत में मिली खदानें, हाल में बंद हुई खदानें और शीघ्र बंद होने वाली खदानें शामिल होंगी। कोल इंडिया के पूर्व अध्यक्ष एनसी झा कहते हैं, “मौजूदा दिशानिर्देश केवल पेड़ों को लगाने और खदान भरने की बात करते हैं, लेकिन भूमि को अपने मूल स्वरूप में बहाल करना जरूरी है।”

इसमें खनन के बाद भूमि को समतल करना शामिल है, जिसके लिए बहुत समय, संसाधन और पूंजी की आवश्यकता होती है। उनका कहना है कि जिन खानों में अपेक्षाकृत कम मात्रा में पत्थर हटाए गए हैं, उन्हें कृषि योग्य भी बनाया जा सकता है। मंत्रालय ने झारखंड के बोकारो और छत्तीसगढ़ के कोरिया में प्रारंभिक क्षेत्र सर्वेक्षण और पायलट परियोजनाओं के लिए दो जिलों की पहचान की है। इन जिलों में 38 खदानें हैं और उनमें से 18 क्रियाशील नहीं हैं।

चिंता का कारण

विडंबना यह है कि जब भारत पहली बार अपनी बंद खानों के आसपास के समुदायों के पुनर्वास का प्रयास कर रहा है, तभी वह कोयला उत्पादन को बढ़ाने के लिए उनमें खनन फिर से शुरू करने की संभावना भी तलाश रहा है। 6 मई 2022 को केंद्रीय कोयला, खान और रेलवे राज्य मंत्री रावसाहेब पाटिल दानवे ने खनन को फिर से शुरू करने के लिए कोल इंडिया की 20 बंद खानों को निजी कंपनियों को नीलाम करने की घोषणा की। उन्होंने इस कदम को सही ठहराते हुए कहा कि इससे थर्मल कोयले के आयात पर देश की निर्भरता कम हो जाएगी और इसे आत्मनिर्भर बनने में मदद मिलेगी। परित्यक्त खानों में निकालने योग्य कोयला भंडार लगभग 380 मिलियन टन है। केंद्रीय कोयला मंत्रालय के अनुसार, इसमें से 30-40 मिलियन टन कोयला आसानी से खानों से निकाला जा सकता है।

2021-22 का आर्थिक सर्वेक्षण 2030 तक 1.3-1.5 अरब टन कोयले की मांग का अनुमान लगाता है जो मौजूदा मांग से 63 प्रतिशत अधिक है। झारखंड में सामाजिक अधिकार कार्यकर्ता जेवियर डायस कहते हैं, “जब खनन की बात आती है, तो भारत हमेशा दो सुरों में बोलता है। दुर्भाग्य से इस तरह के विरोधाभास दुनियाभर में सामान्य होते जा रहे हैं।”

राज्य के एक अन्य सामाजिक कार्यकर्ता पुनीत बिंज का कहना है कि निजी खिलाड़ियों को आमंत्रित करना लाभ कमाने और लोगों को उनकी भूमि से दूर रखने का एक नया तरीका है। उन्होंने कहा कि दिशानिर्देशों में साफ है कि परित्यक्त खानों को राज्य सरकार को वापस कर दिया जाना चाहिए और बदहाली में जी रहे मूल निवासियों के पुनर्वास के लिए इस्तेमाल होनी चाहिए। वह आगे बताते हैं, “अगर निजी कंपनियों के पास परित्यक्त खानों में खनन की तकनीक है, तो कोल इंडिया और इसकी सहायक कंपनियों को उसे प्राप्त करने से कौन रोक रहा है?”

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