
परमाणु ऊर्जा न तो सुरक्षित है, न सतत और न ही आर्थिक रूप से व्यावहारिक। इसके पर्यावरणीय, सामाजिक और मानवीय नुकसान इसके कथित लाभों से कहीं अधिक हैं। एनटीपीसी (नेशनल थर्मल पावर कॉरपोरेशन) और एनपीसीआईएल (न्यूक्लियर पावर कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड) के बीच 80,000 करोड़ रुपये के निवेश का समझौता वास्तव में परमाणु ऊर्जा को बढ़ावा देने की एक खतरनाक नीति है, जो जनसुरक्षा और पर्यावरणीय स्थिरता की पूरी तरह अनदेखी करती है।
यह बात नेशनल अलायंस ऑफ एंटी-न्यूक्लियर मूवमेंट्स और चुटका परमाणु विरोधी संघर्ष समिति के अध्यक्ष दादुलाल कुंडापे ने कही। उन्होंने यह वक्तव्य जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम) के हैदराबाद में हुए राष्ट्रीय अधिवेशन के दौरान दिया। यह अधिवेशन 1 से 4 मार्च तक आयोजित किया गया।
अधिवेशन में मौजूद बरगी बांध विस्थापित संघ के अध्यक्ष मुन्ना वर्मन ने कहा कि सरकार चुटका (मंडला, मध्य प्रदेश) क्षेत्र में 2009 से प्रस्तावित परमाणु परियोजना का विरोध कर रहे आदिवासी समुदाय की अनदेखी कर रही है। अब वहां जबरन भूमि अधिग्रहण किया गया है, जबकि अब तक उचित मुआवजा भी नहीं दिया गया है। ऐसे में नीमच, देवास, सिवनी और शिवपुरी जिलों में प्रस्तावित परमाणु संयंत्र स्थानीय समुदायों के विस्थापन, विकिरण के खतरे और दीर्घकालिक पारिस्थितिकीय विनाश का कारण बन सकते हैं।
वर्मन का कहना था कि परमाणु संयंत्रों के लिए आदिवासियों, किसानों और मछुआरों को उनकी भूमि से बेदखल किया जाना उनके अधिकारों का उल्लंघन है, जिससे उनकी आजीविका खतरे में पड़ रही है। उन्होंने कहा कि सरकार परमाणु ऊर्जा को स्वच्छ ऊर्जा के रूप में प्रस्तुत कर रही है, लेकिन यह विकिरणीय कचरा, अत्यधिक लागत और विनाशकारी दुर्घटनाओं के खतरे के साथ आती है। वैश्विक अनुभव यह साबित करता है कि सौर, पवन और छोटे विकेंद्रीकृत जलविद्युत ऊर्जा स्रोत अधिक सुरक्षित और सतत समाधान हैं।
कुंडापे ने कहा कि हाल ही में प्रस्तुत 2025-26 के केंद्रीय बजट में भारत सरकार ने "विकसित भारत" के लक्ष्य के तहत परमाणु ऊर्जा मिशन की घोषणा की है। इसके तहत, वर्ष 2033 तक एक स्वदेशी लघु मॉड्यूलर रिएक्टर विकसित करने के लिए 20,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है। बजट में वर्तमान 8 गीगावाट की परमाणु ऊर्जा क्षमता को बढ़ाकर 2047 तक 100 गीगावाट करने का लक्ष्य भी घोषित किया गया है।
हालांकि, इस मिशन के तहत परमाणु ऊर्जा अधिनियम और परमाणु क्षति के लिए नागरिक देयता अधिनियम में संशोधन करने का भी प्रस्ताव है, ताकि परमाणु ऊर्जा क्षेत्र में निजी निवेश को आकर्षित किया जा सके और किसी भी दुर्घटना की स्थिति में परमाणु संयंत्र संचालकों की देनदारी को कम किया जा सके। ये सभी कदम आम जनता के हितों के खिलाफ हैं।
एनएपीएम ने एक प्रस्ताव पारित करते हुए कहा कि भारत को अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए परमाणु ऊर्जा की आवश्यकता होने का तर्क पहले भी गलत था और अब और भी अधिक गलत है। भारतीय परमाणु प्रतिष्ठान के पहले किए गए दावों के अनुसार, भारत को वर्ष 2000 तक 20,000 मेगावाट और 2030 तक 63,000 मेगावाट परमाणु ऊर्जा क्षमता प्राप्त करनी थी। लेकिन 2025 की शुरुआत में भारत की कुल स्थापित बिजली उत्पादन क्षमता लगभग 440 गीगावाट है, जिसमें परमाणु ऊर्जा का योगदान केवल 8.2 गीगावाट यानी कुल क्षमता का महज 1.9 प्रतिशत है। यह क्षमता पिछले 54 वर्षों में प्राप्त की गई है।
अधिवेशन के अंत में परमाणु ऊर्जा को एक ऊर्जा समाधान के रूप में अस्वीकार करने का प्रस्ताव पारित किया गया। प्रस्ताव में कहा गया कि नए परमाणु ऊर्जा संयंत्रों के निर्माण पर तत्काल रोक लगाई जाए और सरकार को विकेंद्रीकृत, नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों में निवेश को प्राथमिकता देनी चाहिए, ताकि ऊर्जा नीति पर्यावरणीय न्याय और स्थानीय समुदायों की संप्रभुता के सिद्धांतों के अनुरूप हो।