
भले ही भारत जोर-शोर से "जस्ट ट्रांजिशन" के जरिए जीवाश्म ईंधन यानी कोयला पर आधारित ऊर्जा से गैर जीवाश्म ईंधन की तरफ बढ़ रहा हो। कोयला आने वाले समय में भी हमारे ऊर्जा तंत्र का अहम हिस्सा बना रहेगा। लेकिन इससे उपजी पर्यावरणीय और मानवीय समस्याओं का क्या होगा?
मंथन अध्ययन केंद्र के संस्थापक-समन्वयक और शोधकर्ता श्रीपाद धर्माधिकारी इस मामले में एक रिपोर्ट जारी करते हुए कहते हैं,"हमारा मानना है कि सभी कोल क्षेत्रों में सिर्फ पर्यावरणीय प्रभावों का आकलन ही नहीं बल्कि उन क्षेत्रों में रह रहे लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों का भी आकलन होना चाहिए।"
26 अगस्त, 2025 को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में विकल्प सोशल ऑर्गेनाइजेशन की ओर से जारी रिपोर्ट "रेग्युलेटिंग कोल ऑपरेशंस : एनवॉयरमेंटल एंड सोशल इंपैक्ट्स थ्रू द लेंस ऑफ द नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल" रिपोर्ट जारी करते हुए वह आगे कहते हैं "यह बहुत जरूरी है कि कोल क्षेत्रों में खनन के बाद उन स्थलों का सही तरीके से प्रदूषण-निवारण (रेमेडिएशन) और पर्यावरणीय बहाली यानी पुनरुद्धार हो।"
यह रिपोर्ट नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में कोल क्षेत्रों की विविध समस्याओं को लेकर दाखिल अलग-अलग मामलों में दाखिल कुल आठ मामलों का विश्लेषण करती है, जिनमें कोयला परिवहन, भंडारण, फ्लाई ऐश प्रबंधन, अपशिष्ट जल निकासी जैसे मुद्दे शामिल थे। इस रिपोर्ट के मुख्य लेखक श्रीपाद धर्माधिकारी और कुश तनवनी हैं।
एक राउंडटेबल डिस्कशन में जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2022-23 में कोयला और लिग्नाइट-आधारित क्षमता देश की कुल बिजली उत्पादन का 73 फीसदी हिस्सा थी और 2031-32 तक इसके लगभग 50 फीसदी बने रहने की उम्मीद है। इसका अर्थ है कि अगले कई दशकों तक कोयला-आधारित बिजली उत्पादन भारत में प्रमुख ऊर्जा स्रोत बना रहेगा। इस दौरान पर्यावरणीय प्रभावों को लेकर गंभीर चुनौतियां बनी रहेंगी क्योंकि थर्मल पावर प्लांट वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, भूमि क्षरण और शोर प्रदूषण जैसे प्रत्यक्ष प्रभावों के साथ-साथ कोयला खनन से अप्रत्यक्ष प्रभाव भी डालते हैं, जिनमें जल, भूमि, वन और जैविक आवास का क्षरण तथा सामाजिक विस्थापन शामिल है।
इन गंभीर प्रभावों को देखते हुए यह आवश्यक है कि कोयला-आधारित बिजली उत्पादन ऐसे तरीके से हो जिससे पर्यावरण और प्रभावित समुदायों के स्वास्थ्य व आजीविका पर नकारात्मक असर न पड़े। हालांकि अब तक के अनुभव बताते हैं कि यह एक कठिन कार्य है। मौजूदा कानूनी ढांचा इन प्रभावों को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया है, लेकिन इसके क्रियान्वयन में प्रभावशीलता की कमी है और अक्सर प्रभावित समुदायों की आवाज इसमें शामिल नहीं होती।
रिपोर्ट के मुताबिक एनजीटी में दाखिल मामले यह स्पष्ट तौर पर बताते हैं कि कोयले के भंडारण, परिवहन और अनियंत्रित डंपिंग से गंभीर धूल प्रदूषण, जलस्रोतों का प्रदूषण और सुरक्षा खतरे सामने आए। कोयला लदे ट्रकों के कारण स्थानीय सड़कों की स्थिति खराब हुई और धूल के कारण पीएम 10 का स्तर स्वीकार्य सीमा से पांच गुना अधिक (460 माइक्रोग्राम/घन मीटर) पाया गया
फ्लाई ऐश के अनुचित निस्तारण से जलस्रोतों और कृषि भूमि में विषाक्तता, मृदा उर्वरता की कमी और जैव विविधता का नुकसान हुआ। अश डाइक टूटने की घटनाओं ने कृषि भूमि और मत्स्य संसाधनों को नष्ट किया। एनोर में फ्लाई ऐश ने नदी, नहर और बाढ़भूमि को ढक दिया, जिससे जलभराव और बाढ़ का खतरा बढ़ा।
इसके अलावा सिलिका युक्त फ्लाई ऐश से सिलिकोसिस, कैंसर और तंत्रिका संबंधी रोगों का खतरा बढ़ा। एनोर क्षेत्र में कैडमियम और सीसे के कारण बच्चों और वयस्कों में उच्च कैंसर जोखिम दर्ज हुआ। मछलियों में भारी धातु पाए गए, जिससे उपभोक्ताओं पर स्वास्थ्य प्रभाव पड़ा।
पारंपरिक आजीविकाएं भी प्रभावित हुईं। मसलन कृषि, मत्स्य पालन, पशुपालन सबसे ज्यादा प्रभावित हुईं। प्रभावित लोगों पर स्वास्थ्य खर्च और आय हानि का दोहरा बोझ पड़ा ।
एनजीटी में दाखिल इन मामलों में नियाम विफलताएं भी सामने आईं। कई मामलों में प्रदूषण नियंत्रण और नियमों के पालन में गंभीर कमी रही। उदाहरण के लिए, एनोर के थर्मल प्लांट में उत्सर्जन डेटा में हेरफेर हुआ और लगातार अनुमेय सीमा से अधिक प्रदूषण पाया गया। प्रभावित समुदायों की भागीदारी लगभग नगण्य रही, जिससे जवाबदेही का अभाव स्पष्ट हुआ ।
रिपोर्ट में पाया गया कि एनजीटी ने प्रदूषण फैलाने वालों पर क्षतिपूर्ति लगाई हालांकि, इसकी गणना ठीक नहीं रही। मिसाल के तौर पर मेजिया केस में संयुक्त समिति ने 16.1 करोड़ की गणना की, जिसे आठ गुना बढ़ाकर 128.56 करोड़ प्रस्तावित किया गया लेकिन एनजीटी ने इसे अस्वीकार कर 20 करोड़ का अंतरिम मुआवजा तय किया, जिसमें से 7.92 करोड़ किसानों को और 12.08 करोड़ बहाली कार्यों के लिए दिए गए ।
इसी तरह चंद्रपुर केस में 5 करोड़ का अंतरिम मुआवजा और हर महीने 1 करोड़ का अतिरिक्त जुर्माना लगाया गया। हालांकि, कई मामलों में मुआवजा उच्च न्यायालयों में चुनौती के कारण लंबित है। कुछ मामलों में प्रभावित समुदायों तक रकम नहीं पहुंची। एनजीटी ने कई बार यह सिद्धांत दोहराया कि क्षतिपूर्ति पूर्ण दायित्व (एबसलूट लाइबलिटी) पर आधारित होनी चाहिए।
वहीं, रिपोर्ट यह बताती है कि कई मामलों में एनजीटी ने पर्यावरणीय बहाली और सफाई को अनिवार्य माना है। जैसे सोनभद्र केस में कोयला डंपिंग से हुए नुकसान को ठीक करने के लिए संयुक्त समिति को योजना बनाने का निर्देश दिया गया। मेजिया केस में संयुक्त समिति को बहाली लागत तय करने और प्रभावित पक्षों से परामर्श कर योजना बनाने को कहा गया। 12.08 करोड़ रुपए पुनर्स्थापन के लिए निर्धारित किए गए।
एनोर केस में फ्लाई ऐश हटाने और मैंग्रोव बहाली के लिए विस्तृत योजना की मांग की गई। एनजीटी ने बार-बार यह स्पष्ट किया कि जब तक प्रदूषण की सफाई और पर्यावरण बहाली नहीं होगी, तब तक समस्या बनी रहेगी। परंतु कई मामलों में समयसीमा तय न होने और एजेंसियों की कमजोर निगरानी से कार्रवाई में देरी हुई।
न्यायालय देर तक सुनते रहें मामला
रिपोर्ट ने अपनी सिफारिशों में कहा है कि एनजीटी के आदेशों के बाद कोयला परिचालन क्षेत्रों में स्थिति की नियमित निगरानी की आवश्यकता है, जिसका उद्देश्य वायु और जल की गुणवत्ता, मिट्टी के स्वास्थ्य, जैव विविधता और प्रभावित समुदायों के कल्याण में होने वाले परिवर्तनों को ट्रैक करना होना चाहिए। यह आकलन करने के लिए आवश्यक है कि न्यायाधिकरण के आदेशों को कितनी प्रभावी ढंग से लागू किया गया है साथ ही यह समझने के लिए कि दीर्घकालिक पर्यावरणीय समाधान सुनिश्चित करने में नियामक प्राधिकरणों की क्षमता और जवाबदेही कैसी है।
इसके अलावा रिपोर्ट में यह मांग की गई है कि ऐसी निगरानी के लिए एक उपयुक्त प्रणाली स्थापित करने की आवश्यकता है। सुझाव के तौर पर कहा गया है कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के साथ एक तंत्र विकसित किया जाए जिसमें उनकी क्षमताओं को बढ़ाया जाए और साथ ही सीधे प्रभावित समुदायों, नागरिक समाज संगठनों और स्वतंत्र विशेषज्ञों के प्रतिनिधियों को शामिल किया जाए। इसी तरह की प्रणालियों की आवश्यकता स्वीकृति के बाद की निगरानी, पर्यावरणीय बहाली प्रक्रिया और स्वास्थ्य प्रभाव आकलन जैसी अन्य दीर्घकालिक प्रक्रियाओं के लिए भी है।
रिपोर्ट की सिफारिश में कहा गया है कि खासतौर से प्रभावित समुदायों को बहाली समितियों में शामिल किया जाना चाहिए ताकि पारंपरिक ज्ञान को शामिल किया जा सके और उनके जीवन और आजीविका पर होने वाले प्रतिकूल प्रभावों को प्रभावी ढंग से संबोधित किया जा सके। इसके अलावा नागरिक समाज के प्रतिनिधियों और स्वतंत्र विशेषज्ञों को भी इस तंत्र का हिस्सा होना चाहिए।
एक बहुत ही रोचक सिफारिश इस रिपोर्ट में की गई है, जिसमें कहा गया है कि एक अन्य संभावना यह है कि न्यायाधिकरण मामलों का निपटान न करे, बल्कि मामले को लंबित रखे ताकि नियामक एजेंसियां अनुवर्ती कार्रवाई पर नियमित रिपोर्ट प्रस्तुत कर सकें। इसमें यह जोखिम है कि न्यायाधिकरण उन कर्तव्यों से अधिक बोझिल हो जाएगा जिन्हें संभालने के लिए इसे मूल रूप से नहीं बनाया गया था। लेकिन यह एक ऐसा विकल्प हो सकता है जिसका चयनात्मक रूप से उपयोग किया जा सकता है।
सिफारिश में कहा गया है कि जहां भी कोयला परिचालन किए गए हैं या चल रहे हैं, वहां पुनर्स्थापन, सफाई और बहाली को सक्रिय रूप से अपनाया जाना चाहिए। यह पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय और नियामक एजेंसियों के लिए एक प्रमुख मिशन होना चाहिए।
इसी प्रकार, सभी ऐसे क्षेत्रों में जहां बड़े पैमाने पर कोयला परिचालन हैं, स्वास्थ्य प्रभाव आकलन भी किया जाना चाहिए।
साथ ही कोयला परिचालन वाले क्षेत्रों में पर्यावरणीय स्थिति के साथ-साथ स्थानीय समुदायों की स्थिति जैसे स्वास्थ्य, सामाजिक, आर्थिक और आजीविका संबंधी प्रभावों के संदर्भ में जस्ट ट्रांजिशन की चर्चाओं और योजनाओं में एक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में लिया जाना चाहिए और यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इन मुद्दों को ठीक से संबोधित किया जाए।
रिपोर्ट इस बात पर भी जोर देती है िक दीर्घकालिक अध्ययन और डेटा संग्रह अनिवार्य हों ताकि मुआवजा और नीति-निर्माण ठोस आधार पर हो सके।