रूस-यूक्रेन युद्ध से उपजे ऊर्जा संकट से सबक लेने की जरूरत

वर्तमान ऊर्जा संकट हमें जीवाश्म ईंधन व्यवसाय की ओर वापस ले जा सकता है, जिसे वातावरण में उत्सर्जन और पृथ्वी पर जीवन को खतरे में डालने के लिए दोषी ठहराया जा रहा है
रूस-यूक्रेन युद्ध से उपजे ऊर्जा संकट से सबक लेने की जरूरत
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हम जानते हैं कि जलवायु परिवर्तन हमारी ऊर्जा की मांग का परिणाम है। जीवाश्म ईंधन, कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस के जलने से होने वाले उत्सर्जन की वजह से आज दुनिया विनाश के कगार पर खड़ी है।

इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की 2022 की रिपोर्ट दोहराती है कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव विनाशकारी होंगे।

असलियत यह है कि न केवल हमारी दुनिया बल्कि ऊर्जा बाजार भी उबाल पर है। रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने से पहले ही ईंधन की कीमतें आसमान छू चुकी हैं।
सवाल यह है कि क्या कीमतों में इस बढ़ोतरी से भविष्य में हरित, स्वच्छ ऊर्जा को अपनाने में तेजी आएगी? या सरकारें अपने वायदे भूलकर जीवाश्म ईंधन ऊर्जा प्रणाली में फिर से निवेश करेंगी, जो अब भी संभव है? दूसरे शब्दों में, क्या यह उथल-पुथल अतीत के ऊर्जा व्यवसाय को एक नया जीवन देगा?
यूरोप और विशेष रूप से जर्मनी इस पहेली के केंद्र में है। जर्मनी ने अक्षय ऊर्जा में निवेश तो किया है, लेकिन साथ ही अपनी बिजली की जरूरतों को पूरा करने के लिए प्राकृतिक गैस (कोयले की तुलना में स्वच्छ जीवाश्म ईंधन) का आयात भी जारी रखा है।
इस प्राकृतिक गैस का लगभग 40 प्रतिशत रूस से आता है। अब युद्ध ने इस आपूर्ति को खतरे में डाल दिया है।
जर्मनी ने पहले से निर्मित नॉर्ड स्ट्रीम 2 गैस पाइपलाइन का प्रमाणन रोक दिया है। यह पाइपलाइन बाल्टिक सागर के नीचे से होते हुए रूस से गैस की आपूर्ति करने वाली थी। यह जर्मनी एवं रूस के मौजूद गैस अनुबंधों में तनाव ला सकता है।
जर्मन चांसलर ओलाफ स्कोल्ज ने 7 मार्च को एक बयान जारी कर कहा कि उनका देश और यूरोप हीटिंग, गतिशीलता और बिजली के लिए ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने के लिए रूस पर निर्भर थे और इसलिए वे इतने कम समय में अपने संबंध नहीं तोड़ सकते।
लेकिन यह भी सच है कि यूक्रेन और अमेरिका का दबाव यूरोप पर बढ़ता जा रहा है।
उसी दिन, अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने कहा कि उनका देश रूस से तेल के आयात पर प्रतिबंध लगाने की संभावना पर यूरोपीय सहयोगियों के साथ समन्वय करना चाहता है।
इसने न केवल बाजारों को हिलाकर रख दिया (तेल की कीमतें 139 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल से अधिक हो गईं) बल्कि यह  युद्ध के बढ़ने पर आगे होने वाली चीजों का भी संकेत है।
तो अब, ऊर्जा सुरक्षा नीति के मूल में है। इसकी महत्ता जलवायु परिवर्तन से अधिक नहीं तो कम भी नहीं है। जर्मनी ने दो तरलीकृत प्राकृतिक गैस (एलएनजी) टर्मिनलों के निर्माण में निवेश करने का फैसला किया है, ताकि वह अपनी आपूर्ति में विविधता ला सके। इस प्रक्रिया में, यूरोप अमेरिकी प्राकृतिक गैस कंपनियों के लिए नया गंतव्य बन गया है।
वहीं दूसरी ओर, यूरोप अक्षय ऊर्जा-पवन और सौर में अपने निवेश को “स्वतंत्रता की ऊर्जा” के रूप में देख रहा है और इन स्वच्छ स्रोतों पर अतिरिक्त जोर दे रहा है।
सवाल यह है कि क्या तेल बाजारों में यह व्यवधान ऊर्जा संक्रमण को गति देगा या इसकी चाल और धीमी कर देगा?
यूके ने भी उत्सर्जन के लक्ष्यों में भारी कटौती करके स्वयं को जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में एक नेता के रूप में स्थापित किया है। लेकिन अब, विडंबना यह है कि जलवायु परिवर्तन पर इसकी समिति ने उत्तरी सागर में तेल और गैस निष्कर्षण का विस्तार करने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है।
यूके अपनी ऊर्जा आपूर्ति के लिए रूस पर उस हद तक निर्भर नहीं है, लेकिन इसकी घरेलू ऊर्जा की कीमतें अप्रैल में दोगुनी होने वाली हैं। यूके के ऊर्जा नियामक ने मूल्य सीमा को निरस्त कर  दिया है, जो तेल और गैस की कीमतों में वृद्धि के कारण घरेलू बिलों में वृद्धि का कारण बनेगा। इसलिए, यूके अपने लोगों की “ऊर्जा गरीबी” और इससे उपजने वाले गुस्से को लेकर चिंतित है।
इसलिए इस सरकार (जिसने यह प्रचार किया था कि विकासशील दुनिया को जलवायु परिवर्तन के कारण कोयले से दूर रहना चाहिए) ने अपने स्वयं के जीवाश्म ईंधन उद्योग में फिर से निवेश करने का निर्णय लिया है। क्या तब जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयास इस ऊर्जा युद्ध का शिकार हो जाएंगे?
तेल और गैस की कीमतों में वृद्धि देखी जा रही है, जिसका एक कारण कोविड-19 के दो साल हैं, जब पूरी दुनिया में विकास की दर में अप्रत्याशित गिरावट देखी गई। नतीजतन, ऊर्जा की मांग में कमी आई  जिससे निवेश के साथ-साथ नई ऊर्जा का उत्पादन भी घटा। लेकिन फिर जैसे ही लॉकडाउन हटा और दुनियाभर में व्यापार चालू हुआ, वैसे ही ऊर्जा की मांग बढ़ गई और इससे कीमतों में बढ़ोतरी हुई।

युद्ध ने इस आग में अभी और ईंधन डाला है। लेकिन साथ ही इसने एक सुविधाजनक आख्यान का निर्माण किया है कि ऊर्जा संक्रमण जो जलवायु परिवर्तन से निपटने की तात्कालिकता के कारण आवश्यक है, अनियोजित और अक्षम्य था और इसने बड़े पैमाने पर व्यवधान पैदा करने के अलावा कुछ खास नहीं किया है।
इसके बजाय, हमें ऐसे परिवर्तन के लिए योजना बनाने की जरूरत है जो व्यावहारिक और संतुलित हो। यही पारंपरिक ऊर्जा व्यवसाय के पुनरुत्थान का तर्क है।
लेकिन इसमें एक अंतर अवश्य है। इस तर्क को जीवाश्म ईंधन से उत्सर्जन को कम करने की आवश्यकता की नई भाषा के साथ जोड़ा गया है, जिसमें मीथेन कमी में निवेश करने की आवश्यकता, कार्बन कैप्चर प्रौद्योगिकियां ताकि रिफाइनरियों से उत्सर्जन को वापस जमीन में पंप किया जा सके और हाइड्रोजन को अगली पीढ़ी के ईंधन के रूप में इस्तेमाल करना भी शामिल है।
इस तरह, वर्तमान ऊर्जा संकट हमें जीवाश्म ईंधन व्यवसाय की ओर वापस ले जा सकता है, जिसे वर्षों से वातावरण में उत्सर्जन और पृथ्वी पर जीवन को खतरे में डालने के लिए दोषी ठहराया जा रहा है।
ऐसा लगता है कि हमने अभी तक जीवाश्म ईंधन जलाने के प्रभाव से सबक नहीं सीखा है। यह ऐसे समय में है जब हमारे पास समय और कार्बन स्पेस लगातार कम हो रहा है और हमें इसकी चिंता करनी ही होगी। 

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