जस्ट ट्रांजिशन: कोयले पर 'पलती' पीढ़ियों का कैसा होगा भविष्य?

कार्बन-आधारित अर्थव्यवस्था से हरित अर्थव्यवस्था में न्यायसंगत परिवर्तन (जस्ट ट्रांजिशन) का एक आशय भविष्य में कोयला खदानों के बंद होने के बाद लोगों को रोजगार के नए अवसरों से जोड़ना भी है
जस्ट ट्रांजिशन: कोयले पर 'पलती' पीढ़ियों का कैसा होगा भविष्य?
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कोयले के पहाड़ के नीचे कोयला चुन रही महिलाएं या कुसुंडा कोलियारी से कोयला लेकर निकल रहे बाइक सवार, कोयले के पत्थर जलाकर कोयला तैयार कर रही महिलाएं, धनबाद समेत कोयला क्षेत्र की सड़कों पर साइकिलों से मीलों पैदल कोयला ढोते लोग।

इनकी गिनती कोयले से जुडे संगठित या असंगठित क्षेत्र के कामगारों में नहीं होती। ये कोयला कंपनी में स्थायी या अस्थायी नौकरियां नहीं करते। ये कोयला चुनने वाले और उसे बेचकर आजीविका का संकट हल करने वाले लोग हैं। झारखंड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, ओडिशा समेत कोयले की उपलब्धता वाले राज्यों में रहने वाली, कोयले पर निर्भर, ये आबादी कितनी बड़ी है, इनकी संख्या लाखों में है या करोड़ों में, इसका कोई आकलन मौजूद नहीं है।

इस स्टोरी की पहली कड़ी में आप पढ़ चुके हैं: जस्ट ट्रांजिशन: क्या कोयला चुनने वाली सोनाली जाएगी स्कूल?

कोयला आधारित ऊर्जा से हरित ऊर्जा में बदलाव के लिए कार्य कर रही इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस (आईईईएफए) की विश्लेषक स्वाति डिसूजा कहती हैं, “कोयला चुनकर गुजारा करने वालों की सही संख्या का पता करने के लिए अभी तक कोई गणना नहीं की गई। हमें जिलावार ये सूचना जुटानी होगी कि वहां की आबादी कितनी है, कार्यबल में मौजूद लोग कितने हैं, उनमें से संगठित क्षेत्र और नौकरियों पर लगे लोगों की संख्या, तब हमें कोयला चुनकर गुजारा करने वाले लोगों की संख्या पता चलेगी। जस्ट ट्रांजिशन (न्यायसंगत बदलाव) के लिए ये जानना बेहद जरूरी होगा”।

नेट जीरो का लक्ष्य

ग्लासगो में हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु शिखर सम्मेलन (कॉप-26) में भारत ने वर्ष 2070 तक नेट जीरो यानी शून्य कार्बन उत्सर्जन हासिल करने की प्रतिबद्धता जताई है। इस लक्ष्य तक पहुंचने के महत्वपूर्ण पड़ाव के तौर पर वर्ष 2030 तक हरित ऊर्जा स्रोतों से देश की 50% बिजली की जरूरतों को पूरा करने का लक्ष्य रखा है। ताकि जलवायु परिवर्तन के चलते होने वाली आपदाओं से बचा जा सके।

कार्बन-आधारित अर्थव्यवस्था से हरित अर्थव्यवस्था में न्यायसंगत परिवर्तन (जस्ट ट्रांजिशन) का एक आशय भविष्य में कोयला खदानों के बंद होने इस क्षेत्र से जुड़े लाखों लोगों को रोजगार के नए अवसरों से जोड़ना भी है।

इस कोयले का बाजार कहां है?

अवैध तरीके से लाए गए कोयले का बाजार कितना बड़ा है? अगर यह कोयला नहीं होगा तो उस पर निर्भर लोगों और उद्यमों की स्थिति कैसी होगी?

झारखंड की राजधानी रांची से धनबाद के बीच कई छोटे-बडे रेस्त्रां और ढाबे दिखे, जहां एक कोने में कोयले का ढेर रखा था। धनबाद में राष्ट्रीय राजमार्ग पर बसे गांव भुरुंगिया की गांगी देवी ढाबा चलाकर अपने परिवार का पोषण करती हैं। वह बताती हैं “हम लोग कोयले पर ही खाना पकाते हैं। एक महीने में तकरीबन 2500 रुपए का कोयला इस्तेमाल होता है। अभी 400 रुपए में 25 किलो कोयला मिलता है। इसकी कीमत हर साल बढ़ती ही जा रही है। दो साल पहले यही कोयला 150-200 रुपए तक मिल जाता था”।

गांगी देवी सड़क से गुजरने वाले साइकिल सवार या स्थानीय ठेकेदार से कोयला खरीदती हैं। अगर कोयला नहीं होगा तो क्या होगा, इस पर वह कहती हैं, “हमारा ढाबा ही नहीं, यहां गांव-गांव में लोगों के घरों की रसोई भी कोयले से ही चलती है। हमारे पास गैस सिलेंडर है लेकिन कुछ जरूरी बनाना पड़ गया, तभी इसका इस्तेमाल करते हैं। एक सिलेंडर 1,100 रुपए का मिल रहा है। ढाबे के लिए तो महीने के 5-6 सिलेंडर भी कम पड़ जाएंगे।”

जलवायु परिवर्तन पर काम कर रही संस्था क्लाइमेट ट्रेंड्स के साथ बतौर क्लाइमेट और ऊर्जा सलाहकार जुडे मृणमॉय चट्टोराज कोविडकाल का उदाहरण देते हैं जब मजदूरी करने वाले लाखों लोगों के पलायन करने की दर्दनाक तस्वीरें सामने आई थीं। वह कहते हैं “अवैध रुप से निकाले गए कोयले की एक बहुत बड़ी समानांतर अर्थव्यवस्था है, जो कोयले की घरेलू मांग को पूरा करता है। कोयला निकालने, पैकेजिंग, ट्रांसपोर्ट और शहरभर के ढाबे, रेस्त्रां, छोटे उद्यमों समेत कई क्षेत्रों में ये पहुंचाया जा रहा है। ये दशकों से हो रहा है”।

वह आशंका जताते हैं कि कोयले पर निर्भर समुदाय को रोजगार के अवसरों से नहीं जोड़ा गया तो संभव है कि ये अवैध समानांतर अर्थव्यवस्था और बड़ी हो जाए।

धनबाद के निरसा क्षेत्र से पूर्व विधायक अरूप चटर्जी कहते हैं “कोयले से जुड़े कामगार और बाजार की एक पूरी श्रृंखला है जिसमें करोड़ों लोग काम कर रहे हैं। सिर्फ धनबाद की ही बात करें तो कम से कम 2 हजार पंजीकृत उद्यम और बिना पंजीकरण के चल रहे सैंकडों उद्यम प्रभावित होंगे। लाखों लोग इनमें काम कर रहे हैं। कोयला खनन बंद करने से बड़ी संख्या में कामगारों के सामने विस्थापन की स्थिति होगी”।

कहीं ऐसे तो नहीं होगा जस्ट ट्रांजिशन

धनबाद से करीब 7 किलोमीटर दूर पलानी पंचायत के बेलगडिया में जर्जर हालत में 4 मंजिला कॉलोनी खडी है। आसपास कचरे का ढेर और भारी दुर्गंध। आवाजाही का कोई साधन नहीं। पीने के पानी के लिए जद्दोजहद। झरिया पुनर्वास एवं विकास प्राधिकरण ने वर्ष 2009 में ये कॉलोनी बसाई थी। जिसमें झरिया के कोयला खदानों और ऩजदीकी रिहायशी इलाकों जमीन के नीचे सुलगती आग से प्रभावित परिवारों को विस्थापित किया गया। 

झरिया की दोबारी कोलियारी से विस्थापित होकर यहां बसे सुरेश भुइयां कहते हैं “ 2010 में बड़ी उम्मीद के साथ हम यहां आए थे। हमसे कहा गया था कि आपको रोजगार मिलेगा। रहने को अच्छी जगह मिलेगी, लेकिन धरातल पर ऐसा कुछ भी नहीं मिला। शुरुआत में महिलाओं को सिलाई सेंटर, मसाला बनाना, आटा चक्की चलाने जैसे प्रशिक्षण दिए गए। कुछ दिनों तक चलने के बाद वह सब बंद हो गया। यहां आने के बाद सब लोगों की बेरोजगारी बढ़ गई”।

यहां पुनर्वासित होकर आए सुरेश पलायन कर चेन्नई चले गए। वह कहते हैं “इस कॉलोनी में विस्थापित हुए बहुत से लोग पलायन कर गए। 8वीं के बाद बच्चे यहां पढाई छोड देते हैं क्योंकि स्कूल बहुत दूर है और आसपास जंगल है। कोलियारी के पास हमें कुछ न कुछ रोजगार मिल जाता था। यहां लाकर जनता को गुमराह किया गया है”।

जस्ट ट्रांजिशन टास्क फोर्स

झारखंड में देश के 40 प्रतिशत खनिज संपदा और 27.3 प्रतिशत कोयला भंडार का आकलन है। देश के सबसे बडे कोयला उत्पादक राज्य ने कोयले पर लोगों की निर्भरता के आकलन और सुझाव के लिए नवंबर-2022 में जस्ट ट्रांजिशन टास्क फोर्स का गठन किया। 

इसके चेयरमैन अजय कुमार रस्तोगी कहते हैं “ जस्ट ट्रांजिशन में कोयले पर निर्भर समुदाय भी शामिल होगा। कोल इंडिया के पास 84 हजार हेक्टेअर जमीन है। उनकी 100 से अधिक खदानें आज आर्थिक तौर पर अव्यवहारिक हैं। नए उद्यमों के लिए ऐसी खदानों की जमीन का इस्तेमाल कर रोजगार के नए अवसर बनेंगे। झारखंड में ग्रीन हाइड्रोजन के क्षेत्र में संभावना है। इसके लिए जरूरी इलेक्ट्रोलाइजर्स अभी देश में नहीं बनाए जाते। जो यहां तैयार किए जा सकते हैं। हाइड्रोजन की सप्लाई चेन में जॉब क्रिएट होंगी। हरित ऊर्जा क्षेत्र में बैटरी स्टोरेज और ग्रेविटी स्टोरेज के लिए हमारे पास कोयला खनन के बाद बची जमीनें हैं”। 

अजय कुमार रस्तोगी कहते हैं “हमें कोयले पर निर्भर समुदाय के लिए रोजगार के अवसर पहचानने, उन्हें सक्षम बनाने और कौशल विकास करने की जरूरत है। इसके लिए अलग-अलग विशेषज्ञता वाले साझेदारों के साथ मिलकर हम एक फ्रेमवर्क तैयार कर रहे हैं। जो अगले कुछ हफ्तों में जारी किया जाएगा। हम कोयले के पूरे इकोसिस्टम की बात कर रहे हैं, जिसमें सिर्फ नौकरी करने वाले लोग नहीं बल्कि असंगठित क्षेत्र और कोयला चुनने वाले भी शामिल हैं”।

 (This story was produced with support from Internews’s Earth Journalism Network)

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