2050 तक शून्य उत्सर्जन के लिए भारत को 55 गुणा बढ़ानी होगी अपनी अक्षय ऊर्जा क्षमता

यदि 2050 तक भारत अपने एमिशन को नेट जीरो करना चाहता है तो उसे अपनी 83 फीसदी बिजली रिन्यूएबल स्रोतों से प्राप्त करनी होगी
2050 तक शून्य उत्सर्जन के लिए भारत को 55 गुणा बढ़ानी होगी अपनी अक्षय ऊर्जा क्षमता
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2050 तक उत्सर्जन शून्य करने के लिए भारत को अपनी अक्षय ऊर्जा की क्षमता 55 गुणा बढ़ानी होगी। यह जानकारी काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (सीईईडब्लू) द्वारा जारी एक रिपोर्ट में सामने आई है। जिसका मतलब है कि यदि 2050 तक भारत अपने कार्बन उत्सर्जन को शून्य करना चाहता है तो उसे अपनी 83 फीसदी बिजली अक्षय स्रोतों से प्राप्त करनी होगी।

हालांकि इसमें जल विद्युत क्षमता को शामिल नहीं किया गया है। गौरतलब है कि 2019 में भारत की कुल ऊर्जा 160 टेरावाट प्रति घंटे में अक्षय ऊर्जा (हाइड्रोपावर के बिना) का योगदान केवल 10.1 फीसदी था। यदि देश के ऊर्जा उत्पादन में जीवाश्म ईंधन जैसे कोयला, तेल आदि के योगदान की बात करें तो 2015 में 73 फीसदी ऊर्जा इन्हीं स्रोतों से प्राप्त होती थी। जिसे 2050 तक घटाकर 5 फीसदी पर लाना होगा। इसी तरह भारत के तेल के क्षेत्र में बायोफ्यूल की हिस्सेदारी अभी बिलकुल न के बराबर है जिसे 2050 तक 98 फीसदी करना होगा।

इसी तरह भारत के औद्योगिक ऊर्जा उपयोग में अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी तीन गुना बढ़ानी होगी, जोकि 2018 में 20.3 फीसदी से बढाकर 2050 तक 70 फीसदी करनी होगी। इसी तरह 2019 में भारत कारों की बिक्री की बात करें तो उसमें इलेक्ट्रिक वाहनों की हिस्सेदारी केवल 0.1 फीसदी थी जिसे 2050 तक बढाकर 76 फीसदी पर लाना होगा।

सीईईडब्लू द्वारा जारी इस रिपोर्ट के अनुसार नेट जीरो एमिशन के लक्ष्य को हासिल करने के लिए या तो भारत को अपने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को पूरी तरह समाप्त करने के जरुरत है या तो उसे इस तरह संतुलित करना होगा कि उससे उत्सर्जन में वृद्धि न हो। यह अध्ययन नेट जीरो एमिशन के लिए किसी एक वर्ष को तय करने की जगह कई मार्गों को रेखांकित करता है जिससे उत्सर्जन में हो रही वृद्धि को नेट जीरो पर लाया जा सके। शोध के अनुसार भारत को अगले एक दशक के भीतर अपने उत्सर्जन के चरम पर पहुंचना होगा या दूसरे शब्दों में कहें तो उसे यह तय करना होगा की उस सीमा के बाद वो और ज्यादा उत्सर्जन नहीं करेगा, तभी वो 2050 तक नेट जीरो एमिशन पर पहुंच पाएगा। 

इस शोध के शोधकर्ता और सीईईडब्लू से जुड़े वैभव चतुर्वेदी के अनुसार यह विश्लेषण भारत के भविष्य से जुड़े निर्णयों के लिए नीति निर्माताओं  को विभिन्न विकल्प प्रदान करता है। भारत को एक साथ दोहरे बदलाव से गुजरना होगा, एक तरफ जहां क्षेत्रों में तेजी से विद्युतीकरण करना है वहीं दूसरी तरफ यदि उसे नेट जीरो पर पहुंचना है तो उसे बिजली उत्पादन में रिन्यूएबल एनर्जी को भी बढ़ावा देना होगा। नीति निर्माताओं को विनिर्माण के उन क्षेत्रों को भी पहचानना होगा जहां बिजली, जीवाश्म ईंधन की जगह ले सकती है। इसके साथ ही बिजली की कीमत को भी नियंत्रण में रखना महत्वपूर्ण होगा, जिससे वो प्रतिस्पर्धा में बनी रहे। इसके साथ ही आने वाले दो दशकों के भीतर प्राथमिक ऊर्जा से होने वाले उत्सर्जन के चरम पर पहुंचना होगा जिससे उत्सर्जन में  गिरावट के लक्ष्य को तय किया जा सके।

वैश्विक औसत से करीब ढाई गुना कम है भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन

यदि विश्व बैंक द्वारा जारी आंकड़ों पर गौर करें तो उसके अनुसार देश में प्रति व्यक्ति कार्बन डाइऑक्साइड एमिशन कई देशों यहां तक की वैश्विक औसत से भी काफी कम है। 2016 में भारत का प्रति व्यक्ति सीओ2 एमिशन 1.82 टन था जबकि इसके विपरीत वैश्विक औसत करीब 4.55 टन था। 

शोध के अनुसार भारत में नेट जीरो एमिशन का रास्ता अन्य विकसित देशों जैसे चीन, जापान, यूरोपीय संघ, यूनाइटेड किंगडम और अमेरिका से काफी अलग है। यदि इन देशों के उत्सर्जन की बात करें तो अपने चरम वर्ष में वो भारत के प्रति व्यक्ति उत्सर्जन से काफी ज्यादा है, यहां तक कि यदि भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन 2050 में चरम पर हो तब भी वो इन देशों की तुलना में काफी कम होगा। दूसरा बात यह कि यदि भारत के जीडीपी की वास्तविक विकास दर को देखें तो यह अन्य देशों की तुलना में काफी ज्यादा है। जिसका मतलब है कि भारत जल्द से जल्द अपने विकास दर को चरम पर पहुंचा सकता है जिससे वो उत्सर्जन में कमी कर सके।

इस शोध में एक दिलचस्प तथ्य यह भी सामने आया कि यदि भारत का उत्सर्जन 2030 में अपने चरम पर होता है और वो 2060 तक चीन की तरह अपने नेट जीरो एमिशन के लक्ष्य को हासिल करता है, तो उसका 2021 से 2100 के बीच कुल कार्बन उत्सर्जन 80 गीगा टन सीओ2 होगा। जबकि उसके विपरीत चीन का को उत्सर्जन 349 गीगाटन और अमेरिका का 104 गीगाटन सीओ2 होगा, जोकि भारत से काफी ज्यादा है।

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