कैसे हटाएं कोयले का कलंक
हम कोयले और उससे उत्पन्न बिजली का क्या करें? हमारे सामने जलवायु परिवर्तन और विकासशील दुनिया के घरों, कारखानों और दुकानों को बिजली देने के लिए ऊर्जा की तत्काल आवश्यकता की दोहरी चुनौतियों के रूप में यह एक यक्ष प्रश्न है।
दुनिया का कार्बन बजट तेजी से खत्म हो रहा है और ऐसे में तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखा जा सकना मुश्किल होगा। यह संपूर्ण विनाश के खिलाफ एक आखिरी सुरक्षा कवच है।
हमें ऐसे समाधानों की आवश्यकता है जो सभी के हित में काम कर सकें और करते रहें और यहीं पर कोयले का प्रश्न जटिल हो उठता है। यह कहना आसान है कि “इसे जमीन के अंदर ही रहने दें” और बिजली पैदा करने के लिए कोयले का उपयोग न करें क्योंकि यह निश्चित रूप से ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन के बड़े हिस्से के लिए जिम्मेदार है। लेकिन यह ऊर्जा असुरक्षित दुनिया में यह कैसे काम करेगा?
यह भी एक तथ्य है कि अभी उपदेश दे रहे बाकी देशों ने पीढ़ियों से बिजली के लिए कोयले का इस्तेमाल किया है। उनका उत्सर्जन अभी भी वायुमंडल में है। उदाहरण के लिए कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) का जीवन काल बहुत लंबा है।
इसके अलावा दुनिया के अधिकांश देश अब फिर से एक और जीवाश्म ईंधन (कुछ हद तक स्वच्छ प्राकृतिक गैस) पर स्विच करने वाले हैं और यह ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को और बढ़ावा देगा।
यूरोपीय संघ (ईयू) ने अमेरिका के साथ एक ऐतिहासिक व्यापार समझौता किया है जिसके तहत वह तीन वर्षों के लिए प्रति वर्ष 250 बिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य के ऊर्जा उत्पादों (प्राकृतिक गैस, कच्चा तेल और कोयला) का आयात करने का वादा करता है।
यह एक हवाई किला हो सकता है लेकिन इसका एक मतलब यह है कि यूरोपीय संघ जीवाश्म ईंधन का प्रयोग जारी रखने को सहमत हो गया है जो उसकी हरित ऊर्जा योजनाओं के सर्वथा विरुद्ध है। तो फिर भारत जैसे देश को क्या करना चाहिए जब हमारे सामने ऊर्जा की कमी और किफायती विकास की सख्त आवश्यकता की दोहरी चुनौती है?
क्या हमें कोयले पर निर्भरता छोड़ देनी चाहिए या फिर हमें पुराने और नए ऊर्जा स्रोतों के बीच संतुलन बनाने के तरीके ढूंढ़ने चाहिए और साथ ही स्वच्छ विकास की ओर भी अग्रसर रहना चाहिए?
मैंने हमेशा यही कहा है कि भारत सरकार की ऊर्जा परिवर्तन योजना जो कोयले को बदलने पर नहीं बल्कि उसे विस्थापित करने पर आधारित है, वही हमारे लिए आगे का रास्ता है। सच तो यह है कि 2030 तक हमारी ऊर्जा मांग दोगुनी हो जाएगी।
ऊर्जा आजीविका और स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है। यह वृद्धि स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों, मुख्यतः पवन और सौर ऊर्जा के रूप में होगी। इस तरह 2030 तक कोयला बिजली की 70-75 प्रतिशत मांग को पूरा करने के बजाय केवल 50 प्रतिशत की ही पूर्ति करेगा।
हमें इस पर चर्चा करनी चाहिए कि इसका असली अर्थ क्या है और कोयला आधारित बिजली क्षेत्र से ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए क्या किया जा सकता है।
मुझे पता है कि यह एक वर्जित विषय है क्योंकि यह मान लेना कहीं अधिक बेहतर है कि कोयला जल्द ही इतिहास के कूड़ेदान में डाल दिया जाएगा। लेकिन आइए वास्तविकता को समझें।
हमें हर कीमत पर और सभी क्षेत्रों में उत्सर्जन कम करने की आवश्यकता है। हमें स्थानीय वायु गुणवत्ता में सुधार के लिए ऐसा करने की आवश्यकता है। स्वास्थ्य चुनौतियों में योगदान देने वाले जहरीले प्रदूषकों को कम करना इसका एक पहलू है।
हमें वैश्विक जलवायु लाभों के लिए भी ऐसा करने की आवश्यकता है। अगर हम ऐसी रणनीतियां खोज सकें जो दोनों के लिए काम कर सकें तो यह दोनों ही पक्षों के लिए फायदेमंद होगा।
मेरे सहयोगियों ने अपनी रिपोर्ट “डीकार्बननाइजिंग द कोल बेस्ड थर्मल पावर सेक्टर इन इंडिया: ए रोडमैप” में यही किया है। हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि यदि देश ताप विद्युत संयंत्रों के डीकार्बननाइजिंग अथवा कार्बन-मुक्तीकरण की रणनीति अपनाता है तो इससे उत्सर्जन में उतनी ही कमी आएगी जितनी दो अन्य क्षेत्रों (लोहा-इस्पात और सीमेंट) से होने वाले उत्सर्जन में आएगी। ये क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें उत्सर्जन कम करना मुश्किल है।
रोडमैप में पहला कदम यह है कि मौजूदा संयंत्रों को अपनी श्रेणी के सर्वश्रेष्ठ संयंत्रों की मानक दक्षता के अनुरूप खरा उतरना होगा। उदाहरण के लिए सब क्रिटिकल तकनीक पर आधारित बिजली संयंत्रों (वर्तमान बेड़े का लगभग 85 प्रतिशत) के लिए कम से कम अपनी श्रेणी के शीर्ष प्रदर्शनकर्ताओं (जैसे टाटा पावर की 40 साल पुरानी ट्रॉम्बे इकाई या तेलंगाना राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड द्वारा के गुडेम न्यू या जेएसडब्ल्यू का तोरंगुल्ला संयंत्र) के उत्सर्जन कारक को पूरा करना आवश्यक होना चाहिए। इससे समग्र उत्सर्जन में उल्लेखनीय सुधार होगा।
दूसरा कदम कच्चे माल के रूप में कोयले को प्रतिस्थापित करना है। कई बिजली संयंत्र पहले से ही को-फायरिंग के लिए बायोमास का उपयोग कर रहे हैं। हमारा प्रस्ताव 20 प्रतिशत बायोमास पर स्विच करने को अनिवार्य बनाना है। इससे सीओ2 उत्सर्जन में बड़े पैमाने पर कमी आएगी। लेकिन इन सबके लिए एक योजना की आवश्यकता है। इसके लिए उत्सर्जन लक्ष्य और स्पष्ट दिशा-निर्देशों की आवश्यकता है।
उदाहरण के लिए वर्तमान में सरकार की योजना अल्ट्रा-सुपर क्रिटिकल कोयला संयंत्र बनाने की है जो निस्संदेह पुरानी तकनीक की तुलना में कहीं अधिक कुशल और स्वच्छ हैं। लेकिन सही नीतिगत प्रोत्साहनों के अभाव में इन नई पीढ़ी की 40 प्रतिशत इकाइयां 50 प्रतिशत प्लांट लोड फैक्टर (पीएलएफ) से कम पर काम करती हैं, जिसका अर्थ है कि उनका उत्सर्जन कमजोर तकनीक वाले संयंत्रों की तुलना में अधिक है।
मूल समस्या यह है कि वर्तमान मेरिट ऑर्डर डिस्पैच प्रणाली (जो बिजली की बिक्री का निर्धारण करती है) पूरी तरह से उत्पादन लागत पर आधारित है। पुराने बिजली संयंत्रों से बिजली का उत्पादन करना सस्ता है क्योंकि उनकी पूंजीगत लागत कम हो गई है। यही वह घातक दोष है जिसके फलस्वरूप अस्वच्छ कोयला ऊर्जा क्षेत्र पर शासन करता आया है। इसे तत्काल हटाया जाना चाहिए। और यह संभव है।