कल यानी 18 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोयले के वाणिज्यिक उपयोग के लिए 41 कोल ब्लॉक्स की नीलामी प्रक्रिया की औपचारिक शुरुआत की है। यह कोयला नीलामी का इस सरकार द्वारा किया गया सबसे बड़ा प्रयास माना गया जो 6 सालों के कार्यकाल में 11वीं बार आयोजित हुआ। कल केवल निविदाएं ही आमंत्रित की जा सकी और इस बात से पर्दा उठाया जा सका कि वो 41 कोल ब्लॉक्स कौन से हैं। पांच राज्यों ओड़ीशा (9), झारखंड (9), मध्य प्रदेश (11), महाराष्ट्र (3) और छत्तीसगढ़ के कुल 9 कोल ब्लॉक्स को इनमें शामिल किया गया है।
नीलामी प्रक्रिया की औपचारिक शुरूआत में प्रधानमंत्री ने जिस गर्मजोशी से इस अपनी चिर-परिचित शैली में इस महान परिघटना को कोयले को दशकों के ‘लॉकडाउन से मुक्त’ करने की प्रक्रिया बताया। अपने भाषण के समापन पर ‘बात कोयले की लेकिन सपने हीरे के’ देखने की बात की। इससे यह पुन: स्थापित हुआ कि देश के प्रधामन्त्री के लिए हर शब्द महज ‘कैच लाइन’ या ‘पंच लाइन’ से ज्यादा नहीं है।
संभव है कि ‘लॉकडाउन’ शब्द का महत्व उनके लिए इतना ही हो कि पहले कोयला इस कदर ‘आवारा’ नहीं था, बल्कि उसको केवल और केवल देशहित के लिए ही इस्तेमाल किया जा सकता था। इसे मुक्त व्यापार के लिए खोला नहीं जा सकता था। और जैसा सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि इसका दोहन केवल देश की ऊर्जा जरूरतों के लिए ही किया जा सकता था। 1975 में कोयले के राष्ट्रीयकरण के पीछे जो मंशाएँ थीं वो भी यही थीं कि कोयले का इस्तेमाल देश की जरूरतों के लिए हो।
अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने ‘कोयले पर चली आ रहीं इन नियंत्रित और वास्तव में ‘आत्मनिर्भर भारत’ के लिए प्रतिबद्ध नीतियों को पूरी अहमन्यता के साथ ‘लॉकडाउन’ की संज्ञा से नवाजा। दिलचस्प यह है कि उनके भाषण में आत्मनिर्भरता एक ‘टेक’ की तरह बना रहा। अब इन दोनों बातों में किसी प्रकार की कोई तारतम्यता आप तलाशते रहिए कि जब तक कोयला केवल देश की ऊर्जा जरूरतों के लिए राष्ट्रीय नियंत्रण में रखा गया वो क्या देश की आत्मनिर्भरता के खिलाफ था? या अगर वो (कोयला) दशकों लॉक डाउन में रहा तो क्या यह भी पूछा जाना चाहिए कि ‘देश के कोयले को भी ठीक वैसी ही तकलीफें दरपेश आयीं जो देश के आम नागरिकों को लॉक डाउन के दौरान आयीं? बहरहाल।
‘आपदा को अवसर’ और नागरिकों की ‘तकलीफ़ों को लतीफों’ में बदलने में माहिर देश के प्रधानमंत्री शायद नहीं जानते कि कोयला एक निर्जीव पदार्थ है। आपके देश के नागरिक सजीव प्राणी हैं जिन्हें भूख- प्यास लगती है, जो मेहनत करके अपने पेट भरते हैं और काम न होने की सूरत में सड़कों पर दम तोड़ देते हैं। माफ़ कीजिये प्रधानमंत्री जी ये तुलना और साम्य बहुत भद्दा और अश्लील था।
इस नीलामी प्रक्रिया से कुछ लक्ष्य हासिल होने के अनुमान लगाए गये हैं जिनमें –
प्रधानमंत्री जी के भाषण में अगर आप तकनीकी या शुद्ध अकादमिक जानकारी पाना चाहते हैं तो भी आपको उनके इस वाग्जाल का उत्खनन करना पड़ेगा। कब तथ्य (?) है, कब अटकल है, कब कहावत है और कब महज़ कहने के लिए कह दिया गया कोई वाक्य है।
इस प्रक्रिया को लेकर जो वास्तविक चिंताएं हैं, उनका रत्ती भर असर इनके भाषण में दिखलाई नहीं पड़ा। इस प्रक्रिया से पर्यावरण का विकास कैसे होगा? आदिवासियों व अन्य परंपरगत निवासियों की आर्थिक तरक्की कैसे होगी? इसके लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं बताई गयी।
तमाम मौजूदा सांवैधानिक संस्थाओं को किनारे लगाकर कोई देश कैसे आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ता है यह भी स्पष्ट नहीं है। अगर होता तो एक समय तक जिस हसदेव अरण्य के सघन और जैव विविधता व वन्य जीवों से भरपूर जंगल को ‘नो-गो एरिया’ घोषित किया गया था उसके 3 कोल ब्लॉक्स इस नीलामी में शामिल न किए जाते। संवैधानिक संस्थाओं के प्रति भी सम्मान रखा जाता तो भी पाँचवीं अनुसूची के इस क्षेत्र की 20 ग्रामसभाएँ 2015 से केंद्र सरकार को कह रहीं हैं कि इस जंगल में कोयला खनन की इजाजत नहीं देना चाहिए। हाल ही में 17 जून को भी ग्राम सभाओं ने इसी मंशा से प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी।
हमें याद रखना चाहिए कि राहत पैकेज की घोषणा के दौरान प्रधानमंत्री ने आर्थिक सुधार 2.0 की नींव रखते हुए लैंड, लॉज़, लेबर और लिक्विडिटी (ज़मीन, कानून, श्रम और मुद्रा प्रवाह) को बढ़ावा देने की बात की थी और यह सब ‘आत्म-निर्भर भारत’ के लिए किया जाएगा। इस शंका को इस बात से बल मिलता है कि जिसे खदान की लीज़ मिलेगी उसपर कोई दबाव नहीं होगा कि उत्पादन कब शुरू होगा, कितना होगा और इसे लेकर कोई औपचारिक बंदिश नहीं है। जिसका एक मतलब यह निकलता ही है इस नीलामी के बहाने कंपनियों को कोयले खदान के बहाने जंगल, ज़मीन, और अन्य प्रकृतिक संसाधनों की मालिकी दी जा रही है।
हालांकि इस नीलामी प्रक्रिया को लेकर बाज़ार का रुख अपेषित ढंग से बहुत उत्साहजनक नहीं रहा। जिसकी मुख्य वजह वैश्विक स्तर पर कोयले कि मांग में आयी भारी कमी है। इस नीलामी का उद्देश्य कोयला क्षेत्र को व्यावसायिक व वाणिज्यिक उपयोग के लिए खोल कर निर्यात बढ़ाने का है लेकिन को प्रतिष्ठित संस्थान ईआईए की रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि वैश्विक स्तर पर कोयले की मांग बढ़ने की जगह घट रही है। इसमें कहा गया है कि केवल चीन को छोड़कर बाकी तमाम देश कोयला आधारित बिजली संयंत्रों से पीछे हट रहे हैं। इस रिपोर्ट से स्पष्ट है कि कोयले के व्यापार को बढ़ावा देने से दरअसल भारत केवल पर्यावरण प्रदूषण और बड़े पैमाने पर देश के नागरिकों के विस्थापन को आयात या पैदा करने की तरफ बढ़ेगा।
इसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि पूरी दुनिया में बड़ी माइनिंग कंपनियाँ ईधन के तौर पर कोयले के इस्तेमाल से बाहर आ रही है। यहाँ तक कि भारत में भी गैस आधारित अर्थवव्यवस्था और अक्षय ऊर्जा के इस्तेमाल को बढ़ाने के लिए 2022 तक 1.75 लाख मेगावाट तक ले जाने और 2030 तक इसे 4.5 लाख मेगावाट तक ले जाने का लक्ष्य रखा गया है।
जिंदल समूह के उद्योगपति सज्जन जिंदाल ने ‘कोयले को एक मृतप्राय वस्तु बताते हुए आने वाले 15 सालों के बाद इसकी उपयोगिता’ पर गंभीर सवाल उठाते हुए ‘इस नीलामी प्रक्रिया को सरकार द्वारा अपने ही मुनाफे को बढ़ाने के एक आयोजन के तौर पर देखा’।
कोयला मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि – “निजी क्षेत्रों की तरफ से वाणिज्यिक कोयला नीलामी के लिए रुचि दिखाये जाने को लेकर शंकाएँ तो हैं लेकिन भविष्य की जरूरतों को देखते हुए कोल इंडिया लिमिटेड को एक वैकल्पिक तैयारी की गयी है। इसके लिए 2024 तक 1 बिलियन टन कोयला उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है”।
एक्विनोमिक्स रिसर्च एंड एड्वाइज़री के संस्थापक जी. चोक्कालिंगम ने प्रतिक्रिया दी है कि “इस घोषणा से कंपनियों को अल्पाधि में कोई लाभ नहीं होने वाला है क्योंकि अभी वैश्विक मंदी व वस्तुओं की कीमतों में कमी है। मुझे लगता है कि इस नीलामी को लेकर बहुत उत्साह का माहौल नहीं है। कंपनियों का ध्यान अपनी मौजूदा क्षमताओं के दोहन पर होगा न कि किन्हीं नए क्षेत्रों में निवेश करना होगा। इसलिए आने वाले समय में अंतत: कोल इंडिया को ही फायदा मिलेगा”।
इन प्रतिक्रियाओं को देखते हुए यह कहा ही जा सकता है कि बाज़ार ने इस नीलामी को बहुत उत्साह से नहीं देखा है और यह 11वां चरण भी तमाम विज्ञापनों के बाद वो आकर्षण पैदा नहीं कर पाया जो अपेक्षित था।