बदले की भावना से आगे बढ़ता अमेरिका
योगेन्द्र आनंद / सीएसई

बदले की भावना से आगे बढ़ता अमेरिका

ट्रंप प्रशासन यह मान चुका है कि “जलवायु परिवर्तन पर अदूरदर्शी रूप से केंद्रित” पूर्ववर्ती शासन की ऊर्जा नीतियों को पलटना जरूरी है
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मार्च महीने ह्यूस्टन में दुनिया के सबसे बड़े ऊर्जा सम्मेलनों में से एक सेरावीक (कैम्ब्रिज एनर्जी रिसर्च एसोसिएट्स का सालाना सम्मेलन) का आयोजन किया गया। यहां अमेरिकी ऊर्जा मंत्री क्रिस राइट ने दो टूक शब्दों में कहा, “मौजूदा वक्त ऊर्जा संक्रमण का नहीं, बल्कि ऊर्जा संकलन का है।”

दुनिया भर की ऊर्जा कंपनियों के प्रमुखों और अन्य विशेषज्ञों से खचाखच भरे सम्मेलन में राइट के इस बयान ने खूब तालियां बटोरीं। हफ्ते भर चले इस सम्मेलन में शिरकत करते हुए मुझे यह साफ हो गया कि हमारी दुनिया बदल गई है।

फिर भी यह समझना जरूरी है कि मौसम पर विनाशकारी प्रभाव के साथ तेजी से गर्म हो रही दुनिया में जलवायु परिवर्तन नीतियों को आ खिर कैसे और क्यों पूरी तरह से खारिज किया जा रहा है। यह सामने खड़े खतरे से नजर चुराने का समय नहीं है। हम यह सोचकर नहीं बैठ सकते कि डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन की ऊर्जा नीति से उनकी और हमारी दुनिया में कोई बड़ा बदलाव नहीं आएगा।

इस परिवर्तन के पीछे उनकी दलील क्या है? सर्वप्रथम, अमेरिका का सकल राष्ट्रीय कर्ज 36 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच गया है और ब्याज अदायगी देश के रक्षा खर्च से भी आगे निकल गई है। जाहिर है अमेरिकी ऊर्जा मंत्री के शब्दों में इसका जवाब “औद्योगिक क्रियाकलापों में कमी” नहीं बल्कि “उद्योगों का पुनर्जीवन” है।

देश में विनिर्माण पर इस तरह जोर दिए जाने के लिए ज्यादा ऊर्जा के साथ-साथ ऊर्जा से जुड़े बुनियादी ढांचे की अधिक से अधिक आवश्यकता होगी। दूसरे चीन ने सप्लाई चेन और इलेक्ट्रिक वाहनों के निर्माण से लेकर सोलर जैसे अनेक नए क्षेत्रों में बढ़त ले ली है। ट्रंप प्रशासन का कहना है कि वो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) की दौड़ में चीन से पिछड़ नहीं सकता।

इसके मायने यह है कि ऊर्जा-सघन डेटा केंद्रों का निर्माण अभूतपूर्व रफ्तार से करना होगा। आज अमेरिका में लगभग 5,000 डेटा सेंटर्स हैं और देश की ग्रिड आधारित बिजली के 3 प्रतिशत हिस्से की खपत यहीं होती है। इसमें जबरदस्त वृद्धि होने की उम्मीद है।

इस दशक के अंत तक डेटा केंद्रों द्वारा कुल बिजली का 8-12 प्रतिशत उपभोग किए जाने का अनुमान है। कुल मिलाकर इसका मतलब यही है कि देश में बिजली का और अधिक उत्पादन होगा। विकास दर के उच्चतम स्तर तक पहुंच जाने के बाद देश में बिजली की मांग कमोबेश स्थिर हो चुकी थी। अब इसमें वृद्धि होने की संभावना है।

ऐसे में इस “अतिरिक्त” बिजली निर्माण का स्रोत क्या होगा? ट्रंप प्रशासन का कहना है कि बिजली की इस बढ़ी हुई मांग को पूरा करने के लिए वो नवीकरणीय स्रोतों पर निर्भर नहीं रह सकते। राइट ने अपने श्रोताओं को बताया कि भारी-भरकम निवेश के बावजूद नवीकरणीय स्रोत अमेरिका की कुल ऊर्जा मांग के केवल 3 प्रतिशत हिस्से की पूर्ति करते हैं इसलिए ऊर्जा संक्रमण वास्तविक नहीं है।

इसमें कोई शक नहीं कि यह बयान भ्रामक है। ऊर्जा उत्पादन की बात करें तो नवीकरणीय स्रोतों ने अमेरिका में कोयले को पीछे छोड़ दिया है। पिछले वर्ष वहां बिजली के कुल उत्पादन में नवीकरणीय स्रोतों का हिस्सा 15-17 प्रतिशत था। हालांकि परिवहन और उद्योगों में तेल की खपत समेत सकल ऊर्जा को मापक मानने पर ऊर्जा के मिश्रण में नवीकरणीय का हिस्सा घट जाता है।

बहरहाल यह ट्रंप प्रशासन के लिए कोई शिगूफा नहीं है। वो ये मान चुके हैं कि “जलवायु परिवर्तन पर अदूरदर्शी रूप से केंद्रित” पूर्ववर्ती शासन की ऊर्जा नीतियों को पलटना जरूरी है। वो यह भी कहते हैं कि इससे बिजली की कीमत में बढ़ोतरी हुई है जिससे परिवारों पर बोझ बढ़ा है।

हालांकि इस पर कोई प्रामाणिक आंकड़े नहीं है लेकिन यहां सारा खेल धारणा बनाने और अपनी बात मनवाने का है। ऐसे में ऊर्जा की बढ़ोतरी जीवाश्म ईंधन और प्राकृतिक गैस से होगी। इस कड़ी में कोयले तक की बात हो रही है। अमेरिकी प्रशासन इनका उत्पादन और निर्माण बढ़ाने के लिए तमाम जरूरी कारकों में तेजी ला रहा है।

इससे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में इजाफा होगा। हालांकि ऊर्जा मंत्री का कहना है कि कार्बन मोनोऑक्साइड के विपरीत कार्बन डाई ऑक्साइड प्रदूषक नहीं है। साफ है कि जलवायु परिवर्तन अमेरिकी प्राथमिकताओं में बहुत नीचे है।

हालांकि हम यह नहीं कह सकते कि जलवायु परिवर्तन के मसले को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया गया है। अमेरिका के विचार से कम प्रदूषणकारी प्राकृतिक गैस का निर्यात भारत जैसी जगहों में कोयले का स्थान ले लेगा। मौजूदा प्रशासन इसका निर्यात बढ़ाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रहा है।

प्राकृतिक गैस के उत्पादन और खपत से मीथेन उत्सर्जन पर लगाम लगाने की दिशा में निवेश पर भी कुछ बातें हो रही हैं। हालांकि यह चर्चा उतनी गंभीर नहीं है क्योंकि मौजूदा अमेरिकी प्रशासन में जलवायु कार्रवाई को लेकर वास्तविक रूप से कोई उत्प्रेरक नहीं है। अब सारा ध्यान परमाणु ऊर्जा खासतौर से डेटा सेंटरों को बिजली की सीधी आपूर्ति कर सकने वाले छोटे मॉड्यूलर संयंत्रों पर है।

चीन और रूस सैकड़ों गीगावाट क्षमता वाले परमाणु संयंत्र तैयार कर रहे हैं और उम्मीद है कि अमेरिका भी फ्यूजन या फिशन प्रौद्योगिकी के जरिए उनकी बराबरी कर लेगा। हालांकि यह साफ है कि हाइड्रोजन शक्ति की आस अब पूरी नहीं होने वाली। ऐसे में प्रदूषणकारी तत्वों से हासिल होने वाली ऊर्जा दोबारा मुख्यधारा में आ गई है।

दुनिया को जलवायु संकट की ओर ले जा रहा अमेरिका अपनी जिम्मेदारी को लेकर कतई शर्मिंदा नहीं है। वास्तव में यही असली चुनौती है। पूरी संभावना है कि 2030 तक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में प्रस्तावित 50 फीसदी कटौती की बजाए अमेरिका अपने उत्सर्जन में बढ़ोतरी कर लेगा।

हकीकत यह है कि अमेरिका पहले ही वैश्विक कार्बन बजट में अपने हिस्से का अतिरिक्त इस्तेमाल कर चुका है, अब वो और बड़े हिस्से की खपत करेगा। ऐसे में बाकी दुनिया खासतौर से भारत जैसे देश और अफ्रीका महादेश का क्या होगा, जिन्हें विकास के लिए और ऊर्जा की आवश्यकता है।

योजना तो यह थी कि अमेरिका जैसे देश जीवाश्म ईंधनों से दूर हटकर अपने हिस्से में कटौती करेंगे। अब जबकि अमेरिका बदले की भावना से आगे बढ़ रहा है तब दुनिया में तापमान बढ़ोतरी को 1.5 डिग्री से नीचे बनाए रखने की कवायद लगभग नामुमकिन दिखाई दे रही है।

मैं आप सबको अवसाद में डालने के लिए ऐसा नहीं लिख रही, बल्कि मैं यह साफ कर देना चाहती हूं कि हमें गफलत में नहीं रहना चाहिए। ऐतिहासिक रूप से अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा प्रदूषक देश है। साथ ही सालाना ग्रीन हाउस गैस का दूसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है। ऐसे में प्रदूषणकारी तत्वों से ऊर्जा प्राप्त करने की उसकी नीति के भयानक परिणाम होंगे। सवाल यह है कि हमें क्या करना चाहिए? जवाब ये है कि हमें इस विषय पर चर्चा निरंतर जारी रखनी चाहिए।

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