उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश ही नदारद है। सत्ता के एक दावेदार को जनता से यह अपेक्षा है कि वह अयोध्या, काशी और मथुरा जैसे तीर्थों के उद्धार के लिए उसके हाथ मजबूत करे, जबकि दूसरा दावेदार लोगों को पिछले पांच वर्षों में हुई फर्जी मुठभेड़ों और दमन की घटनाओं की याद दिला रहा है।
कुछ समय पहले तक लग रहा था कि यह चुनाव शायद सड़क और हवाई अड्डा बनवाने के नाम पर लड़ा जाए, लेकिन ऐसे दावे करने वाले पक्ष को ऐन मौके पर अंदाजा हो गया कि ये कथित विकास परियोजनाएं बहुत सारे लोगों का विस्थापन और कई परिवारों की बर्बादी भी अपने साथ लाई हैं।
नतीजा यह कि इस विशाल राज्य का चुनाव ले-देकर वापस उसी व्यर्थ की उत्तेजना और जाति-धर्म की धुरी पर घूमने लगा है, जो पिछले तीन दशकों से यूपी की राजनीतिक पहचान बनी हुई है।
भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के राजनीतिक परिदृश्य में उत्तर प्रदेश की स्थिति धीरे-धीरे एक असाध्य पहेली जैसी हो चली है। 25 करोड़ का आंकड़ा छूने जा रही इस राज्य की आबादी संसार में सिर्फ चार देशों- चीन, भारत, अमेरिका और इंडोनेशिया से पीछे है। इतनी बड़ी प्रशासनिक इकाई के पास एक अर्से से भविष्य का कोई एजेंडा नहीं।
ठोस मुद्दों पर राजनीति का चलन न केंद्रीय चुनावों में है, न ही किसी और राज्य में। लेकिन कोई भी चुनाव हो, उसमें राज्य या देश के हित-अनहित पर कुछ बातें तो हो ही जाती हैं। मीडिया को भी घुमा-फिराकर इस विषय पर कुछ बोलना ही पड़ता है। उत्तर प्रदेश इस मामले में बिल्कुल अलग है।
कांग्रेस की लुटिया यहां 1989 के विधानसभा चुनाव में डूबी थी, जब कुल 425 सीटों में पहली बार 100 से कम सीटें उसके हाथ लगी थीं। उसके बाद उभरी तीनों पार्टियां- समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और भारतीय जनता पार्टी यहां किसी न किसी वोट बैंक की राजनीति करती हैं और उसे अच्छे से संबोधित करते रहने के अलावा बाकी किसी चीज की परवाह नहीं करतीं।
एक समय ऐसा लगता था कि इस राजनीति की अपनी सीमा है, लेकिन फिर तीनों ने अपने तरीके में ज्यादा बदलाव किए बगैर पांच-पांच साल पूर्ण बहुमत की सरकारें भी चला लीं तो सीमा की चिंता समाप्त हो गई।
जीडीपी और कर्ज
यूपी की आर्थिक स्थिति पर नजर डालें तो पिछले साल इसका जीडीपी 17 लाख करोड़ रुपया दर्ज किया गया था, जबकि 6 लाख करोड़ रुपये से थोड़ा ज्यादा इसपर सरकारी कर्ज था। 25 करोड़ आबादी को देखते हुए ये आंकड़े निराशाजनक हैं।
करोड़ का हिसाब एक तरफ रख लें तो मामला कुछ ऐसा बनता है कि 25 लोगों का एक खानदान साल भर में 17 लाख रुपये कमाता है, जबकि 6 लाख का कर्जा उसपर चढ़ा हुआ है। विकास के नाम पर राज्य सरकार कुछ नामी मंदिरों के अलावा कुछ सड़कें और एक-दो शहरों में पचासेक किलोमीटर मेट्रो रेल दिखाती है, लेकिन इतने बड़े राज्य में औद्योगिक इलाकों या साइबर सिटीज के नाम पर बहुत बड़ा शून्य पसरा हुआ है।
यूपी का सबसे बड़ा औद्योगिक केंद्र अभी तीन दशक पहले तक कानपुर हुआ करता था। पूरब का मैंचेस्टर, जिसको भारत में टेक्नॉलजी का गढ़ मानते हुए खड़गपुर और बॉम्बे के बाद तीसरे आईआईटी की स्थापना यहीं की गई।
आजादी के पहले दशक में देश के कई अन्य राज्यों में इस बात को लेकर भुनभुनाहट थी कि रुड़की और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) जैसे बड़े तकनीकी संस्थानों के होते हुए उत्तर प्रदेश में एक और अग्रणी तकनीकी संस्थान की क्या जरूरत? लेकिन उस समय कोलकाता और मुंबई को छोड़कर कानपुर के आसपास भी खड़ा हो सकने वाला कोई औद्योगिक शहर कहां था?
पुणे और अहमदाबाद क्या, बेंगलूरु और हैदराबाद भी तब कानपुर होने के सपने देखते थे। वही कानपुर आज कहां है? इलाहाबाद, बनारस और अलीगढ़ विश्वविद्यालयों की गिनती भारत ही नहीं, संसार के महत्वपूर्ण शिक्षा केंद्रों के रूप में हुआ करती थी। इनकी पढ़ाई-लिखाई का हाल, यहां छपने वाले शोधपत्रों का स्तर अभी कैसा है?
चपरासी-बेलदार की नौकरियों के लिए जब लाखों ग्रैजुएट यूपी के तमाम शहरों में हर साल लाठियां खाने और भगदड़ में मारे जाने के लिए जमा होते हैं, उनमें कुछ एमबीए, बीटेक और पीएचडी की डिग्रियां दिखाते हैं तो राजनीतिक स्तर पर बयान जारी होते हैं कि सरकार सबको नौकरी नहीं दे सकती, युवा अपने कौशल का विकास करें।
कुछ ज्ञानी राजनेता यहां तक बोल जाते हैं कि नौकरियां भरी पड़ी हैं, योग्य व्यक्तियों का ही अकाल है। लेकिन लंबी योजना की, राष्ट्र निर्माण वाली समझदारी की जरूरत यहीं पड़ती है।
एक जवाबदेह सरकार देश-दुनिया में पैदा हो रही नई मांग के अनुरूप चीजों और सेवाओं के निर्माण का ढांचा कैसे तैयार करे और अपनी नई पीढ़ी को इसके लिए जरूरी कौशल और शिक्षा से लैस कैसे करे।
कुछ न कुछ बेरोजगारी इसके बाद भी बनी रह सकती है, लेकिन संसार की पांचवीं सबसे बड़ी प्रशासनिक इकाई के लिए पिछले तीस वर्षों में क्या यह चिंता का विषय भी रहा है?
दो एस्टैब्लिशमेंट
मामले की तह में जाएं तो सरकार चलाने को लेकर ऐड-हॉक नजरिया पिछले तीन दशकों तक ही सीमित नहीं है। ऊपर 1989 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की यूपी से विदाई का जिक्र पढ़कर किसी को लग सकता है कि जबतक कांग्रेस यहां राज कर रही थी, तबतक शायद यूपी में सबकुछ ठीकठाक रहा होगा।
तथ्य इससे अलग हैं। उस समय तक यूपी की राजनीति में दो कारक सक्रिय रहते थे। एक यूपी सरकार और दूसरा गांधी-नेहरू परिवार। उत्तर प्रदेश को इसके कुछ फायदे मिले तो बहुत सारे नुकसान भी झेलने पड़े।
किसी को यह सुनकर हैरानी हो सकती है कि एक बार में पूरे पांच साल सरकार चलाने वाले सिर्फ दो मुख्यमंत्री अभी तक उत्तर प्रदेश में हुए हैं। पिछले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से पहले केवल राज्य के दूसरे मुख्यमंत्री डॉ. संपूर्णानंद! सन 2007 से पहले सरकार चलाने का जिम्मा यहां लोगों को औसतन साल-दो साल ही मिलता रहा। या पांच साल पहले ही चुनावों की घोषणा कर दी गई।
नौ बार तो राष्ट्रपति शासन लग चुका है- दो महीने से लेकर पूरे साल तक के लिए। फिर भी 1989 तक यूपी की गाड़ी चलती रहती थी, क्योंकि बात-बात पर सत्ताशीर्ष बदले जाने के बावजूद नौकरशाही राजनेताओं का अदब रखती थी।
उसके बाद से न सिर्फ राजनेताओं का कद छोटा होता गया, बल्कि सरकारी ढांचे में यह संदेश चला गया कि ऊपर बैठे लोग ज्यादा दूर की चिंता ही नहीं करते, लिहाजा लंबा हिसाब लगाकर सरकारी काम करने की कोई जरूरत नहीं है।
फिर इस राज्य में तबादला उद्योग चल निकला। कुछ आईएएस अफसरों ने हर साल बाकायदा वोट डालकर अपने बीच से सबसे भ्रष्ट अफसर का चुनाव करना शुरू कर दिया। और इसी तरह चुनी गई एक भ्रष्टाचार शिरोमणि अधिकारी को राज्य का मुख्य सचिव बनाने का प्रस्ताव भी एक मुख्यमंत्री की ओर से पेश कर दिया गया।
इस हद तक गर्त में जा चुके इस राज्य को यदि भगवद्भक्ति के सहारे ही न छोड़ देना हो तो इसके विविध पहलुओं पर बाकायदा एक श्वेतपत्र लाया जाना चाहिए और इसके चौतरफा पुनरुद्धार के लिए पांच या दस साल नहीं, पचीस साल की बाध्यकारी योजना (मैंडेटरी प्लानिंग) बनाकर काम शुरू करना चाहिए।