उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव: इन आदिवासी जातियों की सुध लेने वाला कोई नहीं

उत्तर प्रदेश के 16 जिलों में आदिवासी समुदाय के लोग रहते हैं, लेकिन इन विधानसभा चुनाव में उनकी बात नहीं हो रही है
उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले की सहरिया जनजाति के युवा बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं। फोटो: अमन गुप्ता
उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिले की सहरिया जनजाति के युवा बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं। फोटो: अमन गुप्ता
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उत्तर प्रदेश के ललितपुर जिला मुख्यालय से तीस किलोमीटर की दूरी पर मध्य प्रदेश की सीमा से लगा हुआ, बेतवा नदी के किनारे और जंगलों से घिरा एक गांव है देवगढ, जो कि एक छोटी ग्राम पंचायत है। इसके आसपास बसे गांव कुच्दों और गढ़ौली भी जनसंख्या के लिहाज से बहुत छोटे हैं। इसलिए, इन तीनों गांवों को मिलाकर एक ग्राम पंचायत का गठन किया गया है। जहां सहरिया जनजाति के लोगों की आबादी ज्यादा है। 

कुच्दों गांव के अंदर जाने वाले रास्ते के मुहाने पर गांव के ही 10-12 युवा एक साथ बैठकर आपस में कुछ मस्ती-मजाक कर रहे हैं। उन्हें फुर्सत में बैठे देखकर, उनसे ऐसे खाली बैठे होने का कारण पूछा, तो वे कहते हैं, “कोई काम दिला दीजिए हम नहीं बैठेंगे”। ये सभी लड़के सहरिया समुदाय से आते हैं। 
वे बताते हैं, "हम लोग स्थाई रूप से बेरोजगार हैं। कोरोना के पहले पत्थर खदान में काम करते थे, जिसे सरकार ने बंद कर दिया। उसके बाद कोरोना आ गया, तबसे अभी तक कोई काम ही नहीं मिला। कभी कभार थोड़ा बहुत मिल जाता है तो कर लेते हैं, जब नहीं मिलता है तो यहीं बैठकर टाइम पास करते हैं।
मनरेगा में काम क्यों नहीं करते, पूछने पर वे कहते हैं कि मनरेगा में काम कहां होता और कब होता है? वे बताते हैं कि गांव भर के जॉब कार्ड बने हुए हैं, लेकिन काम किसी को नहीं मिला। आगे जब मिलेगा तो कर लेंगे। 
काम की तलाश में ईंट भट्ठों पर जाने वाले रामसिंह सहरिया कहते हैं कि हमारे यहां सबसे ज्यादा दिक्कत काम की है। इसलिए बाहर जाना मजबूरी है। पहले यहां पत्थर खदानें चलती थीं, जिसमें काम तो मिलता था लेकिन काम के साथ बीमारी भी मिलती थी। पहले दो खदानें थीं जिसमें से एक बंद हो गई जिसके कारण बहुत से मजदूर बेकार हो गए।
वही लोग बाहर जाते हैं, जो ईंट भट्ठों पर या फिर किसी भी प्रकार का मजदूरी वाला काम करते हैं। रामसिंह बताते हैं कि अब तो बाहर जाने के लिए किसी ठेकदार का इंतजार करना पड़ता है। वही हम लोगों को लेकर जाता है बदले में हमारे हिस्से का कुछ पैसा उसके पास चला जाता है। अगर ऐसा न करें तो हम लोगों को बाहर काम नहीं मिलता है। 
ललितपुर में सहरिया समुदाय की समस्याओं पर काम कर रहे अजय श्रीवास्तव कहते हैं कि पूरे प्रदेश में केवल ललितपुर जिले में पाए जाने वाले सहरियाओं को ही अनुसूचित जनजाति का दर्जा हासिल है, जबकि बगल के झांसी जिले के सहरिया समुदाय के लोगों को अनुसूचित जाति का दर्जा मिला हुआ है।
इस तरह एक समुदाय जो पूरे क्षेत्र में विस्तृत है अपनी पहचान को लेकर एक जिले तक सीमित है। वह कहते हैं कि केवल ललितपुर में ही 1.25 लाख के आसपास सहरिया समुदाय के लोग हैं, जो जिले की दोनों विधानसभा सीटों में समान रूप से बंटे हुए हैं। 
2017 के विधानसभा चुनाव में पहली बार उत्तर प्रदेश की विधानसभा में अनुसूचित जनजातियों के लिए दो सीटें आरक्षित की गई थीं, जो सोनभद्र जिले में है। जो गोंड जनजाति के लिए आरक्षित हैं।
2011 की जनगणना के अनुसार प्रदेश में करीब साढ़े ग्यारह लाख आदिवासी आबादी है। जिसमें गोंड, थारू, सहरिया खैरवार खरवार बैगा समुदाय मुख्य रूप से पाए जाते हैं। आदिवासी समुदाय का फैलाव प्रदेश के 16 जिलों में है, लेकिन संख्या में कम होने के कारण चुनाव में इनकी कोई पूछ नहीं है। 
श्रीवास्तव बताते हैं कि सहरिया समुदाय के लोगों के सामने सबसे बड़ा संकट आजीविका का है। ललितपुर में पाये जाने वाले 70 फीसदी सहरिया समुदाय के पास कृषि भूमि होने के बाद भी वे मजदूरी करने के लिए अभिशप्त हैं। क्योंकि लैंड डिस्ट्रीब्यूशन के समय इनको जो जमीनें मिलीं वो ऊबड़ खाबड़ और कम अनुपजाऊ हैं, जो न होने के जैसा है।
आदिवासी घुमंतु समुदाय से आने वाले गयादीन कहते हैं कि हम इस जगह पर पिछले बीस सालों से रह रहे हैं। अपनी झोपड़ी दिखाते हुए कहते हैं कि यही हमारा घर है। जहां बिजली, पानी, गैस, शौचालय जैसी कोई सुविधा नहीं है। कानपुर सागर राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे इस समुदाय के करीब पांच सौ लोग अलग अलग जगहों पर रह रहे हैं। पूरे समुदाय की समस्यायें एक जैसी हैं। 
इसी घुमंतू समुदाय से आने वाले शंभू कहते हैं कि , "हम इतने सालों से यहां रह रहे हैं तो यहां के लोगों ने हमारे राशन कार्ड और वोटर कार्ड बनवा दिए हैं। राशन कार्ड से राशन भी मिल जाता है लेकिन उसके अलावा और कुछ नहीं है। सरकार ने हर गांव में लोगों को मकान, शौचालय बनाने के लिए पैसा दिया, लेकिन हमें कुछ नहीं मिला।
वे कहते हैं कि अभी जहां रह रहे हैं वहां भी हमको पुलिस को पैसा देना पड़ता है, हमारी झोपड़ी के पीछे जिसकी जमीन है उसको भी किराया देना पड़ता है। इतना सब करने के बाद भी हमें झोपड़ी में जलाने के लिए बिजली की व्यवस्था नहीं है। पीने के पानी के लिए भी आस पास के घरों में जाना पड़ता है। 
विधानसभा के चुनावों में हर राजनीतिक दल जाति विशेष को लेकर रणनीतियां बना रहे हैं ऐसे में आदिवासी समाज से आने वाले लोग अपने को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। 

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