झारखंड की राजधानी रांची के राजभवन के समक्ष अनिश्चितकालीन सत्याग्रह पर बैठे आदिवासी संगठनों की मांग है कि पांचवी अनुसूची वाले इलाके में चुनाव रद्द हो, क्योंकि इन क्षेत्रों में त्रिस्तरीय चुनाव की प्रक्रिया गैर संवैधानिक है।
आदिवासी पारंपरिक स्वशासन व्यवस्था संगठन के बैनर तले मानकी-मुंडा, टाना भगत, मांझी परगना समेत अन्य आदिवासी संगठन चुनाव के विरोध में बीते 18 अप्रैल से सत्यग्राह पर बैठे हैं।
इस संगठन से जुड़ी जहांनारा कच्छप ने डाउन टू अर्थ से कहा, “हमारी रूढ़िवादी व्यवस्था ही गांव और ग्राम में शासन की प्रणाली है। इसे गांव के लोग और ग्रामसभा ही चलाएगी। बीडीओ (ब्लॉक डेवलपमेंट अफसर) या मुखिया नहीं। सरकार हमपर चुनाव थोप रही है। ये चुनाव दिकू (बाहरी लोग) व्यवस्था है। इसलिए हम इसका विरोध कर रहे हैं। सरकार नहीं मानी तो हम इस मुद्दों को संयुक्त राष्ट्र तक उठाएंगे।”
वहीं चुनाव के विरोध में 26 अप्रैल को भारी संख्या में टाना भगतों ने लातेहार जिला के समाहरणालय पहुंच कर विरोध प्रदर्शन किया। इस दौरान उन्होंने, अधिकारियों और कर्मचारियों को बाहर निकालकर कार्यालय में ताला लगा दिया।
ऐसा नहीं है कि झारखंड गठन के बाद राज्य में यह पहला त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव है। राज्य के गठन के फौरन बाद ही 2001 झारखंड पंचायती राज अधिनियम बना, लेकिन पहला पंचायत चुनाव दस साल बाद 2010 में होता है। पांच साल बाद 2015 में दूसरा चुनाव संपन्न हुआ। निमय के मुताबिक दिसंबर 2020 में तीसरा पंचायत चुनाव हो जाना चाहिए था।
बहरहाल, अब पंचायत चुनाव की अधिसूचना जारी की जा गई है और चार चरणों में मतदान होने हैं। 14, 19, 24, 27 मई को झारखंड के 24 जिलों के 4345 ग्राम पंचायत में वार्ड सदस्य, मुखिया, पंचायत समिति सदस्य, जिला परिषद् सदस्यों के लिए मतदान डाले जाएंगे। राज्य में चुनाव की प्रक्रिया जोरशोर पर है।
तो सवाल है कि विरोध या धरने पर बैठने का अब क्या औचित्य रह जाता है? जवाब में धरने पर बैठे एक अन्य आदिवासी संगठन के फौदा उरांव कहते हैं, “राज्य में हुए पिछले त्रिस्तरीय चुनाव में हमलोगों ने भाग लिया था। इस बार विरोध में हैं। क्योंकि हमें जानकारी नहीं थी संविधान की। अब हो गई है। हमारा संविधान कहता है कि पांचवी अनुसूची वाले इलाके में चुनाव नहीं होते।”
झारखंड उन दस राज्यों में शामिल हैं जो पांचवी अनुसूची वाले क्षेत्र में आते हैं। झारखंड के 14 जिले इसके मातहत आते हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक सवा तीन करोड़ आबादी वाले झारखंड में लगभग 87 लाख आदिवासी हैं। इनमें से पांचवी अनुसूची वाले 14 जिलों में 68.66 लाख आदिवासी हैं।
आदिवासियों की परंपरा के अनुसार गांव का ग्राम प्रधान, मुंडा, मानकी, टाना भगत, मांझी हुआ करते हैं और राज्य में इन्हीं के नाम से कई आदिवासी संगठन भी हैं।
जानकारों के मुताबिक सदियों से गांव में इन संगठनों की अपनी स्वशासन व्यवस्था चली आ रही है। जिसको पेसा एक्ट प्रोटेक्ट करता है। पेसा यानी, प्रोविजन टू पंचायत एक्सटेंशन शेड्यूल एरिया एक्ट 1996 को कहते हैं।
इसके तहत पांचवीं अनुसूची वाले इलाकों में चुनाव की प्रक्रिया बदली हुई होगी। यहां त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव की व्यवस्था गैर अनुसूचित जानजाति वाले इलाके (पांचवी अनुसूची वाले इलाके) जैसी नहीं होगी। पेसा एक्ट के मद्देजनर सरकार को पंचायत चुनाव के लिए पांचवी अनुसूची वाले इलाके लिए एक नियमवली बनानी थी, जो 22 साल बाद भी नहीं बन पाई है।
मानकी मुंडा संघ, कोल्हान पोड़ाहाट, पश्चिमी सिंहभूम झारखंड, जैसे आदिवासी पारंपरिक संगठन भी पांचवी अनुसूची वाले क्षेत्र में त्रिस्तरीय पंचयात चुनावा का विरोध करता रहा है।
पिछले महीने ही संगठन ने राज्य मुख्यमंत्री से मिलकर इस मुद्दे को उठाया। संगठन के सदस्य चंदन होनहागा ने डाउन टू अर्थ को बताया, “हमलोगों ने मुख्यमंत्री से पांचवी अनुसूची वाले इलाके में चुनाव न कराने और पेसा कानून लागू करने की मांग की। लेकिन उसके बावजूद पंचायत चुनाव की अधिसूचना जारी कर दी गई।”
इस पूरे मामले पर झारखंड के ग्रामीण विकास व पंचायती राज मंत्री आलमगीर आलम ने डाउन टू अर्थ से बात करते हुए कहा, “राज्य में दो बार चुनाव हो चुके हैं। 2010 और 2015 में। तब विरोध क्यों नहीं हुआ? हमने पहले ही कहा कि चुनाव में काफी विलंब में हो गया है। चुनाव कराना अति आवश्यक है। इससे गांव का विकास होगा। जो कमी है, सरकार उसे दूर करने के लिए कटिबद्ध है। जहां तक पेसा कानून लागू करने की बात है तो अगले तीन साल के भीतर पेसा कानून लागू किया जाएगा।”
झारखंड में ऐसी शिकायतों आम है कि ग्राम सभा की अनुमति के बिना मुखिया व बीडीओ गांव में कोई भी सरकारी योजना ले आते हैं या किसी सरकारी काम के लिए जमीन अधिग्रहण करते हैं, जबकि पेसा कानून के मुताबिक कोई योजना या जमीन का अधिग्रहण तभी हो सकता है जब ग्राम सभा सहमति दे। ग्रामीणों के मुताबिक जो परंपरा और पहचान उन्हें कानून के तहत प्राप्त है, उसके पालन में प्रशासन अड़चन पैदा करता है।
जन मुक्ति संघर्ष वाहिणी के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य व झारखंड में ग्रामसभाओं के सशक्तिकरण पर काम कर रहे मंथन कहते हैं कि पंचायत चुनावों का विरोध भावनात्मक रूप से उचित है, क्योंकि पिछले दस साल का अनुभव और झारखंड का पंचायत अधिनियम 2001, ग्रामसभा और आदिवासी परंपरा के अधिकारों का संरक्षण और सशक्तिकरण के लिए अनुकूल नहीं रहा है। बावजूद इसके पंचायत चुनाव के विरोध की बजाय पेसा कानून की नियमावली बनाने और उसके बाद पंचायत चुनाव कराने की मांग करनी चाहिए।