साल 2017 के अंत में उत्तर प्रदेश में एक नई कहानी की शुरुआत हुई, जिसमें लोग एक-दूसरे को उन लंबी रातों के बारे में बताते थे, जिनमें उन्हें खेतों में रात भर जागकर आवारा मवेशियों के झुंड से फसलों की रखवाली करनी पड़ती थी।
गायों का पीछा करने में किसानों को अपने हाथ-पैर तक तुड़वाने पड़ते थे। यहां तक कि कुछ किसानों को इन पशुओं से खेतों को बचाने के लिए उनके चारों ओर कांटेदार तार भी लगवाने पड़ते थे, जिससे उन्हें आर्थिक नुकसान भी झेलना पड़ा।
2017 वही साल था, जिस साल मार्च में निवर्तमान सरकार, सत्ता में आई थी। इसने अपना पहला बड़ा अभियान जो चलाया, वह ‘अवैध’ बूचड़खानों के बंद करने और गायों की रक्षा करने का ही था। गोहत्या-विरोधी कानूनों और व्यापक सतर्कता से परेशान होकर, गाय पालने वालों ने उन्हें (सड़कों पर) छोड़ दिया। जिसका नतीजा यह हुआ कि गायों पर निर्भर अर्थव्यवस्था तेजी से प्रभावित हुई और एक नया संकट खड़ा हो गया।
इन दिनों उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव चल रहे हैं। यहां पहले चरण का मतदान दस फरवरी को हुआ था। सत्ता के शुरुआती सालों में जो भारतीय जनता पार्टी, गायों की सुरक्षा को अपनी बड़ी उपलब्धि बता रही थी, अब उसके लिए यही मुद्दा चुनावों में भारी पड़ रहा है। यह मुद्दा आवारा गायों द्वारा पैदा किए गए संकट का है।
आवारा गायें जिस तरह से राज्य के किसानों की अर्थव्यवस्था को चौपट कर रही हैं, वह उत्तर प्रदेश के लिए के लिए वास्तव में गंभीर मुद्दा है। जैसा कि 20वीं पशुधन जनगणना-2019 की ऑल इंडिया रिपोर्ट से पता चलता है, कि 2019 तक, इस राज्य में आवारा गायों की आबादी में 17.34 फीसदी की असाधारण वृद्धि दर्ज की गई जबकि देश में कुल मिलाकर उनकी आबादी में 3.2 फीसदी की कमी पाई गई।
किसानों की अर्थव्यवस्था की धुरी होने से लेकर आवारा छोड़े जाने तक गायों की हालत में इतना बड़ा बदलाव आया है जिसका लोगों को अनुमान नहीं था। हालांकि जिस तरह से लोगों ने दूध न देने वाली गायों को डर के चलते आवारा छोड़ा (क्योंकि उनके गैर-कृषि कार्यों के लिए व्यापार पर रोक लगा दी गई थी, और उन्हें पालना किसानों को भारी पड़ रहा था), उससे उत्तर प्रदेश अब आवारा गायों को लेकर बेबस स्थिति में है।
ये गायें अब प्रदेश में हर जगह, गांवों और शहरों में नजर आ रही हैं और उन्हीं किसानों की फसलों को बर्बाद कर रही हैं।
केंद्रीय चुनाव आयोग ने इन चुनावों में कोविड-19 के खतरे के चलते बड़ी रैलियों और रोड शो पर काफी हद तक रोक लगा रखी है। कोई दलील दे सकता है कि चूंकि प्रत्याशी कम समर्थकों के साथ छोटे-छोटे दायरों में प्रचार कर रहे हैं, इसलिए उन्हें लोगों की तुलना में आवारा गायों का सामना ज्यादा करना पड़ता है। यह भी एक वजह है, जिसके चलते आवारा गायों की आबादी के प्रबंधन का मुद्दा प्रमुख चुनावी मुद्दा बनकर उभरा है।
बड़ी रैलियों के बजाय चुनाव-प्रचार में मतदाताओं के बीच छोटे दायरों में पहुंचने की वजह नेताओं को उन स्थानीय मुद्दों का ज्यादा सामना करना पड़ रहा है, जो लोगों के लिए महत्वपूर्ण है। यही वजह है कि आवारा गायों का मुद्दा इतना बड़ा बन गया है कि मतदाता चाहते हैं कि हर नेता इसे प्रमुखता से उठाए।
आवारा पशु, शहरों और गांवों दोनों जगह मुद्दा बने हुए हैं। आश्चर्यजनक रूप से वर्तमान सरकार के लिए जो मुद्दा गर्व का विषय हुआ करता था, वही अब उसे न सिर्फ परेशान कर रहा है बल्कि उसके चलते चुनावों में पार्टी को एंटी- इंकमबेंसी का भी सामना कर रहा है। दरअसल, पिछले पांच सालों में राज्य सरकार ने आवारा गायों के मुद्दे को सुलझाने को लेकर इतना भर किया कि उसने इन गायों की सुरक्षा के लिए गौशालाओं के निर्माण का ऐलान किया और लोगों से उन्हें गोद लेने की अपील की।
राज्य सरकार ने गायों को गौशालाओं में रखने के लिए उपकर भी लगा दिया। है। यही नहीं, उसने लोगों को गायों को छोड़ने के लिए दंडित भी किया। पिछले साल नवंबर में उसने ग्रामीण इलाकों में पशुओं को पकड़ने वाली गाड़ियां भेजकर उन्हें गौशालाओं में डालने का हताशा भरा फैसला भी लिया था।
हालांकि राज्य में आवारा पशुओं की तादाद 11.80 लाख से ज्यादा हो और वह रोजाना बढ़ रही हो तो उसका प्रबंधन इतना आसान नहीं है। स्थानीय लोग इस फैसले को राज्य सरकार की नाकामी के तौर पर देखते हैं, जिसने उनकी आजीविका पर दोहरी मार की। पहली- इससे पशुओं पर आधारित अर्थव्यवस्था चौपट हो गई और दूसरे, आवारा पशुओं ने उन्हीं किसानों के खेतों में फसलों का नुकसान किया। इससे किसानों को खेतों की सुरक्षा के लिए खर्चा करना पड़ा।
कोरोना की महामारी की वजह से लगाए गए प्रतिबंधों के चलते इस बार के चुनाव पारंपरिक चुनाव जैसे नहीं हैं। गायों से जुड़े सवाल का चुनाव में मुद्दा बन जाना भी असामान्य बात है। देश के चुनावी इतिहास में यह दिखाने वाला ऐसा कोई सबूत नहीं है कि गौ-रक्षा उपायों से पार्टियों को चुनावों में मदद मिली या नहीं। ऐसे में, उत्तर प्रदेश में मौजूदा चुनाव यह देखने का अवसर हो सकता है कि क्या गाय की अर्थव्यवस्था के साथ छेड़छाड़ करने से किसी पार्टी को चुनावी नुकसान होगा।