एक थारू महिला ।फोटो: अंबेडकर कुमार साहू
एक थारू महिला ।फोटो: अंबेडकर कुमार साहू

बिहार चुनाव: थारू समुदाय पर भारी पड़ सकता है 'एसआईआर'

बिहार में मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण हाशिए पर खड़े समुदायों को मताधिकार से वंचित कर सकता है
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बिहार में मतदाता सूची का विवादास्पद विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआईआर) चल रहा है और इस प्रक्रिया में सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाला थारू समुदाय एक बेहद संवेदनशील मोड़ पर खड़ा है। इसका कारण यह है कि थारू समुदाय नेपाल में भी पाया जाता है और भारत-नेपाल सीमा से सटे इलाकों में रहने वाले इन लोगों को अकसर नेपाली नागरिक समझ लिया जाता है।

भारत निर्वाचन आयोग द्वारा 25 जून 2025 से शुरू किए गए एसआईआर ने हाशिये पर खड़े समुदायों, आदिवासियों और सीमावर्ती इलाकों के लोगों के मताधिकार खत्म होने की आशंका बढ़ा दी है।

इस प्रक्रिया का उद्देश्य बिहार की मतदाता सूचियों को “शुद्ध” करना है। इसके लिए घर-घर जाकर सत्यापन किया जा रहा है और विशेष रूप से उन लोगों को नागरिकता प्रमाणित करने वाले दस्तावेज दिखाने को कहा जा रहा है, जो 1 जुलाई 1987 के बाद पैदा हुए हैं (और 1 जुलाई 2004 के बाद जन्म लेने वालों के लिए यह नियम और सख्त है)। यह अभियान 25 जून से 25 जुलाई 2025 तक चलेगा और इसमें 8.5 करोड़ मतदाता जांच के दायरे में होंगे।

हालांकि चुनाव आयोग का दावा है कि यह प्रक्रिया फर्जी मतदाताओं को हटाने के लिए है, लेकिन विपक्षी दलों और नागरिक समाज संगठनों का कहना है कि इससे खासकर ग्रामीण, आदिवासी और सीमावर्ती समुदायों के बड़े पैमाने पर मताधिकार खत्म हो सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में दखल देते हुए आदेश दिया कि आधार कार्ड, मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड को वैध दस्तावेज माना जाए—यह कदम एक जरूरी लेकिन देर से उठाया गया सुरक्षा उपाय है।

थारू कौन हैं?

थारू एक स्वदेशी आदिवासी समुदाय है, जो मुख्य रूप से भारत और नेपाल के तराई क्षेत्रों में पाया जाता है। भारत में यह समुदाय उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और बिहार राज्यों में बसता है।

यह माना जाता है कि थारू मूलतः तिब्बतो-बर्मन नस्लीय समूह से हैं। बिहार के थारू स्वयं को इंडो-आर्यन वंशज मानते हैं और पश्चिमी भारत के थार मरुस्थल की राजपूत जातियों से अपना संबंध जोड़ते हैं। इसी कारण उनका नाम ‘थारू’ पड़ा। कुछ लोग खुद को गौतम बुद्ध का प्रत्यक्ष वंशज मानते हैं और ‘थारू’ शब्द को थेरेवाद बौद्ध संप्रदाय से जोड़ते हैं।

हालांकि उनके मूल को लेकर कई धारणाएं हैं, बिहार के थारू उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के थारुओं से काफी अलग हैं। नेपाल के थारुओं में भी सांस्कृतिक अंतर पाया जाता है। बिहार में लंबे राजनीतिक संघर्ष के बाद 2003 में थारुओं को आधिकारिक रूप से अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिया गया।

भले ही थारू लोग अब काफी हद तक मुख्यधारा की भोजपुरी और मैथिली संस्कृति में घुलमिल गए हैं, फिर भी उन्होंने अपनी पहचान लोक कला, सामाजिक और पारिवारिक संरचनाओं के माध्यम से बनाए रखी है।

वे मुख्य रूप से थारूहत नामक घने जंगलों और अपेक्षाकृत अलग-थलग क्षेत्रों में रहते हैं। शिक्षा, रोजगार और आधुनिक सुविधाओं के मामले में यह बिहार की सबसे पिछड़ी जनजातियों में से एक हैं। थारूहत क्षेत्र लगभग 900 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले वाल्मीकिनगर टाइगर रिजर्व के आसपास स्थित 300 गांवों में बसा है। थारुओं की आबादी करीब 3 लाख है और उनकी आजीविका का मुख्य साधन वन उत्पाद और जीविकोपार्जन कृषि है।

थारुओं में राजनीतिक चेतना

ऐतिहासिक रूप से राजद, जद (यू) और भाजपा जैसी पार्टियों ने थारू वोट बैंक को लुभाने की कोशिश की है। खासकर वाल्मीकिनगर जैसी सीटों पर थारू वोट महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

हालांकि, नीतीश कुमार जैसे नेताओं के बार-बार पलटे वादों ने थारू समुदाय में मोहभंग बढ़ा दिया है। विकास के वादे पूरे न होने और रोजगार के अवसरों की कमी से थारू मतदाता नाराज तो हैं, पर फिर भी वे मतदान को सम्मान और अधिकार का प्रतीक मानते हैं।

चुनाव आयोग को “वन साइज फिट्स ऑल” नीति से बचना चाहिए, क्योंकि थारू समुदाय के सबसे अधिक लोग दूसरे राज्यों में प्रवासी मजदूर के रूप में काम करते हैं।

थारुओं के लिए मतदान केवल अधिकार नहीं, बल्कि मान्यता और अस्तित्व का प्रतीक है। वर्तमान संशोधन अभियान उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया से बाहर करने का खतरा पैदा कर रहा है।

दस्तावेजों की चुनौती

अधिकतर थारू परिवारों के पास जन्म प्रमाणपत्र या नागरिकता प्रमाण नहीं हैं। यह समस्या लगभग सभी आदिवासी समुदायों में आम है, क्योंकि इनके पास नागरिक पंजीकरण प्रणाली तक ऐतिहासिक रूप से कम पहुंच रही है।

हालांकि आधार कार्ड उनके पास आमतौर पर होता है, लेकिन एसआईआर के शुरुआती दिशानिर्देशों में आधार को वैध नहीं माना गया था, जिससे उनकी चिंता बढ़ गई।

भौगोलिक स्थिति भी मुश्किलें खड़ी करती है। भारत-नेपाल सीमा पर बसे होने के कारण ठारू लोगों को अकसर ‘विदेशी नागरिक’ समझने की गलतफहमी पैदा होती है। यह शक निराधार होते हुए भी समुदाय में असुरक्षा की भावना बढ़ाता है।

मजदूरी और काम के लिए मौसमी पलायन के चलते कई थारू लोग सत्यापन अवधि के दौरान गांव में मौजूद नहीं रहते। अगर आक्रामक जागरूकता अभियान नहीं चलाए गए और संस्कृति-संवेदनशील दृष्टिकोण नहीं अपनाया गया, तो हजारों वैध मतदाता सूची से बाहर हो सकते हैं।

मानसून की तबाही भी ठारू क्षेत्रों में मुश्किलें बढ़ा देती है। बारिश के चलते यह इलाका कई हफ्तों तक पानी में डूबा और महीनों तक दुर्गम रहता है। थारू बहुल क्षेत्रों में पक्की सड़कें नहीं हैं, क्योंकि टाइगर रिजर्व क्षेत्र में सड़क निर्माण की अनुमति नहीं है। मोबाइल नेटवर्क और कंप्यूटर सुविधाएं भी बेहद खराब हैं। ऐसे में फॉर्म भरना और मोबाइल पर अपलोड करना अव्यावहारिक (ऑक्सिमोरॉनिक) हो जाता है।

मताधिकार छीनने की राजनीति

एसआईआर ने बिहार की राजनीति में नया विवाद खड़ा कर दिया है। इंडिया गठबंधन के नेताओं का आरोप है कि भाजपा सरकार और चुनाव आयोग विपक्षी दलों को समर्थन देने वाले समुदायों के वोटों को जानबूझकर दबाने की कोशिश कर रहे हैं।

पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने कहा कि एसआईआर “प्रशासनिक प्रक्रिया के नाम पर लक्षित मताधिकार-ह्रास (डिसेनफ्रैंचाइजमेंट) है।

हालांकि चुनावी साल में राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप सामान्य हैं, पर विशेषज्ञ मानते हैं कि कम समय सीमा, पारदर्शिता की कमी और कड़े दस्तावेज मानक लाखों लोगों का नाम काट सकते हैं—और वह भी चुनावी शुचिता के नाम पर।

लोकतंत्र में हाशिये के लोग भी शामिल हों

मतदाता सूची का सटीक होना जरूरी है—पर यह लोकतांत्रिक भागीदारी की कीमत पर नहीं होना चाहिए।

थारू जैसे आदिवासी समुदायों के लिए अधिक समावेशी दृष्टिकोण जरूरी है। एसआईआर को प्रभावी और न्यायसंगत बनाने के लिए कुछ कदम जरूरी हैं:

  • दस्तावेजों में लचीलापन: आधार, मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड को बिना भेदभाव स्वीकार किया जाए।

  • समयसीमा बढ़ाना: एक महीना प्रवासी और दूरदराज के समुदायों के लिए काफी नहीं है।

  • लक्षित जागरूकता: थारू भाषा माध्यम और स्थानीय नेताओं का उपयोग कर जागरूकता फैलाना।

  • बुनियादी ढांचे पर ध्यान: सरकार को इन दूरस्थ क्षेत्रों में बेहतर मोबाइल नेटवर्क और सिग्नल टावर लगाने चाहिए।

  • स्वतंत्र निगरानी: तीसरे पक्ष की निगरानी और शिकायत निवारण प्रणाली लागू की जाए।

निष्कर्ष

मतदान केवल अधिकार नहीं—यह मान्यता है।

बिहार के थारू समुदाय ने अपनी आवाज को लोकतांत्रिक भागीदारी के माध्यम से स्थापित करने के लिए लंबा संघर्ष किया है।

मौजूदा एसआईआर उनकी इस मेहनत से कमाई वैधता को मिटा सकता है।

मतदाता सूची का सटीक होना जरूरी है, लेकिन बहिष्करण और अपारदर्शी प्रक्रिया लोकतंत्र की जड़ें खोखली कर सकती हैं।

ईसीआई, नागरिक समाज और आम नागरिकों की जिम्मेदारी है कि कोई भी समुदाय—विशेषकर जो पहले से ही हाशिये पर है—बेआवाज न हो।

लोकतांत्रिक प्रक्रिया को समावेशी बनाना होगा, न कि चुनिंदा।

ठारू समुदाय के मामले में, उनके वोट को सुरक्षित रखना जरूरी है, क्योंकि यह केवल एक सूची में दर्ज नाम नहीं—बल्कि एक व्यक्ति की सामूहिक रूप से राष्ट्र निर्माण में अपनी आवाज़ दर्ज करने की अस्तित्वगत मान्यता है।

रफिया काजिम, सहायक प्रोफेसर, समाजशास्त्र विभाग, एलएनएम विश्वविद्यालय, दरभंगा।
उन्होंने लर्निंग एंड लैंग्वेज ऑफ दी इनफील्डस पुस्तक लिखी है।

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