बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई

खाद्य मुद्रास्फीति में एक प्रतिशत की वृद्धि एक करोड़ अतिरिक्त लोगों को गरीब बना देती है
योगेन्द्र आनंद
योगेन्द्र आनंद
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दुनिया खाद्य मुद्रास्फीति नामक एक नई महामारी की जकड़ में है। पिछले दो वर्षों में कोविड-19 महामारी से उपजे हालात और अब रूस-यूक्रेन युद्ध ने खाद्य महंगाई को अभूतपूर्व गति से बढ़ा दिया है। पिछले पखवाड़े कोविड-19 महामारी ने वैश्विक मीडिया में पहले पेज से अपनी जगह खो दी है। प्रमुख वैश्विक घटनाक्रम में खाद्य मुद्रास्फीति ने उसकी जगह ले ली।

खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) के विश्लेषण के अनुसार, खाद्य महंगाई 2020 के मध्य के मुकाबले 75 फीसदी बढ़ गई है। राष्ट्रीय सांख्यकी कार्यालय द्वारा 12 अप्रैल 2022 को जारी अखिल भारतीय उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) के अनुसार, भारत में ग्रामीण उपभोक्ता खाद्य महंगाई में मार्च 2021 से मार्च 2022 के बीच 100 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। 2021-22 में भारत की वार्षिक थोक मुद्रास्फीति 13 प्रतिशत रही जो दशक में सर्वाधिक है। इसमें खाद्य एवं ईंधन के बढ़े मूल्य की बड़ी भूमिका रही।

इसका असर यह हुआ कि दुनिया में सबसे महंगा खाद्य राहत अभियान चलाने वाले वैश्विक खाद्य कार्यक्रम (डब्ल्यूएफपी) को अतिरिक्त फंडिंग के लिए मजबूरी भरी अपील करनी पड़ी। दरअसल खाद्य महंगाई के कारण डब्ल्यूएफपी का प्रतिदिन का खर्च बढ़ता जा रहा है। अब उसे राहत कार्यक्रम को जारी रखने के लिए 71 मिलियन डॉलर अतिरिक्त खर्च करने पड़ रहे हैं।

रूस-यूक्रेन युद्ध के परिप्रेक्ष्य में ऊर्जा सुरक्षा पर भी ध्यान केंद्रित हो गया है। दुनिया चर्चा कर रही है कि कैसे जीवाश्म ईंधनों में बाधा से वैश्विक तापमान के नियंत्रण हेतु ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के वैश्विक प्रयास बेपटरी हो सकते हैं। ईंधन के भाव ने पहले से ही सभी चीजों के दाम बढ़ा दिए हैं, चाहे वह खाद्य उत्पादन हो या परिवहन। युद्ध ने अनाज की आपूर्ति श्रृंखला और वितरण को भी बाधित किया है, जिससे मांग व आपूर्ति का समीकरण बिगड़ गया है। वहीं दूसरी तरफ चरम मौसम की घटनाएं खाद्य उत्पादन वाले क्षेत्रों पर विपरीत प्रभाव डाल रही हैं, जिससे कुल उत्पादन में गिरावट देखी जा रही है। संक्षेप में कहें तो भोजन यानी जीवन की मौलिक आधार खतरे में है।

इस संकट ने वैश्विक दुनिया की एक और कमी उजागर कर दी है। जब कोविड-19 महामारी ने दस्तक दी, तब आपस में जुड़ी वैश्विक दुनिया को अचानक होश आया और हालात बिगड़ने पर सभी देशों ने आत्मसुरक्षा पर ध्यान केंद्रित कर लिया। खासकर अमीर देशों ने लालचवश महामारी से लड़ने के लिए जरूरी सभी संसाधनों पर कब्जा कर लिया और दूसरों को उनके हाल पर छोड़ दिया।

खाद्य क्षेत्र भी आपस में जुड़ा है और एक-दूसरे पर खतरनाक ढंग से आश्रित है। डब्ल्यूएफपी ने इसके परिणाम को “सीस्मिक हंगर क्राइसिस” कहा है जो दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले रहा है। अफ्रीका और मध्य पूर्व में भूख का संकट दिखने भी लगा है। विश्व बैंक ने चेताया है कि खाद्य मूल्य में एक प्रतिशत की वृद्धि, दुनियाभर में एक करोड़ अतिरिक्त लोगों को गरीबी की दलदल में पहुंचा देती है। खाद्य मुद्रास्फीति में वृद्धि दुनियाभर के गरीबों और विकासशील देशों को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रही है क्योंकि इनमें से अधिकांश देश खाद्य आयातक भी हैं। उदाहरण के लिए करीब 50 देश (अधिकांश गरीब) गेहूं के लिए रूस और यूक्रेन पर निर्भर हैं।

अतिरिक्त अनाज वाले अधिकांश देश निर्यात पर प्रतिबंध लगाकर ज्यादा से ज्यादा खाद्यान्न का भंडारण कर रहे हैं। इससे कम खाद्यान्न उत्पादन वाले क्षेत्रों में अनाज की उपलब्धता पर असर पड़ रहा है। यही वजह है कि अप्रत्याशित रूप से विश्व बैंक समूह के प्रमुख, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, डब्ल्यूएफपी और विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) को संयुक्त अपील करनी पड़ी, “हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय से आह्वान करते हैं कि वे कमजोर देशों को तत्काल मदद पहुंचाएं।

यह मदद आपातकालीन खाद्य आपूर्ति, आर्थिक सहायता, कृषि उत्पादन बढ़ाकर और खुले व्यापार जैसे संयुक्त उपायों से पहुंचाई जाए।” इसके अलावा तत्काल खाद्य निर्यात की भी अपील की गई। इसमें कहा गया, “हम सभी देशों से अपील करते हैं कि व्यापार खुला रखें और खाद्य अथवा उर्वरकों के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने से बचें क्योंकि इससे सर्वाधिक संवेदनशील लोगों की तकलीफें और बढ़ जाएंगी।” यह अपील कोविड-19 की शुरुआत में वैश्विक एकजुटता दिखाने के लिए की गई अपील से मेल खाती है। शायद यह पहली बार है जब खाद्य संकट पर वैश्विक आह्वान किया गया है। वैश्विक जगत की कथनी और करनी में फर्क रहा है। उम्मीद करते हैं कि इस अपील का हश्र कोविड संकट में की गई अपील जैसा न हो।

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