जीडीपी नहीं अब जीईपी

उत्तराखंड भारत का पहला राज्य होगा जो अर्थव्यवस्था को सकल घरेलू उत्पा द की बजाय सकल पर्यावरण उत्पा द के आधार पर गणना करेगा।
जीडीपी नहीं अब जीईपी
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हाल के दिनों में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने केंद्र सरकार से हिमालयी राज्यों के लिए अलग मंत्रालय बनाने की मांग उठाई। यह एक ऐसी मांग थी जिसे बहुत ज्यादा तवज्जो तो नहीं मिली। लेकिन इसने एक व्यापक वैश्विक बहस छेड़ दी है। यह मांग उन राज्यों को “हरित लाभ” (ग्रीन बोनस) प्रदान करने के उद्देश्य के तहत था जो देश को हरित सेवाएं या पारिस्थितिक सेवाएं प्रदान करते हैं।

इस संबंध में उत्तरखंड के योजना विभाग के मुख्य समन्वय अधिकारी मनोज पंत कहते हैं, “हरित लाभ की अवधारणा कार्बन क्रेडिट के समान ही है। ऐसे राज्य जो प्राकृतिक संसाधनों से संपन्न हैं और उसे संरक्षित भी करते हैं।” लंबे समय से हिमालयी राज्य इन सेवाओं के लिए भुगतान की मांग करते रहे हैं क्योंकि वे देश के प्रमुख जल स्रोतों के उद्गम स्थल और जैव विविधता की रक्षा करते रहे हैं। वह कहते हैं कि राज्य स्तर पर उत्तराखंड भारत का ऐसा पहला ऐसा राज्य होगा जो अर्थव्यवस्था को सामान्य सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की बजाय सकल पर्यावरण उत्पाद (जीईपी) के आधार पर गणना करेगा।

जीईपी की अवधारणा सबसे पहले पर्यावरणविद अनिल जोशी ने दी। वह देहरादून स्थित पर्यावरण अध्ययन व संरक्षण संगठन (एचईएससीओ) के निदेशक भी हैं। इसके लिए उन्होंने 2011 में सकल घरेलू उत्पाद के समानांतर एक और विकास उपाय जीईपी आधारित गणना के लिए एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की थी। इसका फैसला 2013 में आया और इसके तहत कहा गया कि जीईपी की गणना के लिए एक समिति गठित की जाएगी।

इस विषय पर हाल ही में (16-17 जून, 2018) चंडीगढ़ में हिमालयी पारिस्थितिकी पर आयोजित तीसरी राष्ट्रीय संवाद बैठक में बड़ी संख्या में अर्थशास्त्रियों, पर्यावरणविदों व नीति निर्माताओं ने भाग लिया। बैठक में विचार हुआ कि वे राज्य या संस्थाएं जो पारिस्थितिक सेवाएं प्रदान कर रही हैं, उन्हें इस सेवा के बदले भुगतान कैसे किया जाए। इस संबंध में अनिल जोशी कहते हैं, “हमारा यह मानना है कि वन क्षेत्र या किसी भी पारिस्थितिक तंत्र की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए एक अलग विकास उपाय होना चाहिए।

केदारनाथ की त्रासदी के बाद हम लोगों ने वन व अन्य पारिस्थितिक तंत्रों को संरक्षित करने के महत्व को जाना है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि जीडीपी के साथ-साथ जीईपी की गणना भी आवश्यक है।” वह कहते हैं कि पहाड़ी क्षेत्र में सबसे अधिक देवदार(चीयर पाइन) के पेड़ पाए जाते हैं। क्या देवदार के पेड़ हमें सीशम या सखूए के पेड़ जैसी सेवाएं दे पाते हैं। इसका जवाब हमें न में ही मिलता है। वास्तव में मुख्य मुद्दा यह है यह कि पारिस्थितिक तंत्र से प्राप्त सेवाएं पारिस्थितिक तंत्र के स्वास्थ्य पर ही निर्भर करती हैं।

इस दिशा में शोधकर्ताओं ने शोधपत्रों के आधार पर यह अनुमान लगाना शुरू कर दिया है कि राज्य के पास कितना प्राकृतिक संसाधन है। सबसे पहले, वे वन भूमि, लकड़ी आदि की उपलब्धता की वर्तमान स्थिति की गणना करने जा रहे हैं। उसके बाद, ईंधन के लिए उपयोग की जाने वाली लकड़ी, वन क्षेत्र की वार्षिक वृद्धि और उत्पादित गैर-वन की मात्रा आदि के आधार पर इसकी गणना करेंगे कि ये वन संसाधन कितनी और क्या सेवाएं हमें प्रदान कर रहे हैं? इन प्रत्यक्ष सेवाओं के अलावा कई अन्य अप्रत्यक्ष सेवाएं जैसे पानी, मिट्टी संरक्षण, कृषि, वायु गुणवत्ता, कार्बन भंडारण, कार्बन रोक, मनोरंजन और पर्यटन की भी गणना की जाएगी। अभी तक करीब 22 सेवाओं को सूचीबद्ध किया गया है। अनुमान में पाया गया कि सिर्फ रोजगार उपलब्ध कराने से ही करीब 300 करोड़ रुपए व कार्बन रोक से करीब 1,482 करोड़ रुपए का राजस्व प्राप्त किया जा सकता है।

भुगतान कैसे किया जाए

चंडीगढ़ संवाद बैठक के दौरान विशेषज्ञों ने इस मुद्दे पर बातचीत की कि सेवा प्रदाताओं को ऐसी पर्यावरण सेवाओं (पीईएस) के लिए भुगतान कैसे किया जा सकता है? पीईएस, जीईपी के अगले चरण की तरह है, जहां पारिस्थितिक सेवाओं के संरक्षण के लिए लाभार्थियों को भुगतान प्रदान किया जाता है। इस संबंध में हैदराबाद के सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर के कार्यकारी निदेशक जी. वी. रामाजनेयुलू कहते हैं, “पीईएस की गणना करने के लिए जीईपी के अनुमानित मूल्यों का उपयोग एक उपकरण के रूप में किया जा सकता है, लेकिन जीईपी पर आगे की गणना की भी आवश्यकता होगी।” उदाहरण के तौर पर यदि एक किसान रासायनिक खेती से जैविक खेती में स्थानांतरित हो गया है और इस बदलाव से मिट्टी संरक्षित होती है, तो उसे इस पारिस्थितिक सेवाओं के लिए भी भुगतान करना होगा।

खेती के मामले में प्रदान की जाने वाली सेवाएं जैसे खाद, पानी, कच्चे माल, अच्छी वायु गुणवत्ता, अपशिष्ट, मिट्टी की उर्वरता, परागण, आनुवंशिक विविधता का 2016 तक प्रत्येक सेवाओं का मौद्रिक मूल्य प्रति वर्ष 2,76,608 रुपए प्रति हेक्टेयर अनुमानित किया गया। एम.एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन की प्रमुख वैज्ञानिक मंजूला मेनन कहती हैं, “खेती के तहत, किसान पहले ही खाद्य पदार्थ और पुर्नउपयोग के लिए भुगतान कर चुका है। इन दोनों सेवाओं का प्रति वर्ष प्रति हेक्टेयर अनुमान 1,74,800 रुपए होगा, जो प्रति माह लगभग 14,570 रुपए प्रति हेक्टेयर है।”

विशेषज्ञ कहते हैं कि इसके लिए नई राशि आवंटन की कोई जरूरत नहीं है, इस मामले में सरकार को केवल नियमित जारी की जाने वाली धनराशि ही आवंटित करनी होगी। जैसे, भूजल, सिंचाई और बाढ़ के लिए आपदा प्रबंधन द्वारा धन आवंटित किया जाता है। ये तीनों तीन अलग-अलग सरकारी निकायों के अंतर्गत आते हैं और प्रत्येक के पास अलग बजट का आवंटन होता है। इसीलिए, पीईएस के तहत, जब किसान बाढ़ के पानी द्वारा सिंचाई से ड्रिप सिंचाई की ओर जाता है, तो वह एक निश्चित मात्रा में पानी बचाएगा ही।

इस बचत से मूल्यों की गणना की जाएगी और सिंचाई विभाग द्वारा प्रोत्साहन राशि को भी पुनर्निर्देशित किया जाएगा। इससे भूजल स्तर में भी सुधार के साथ-साथ बढ़ोतरी होगी। उसी तरह, एक किसान को संसाधनों को बचाने व कृषि तकनीक में बदलाव लाकर पारिस्थितिकी तंत्र में सुधार के लिए किए गए कदमों के अनुसार भुगतान भी किया जाएगा। किसान को 14,570 रुपए का भुगतान तभी किया जाएगा जब उसने खेत की सभी सेवाओं की देखभाल सही तरीके से की हो। यदि उसने केवल दो से तीन सेवाओं का ही ध्यान रखा होगा तो उस परिस्थिति में उसे तदनुसार भुगतान किया जाएगा।

खाद्य व व्यापार नीति विश्लेषक देवेन्द्र शर्मा कहते हैं कि किसी देश के जीडीपी में वृद्धि को विकास सूचक के रूप में देखा जाता है, लेकिन यह वृद्धि अक्सर पारिस्थितिकीय हानि की लागत पर आती है जिसे जीडीपी की गणना करते समय जिम्मेदार नहीं माना जाता है। इस समय भारत ने परिस्थितिकीय सेवाओं के मौद्रिक मूल्य की गणना करना शुरू कर दिया है। वे कहते हैं कि अभी पीईएस के क्रियान्वयन की आवश्यकता है। पीईएस गणना के लिए पृष्ठभूमि का कार्य आंध्र प्रदेश के चार जिलों अनंतपुर, कडप्पा, विजयनगरम और कुरनूल में शुरू किया जा रहा है। रामाजनेयुलू कहते हैं, इस कार्य की शुरूआत जुलाई, 2018 में की जाएगी।

(साथ में देहरादून से वर्षा सिंह)

एक नई अवधारणा
 

हरित-सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) सकल पर्यावरण उत्पाद (जीईपी) के समान एक अवधारणा है। इस अवधारणा का जन्म सर्वप्रथम 20-22 जून, 2012 में रियो डी जेनैरो में आयोजित 20वें अर्थ सम्मेलन में हुआ। इसके लगभग एक माह बाद ही (25 मई,2012) दस अफ्रिकी देश बेहतर आर्थिक निर्णय लेने के लिए अपने प्राकृतिक संसाधनों के मूल्य को अपने राष्ट्रीय खातों में शामिल करने पर सहमत हुए। यह समझौता बोत्सवाना की राजधानी गैबोरोन में हुआ।

जहां तक भारत की बात है हरित जीडीपी पर बातचीत 2009 में शुरू हो गई थी। हरित जीडीपी पर पहली बार कई देश ठोस कदम उठाने के इच्छुक दिख रहे हैं। जीडीपी के पारंपरिक मॉडल के साथ समस्या यह है कि यह प्राकृतिक संसाधनों पर विचार नहीं करता है। जैसे लकडी से अर्जित राजस्व वह जीडीपी में दिखाता है लेकिन कार्बन के उत्सर्जन की रोकथाम में महत्पूर्ण भूमिका निभाने वाले जंगलों की परिस्थितिक तंत्र की सेवाओं का ध्यान नहीं रखता। भारत उन गिने-चुने देशों में शामिल है जिसने अर्थव्यवस्था को मापने के लिए जीडीपी का विरोध किया था।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण काय्रक्रम के प्रमुख अर्थशास्त्री पुष्पम कुमार कहते हैं कि अब वक्त आ गया है कि स्थायी विकास के लिए प्राकृतिक संसाधनों को मुख्य धारा में लाया जाना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की जैव विविधता रिपोर्ट के अनुसार, वर्तमान दर पर वनों की कटाई से इस शताब्दी के मध्य तक वैश्विक अर्थव्यवस्था की लागत 2 से 4.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर होगी।

रिपोर्ट के अनुसार 2008 में दुनिया की 3,000 सबसे बड़ी सूचीबद्ध कंपनियों द्वारा कुल पर्यावरणीय क्षति लगभग 2.2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर थी। प्राकृतिक संसाधनों का महत्व प्राकृतिक आपदाओं के बाद और बढ गया है। जैसे 2004 में थाईलैंड ने सुनामी के बाद प्राकृतिक पूंजी लेखांकन लागू किया।

आस्ट्रेलिया ने भीषण सूखे के बाद अपने जल संसाधनों को मूल्यांकन शुरू किया। इसके बाद उसने ऊर्जा, जमीन व खनिजों का भी लेखांकन शुरू किया। नाइजीरिया ने भी प्राकृतिक पूंजी लेखांकन को अर्थव्यवस्था का आधार बनाया, इससे उसका आर्थिक विकास लगभग 40 प्रतिशत बढ़ा।

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